कलियुग में पाखंड अपनी चरमावस्था में है। अनाधिकृत लोग धर्म गुरु की पदवी धारण किए बैठे हैं, अपने शास्त्रों से विमुख सनातनियों द्वारा राजनेताओं और अभिनेताओं के मंदिर बनाए जा रहे हैं। लाखों-करोड़ों लोग साधारण मनुष्यों को भगवान् बनाकर (जिसमें एक मलेक्ष भी सम्मिलित है) मंदिरों में प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा करके स्वयं से दरिद्रता, भय, दैवीय प्रकोप एवं अकाल मृत्यु को निमंत्रण दे रहे हैं ।
यज्ञों में अनाधिकृत तत्व, यज्ञ का उचित विधि-विधान जाने बिना ही बड़ी-बड़ी यज्ञशालाएं बनाकर जर्सी गाय-भैंस के घी द्वारा उन मन्त्रों से देवी-देवताओं को आहुतियां दे रहे हैं जिनका उनके लिए विशेष निषेध (उन्हीं के कल्याण हेतु) किया गया था और अपने धर्म से अनभिज्ञ सनातनी समाज उनको अपना धर्म गुरु मानकर, उनका अनुसरण करके अपने लिए नर्क का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
वाल्मीकि रामायण में कहा गया है–
विधिहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कर्ता विनश्यति ।
तद्यथा विधिपूर्वं मे क्रतुरेष समाप्यते ॥१-८-१८॥
{श्रीमद्वाल्मीकियरामायणे बालकाण्डे अष्टमः सर्गः}
इसी प्रकार क्या सनातनी किसी को भी अपना भगवान् बनाकर उसकी पूजा कर सकते हैं ? आइए जानते हैं इस विषय पर हमारे धर्म ग्रन्थ क्या कहते हैं—
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते। त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम् ।।
अर्थात्—
"जहाँ अपूज्य की पूजा होती है और पूजनीय की पूजा नहीं होती, वहां दरिद्रता, मृत्यु एवं भय ये तीनों अवश्य होते हैं"।
[श्रीशिवमहापुराण, रूद्रसंहिता, सतीखंड, अध्याय ३५, श्लोक संख्या ९]
श्रीशिवमहापुराण के रूद्रसंहिता सतीखंड में ३५वें अध्याय में कहा गया है कि—
"ईश्वरावज्ञया सर्वं कार्यं भवति सर्वथा।
विफलं केवलं नैव विपत्तिश्च पदे पदे।।"
अर्थात्—
"ईश्वर की अवहेलना से सारा कार्य ना केवल सर्वथा निष्फल हो जाता है, अपितु पग-पग पर विपत्ति भी आती है"।
जब व्यक्ति शास्त्रों में बताए गये कार्य के विपरीत कार्य करता है या शास्त्रों में बताई गयी मर्यादा का उल्लंघन करता है तब ईश्वर की आज्ञा की अवहेलना ही होती है।
श्रीमद्भागवत पुराण के छठे स्कन्ध के पहले अध्याय में भी कहा गया है कि...
"वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय: ।"
अर्थात्—
वेदों में विहित बताए गये कर्मो को करना धर्म है और उसके विपरीत (वेदों में निषिद्ध) कार्यों को करना अधर्म है।
श्रीमद् भगवद्गीता में श्री कृष्ण भगवान् अर्जुन से कहते हैं...
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
अर्थात्—
जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को, न सुख को और न परमगति को ही प्राप्त होता है।।१६.२३।।
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।
अर्थात् —
अतः तेरे लिए कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था (निर्णय) में शास्त्र ही प्रमाण है, शास्त्रोक्त विधान को जानकर तुझे अपने कर्म करने चाहिए।।१६.२४।।
इस विषय में शिव पुराण में कहा गया है–
यो वैदिकमनावृत्य कर्म स्मार्तमथापि वा ।
अन्यत् समाचरेन्मर्त्यो न संकल्पफलं लभेत् ॥
अर्थात् —
जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियों में कहे हुए सत्कर्मों की अवहेलना करके दूसरे कर्म को करने लगता है, उसका मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होता।
(शिव पुराण विद्येश्वर संहिता २१। ४४)
अतः वेदादि शास्त्रों में जिन देवी-देवताओं के पूजन का विधान है, सनातनियों को केवल उन्हीं की पूजा करनी चाहिये और कलियुगी पाखंडी गुरुओं के प्रपंचों में पड़ने के स्थान पर प्राचीन 'सनातन वैदिक आर्य हिंदू' संस्कृति द्वारा निर्देशित परम्परा प्राप्त धर्म गुरुओं तथा अपने प्राचीन धर्म ग्रंथो ही अनुसरण करना चाहिए।
"शिवार्पणमस्तु"
- Astrologer Manu Bhargava
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