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शनिवार, 22 जून 2024

लोकेष्णा


 
अज्ञान के अंधकार से व्याप्त मनुष्य की बुद्धि और मन सदा तीन प्रकार की तृष्णाओं से घिरा रहता है ।

१- वित्तेष्णा, २- पुत्रेष्णा और ३- लोकेष्णा

वित्तेष्णा अर्थात् धन प्राप्ति की इच्छा, पुत्रेष्णा
अर्थात् पुत्र (संतान) प्राप्ति की इच्छा अथवा उसमें आसक्ति और लोकेष्णा अर्थात् "संसार भर में मान-सम्मान, यश, प्रसिद्धि प्राप्त करने की तृष्णा ।"
मेरे इस ब्लॉग का विषय है 'लोकेष्णा'। अतः यहां केवल इसी विषय पर बात करेंगे ।

वर्तमान में लोकेष्णा की तृष्णा में मनुष्य इस प्रकार से घिरे हुए हैं कि उन्हें इस बात का बोध भी नहीं है कि इसके अंधे कुएं में गिरकर वह स्वयं की आत्मा से कितने दूर निकल चुके हैं । स्वयं को परम् सात्विक समझने वाला मनुष्य, जिसमें वित्तेष्णा और पुत्रेष्णा यदि न भी हो तो वह भी लोकेष्णा के प्रभाव से बच नहीं पाता और लोकेष्णा
भी कैसी कि मनुष्य अपने ही जैसे नाशवान हाड़ मांस के शरीरों से सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखने लगता है तथा वह ऐसे संसार से यश प्राप्ति की इच्छा करता है जो दृष्टिगोचर तो होता है किन्तु वास्तव में है ही नहीं ("ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:" के सिद्धांत के आधार पर) ।

लोकेष्णा की इस अग्नि में जलकर कितने ही राजा-महाराजा, साधु-संत और राजनेता आदि स्वयं तो सर्वनाश को प्राप्त हो ही चुके हैं, उनकी इस लोकेष्णा की तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही ऐसे मनुष्यों को भी अपना बलिदान देना पड़ा है, जिनकी कोई भूल भी नहीं थी ।

आज भारत में एक 'महामानव' विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तथा भारत में अपने परम शत्रुओं से सम्मान प्राप्ति की लालसा में अपने ही धर्म के करोड़ों मनुष्यों का जीवन दाँव पर लगाए हुए है । १९४७ में भी यही हुआ था जब एक 'महामानव' ने अपनी लोकेष्णा
की अंधी वासना को शांत करने के लिए अपने ही धर्म के लाखों लोग कटवा दिए थे । प्राचीन काल में भी अनेकों बार दूसरों की लोकेष्णा की अंधी अग्नि को शांत करते-करते न जाने कितने ही प्राणियों को अपना बलिदान देना पड़ा है ।

लोकेष्णा की इस अंधी अग्नि से सामान्य जन भी अछूता नहीं है । माता-पिता भी अपने बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने का ज्ञान न देकर उन्हें लोकेष्णा की इस अग्नि में झोंक देते हैं । वह उन्हें यह ज्ञान नहीं देते कि तुम्हें अपना जीवन इस देह के होने के अभिमान से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति में लगाना है और इतना लगाना है कि किसी से यह सुनने की इच्छा भी शेष न रहे कि देखो ! "वह बालक ईश्वर की कितनी भक्ति करता है " क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो उस बालक की भक्ति में भी लोकेष्णा ही लोकेष्णा व्याप्त होगी, ईश्वर प्राप्ति की इच्छा नहीं ।

सभी दिशाओं से अपने लिए वाहवाही और प्रशंसा लूटने की इच्छाओं ने मानवीय चेतना को इतना निम्न स्तर का बना दिया है कि सात्विक से सात्विक आचरण करने वाला मनुष्य भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाता और यहीं उसकी आत्मा का पतन हो जाता है ।

माला पहनते हुए मेरा चित्र समाचार पत्र में आ जाए, किसी सांसद-विधायक के साथ मेरी फोटो खिंच जाए, मेरी संतान को विद्यालय में प्रथम पुरस्कार मिल जाए, मेरे द्वारा बनाई गई वस्तु अथवा लिखी हुई पुस्तक को चारों ओर से प्रशंसा प्राप्त हो जाए, दूर देशों तक मेरा अथवा मेरी संतान का नाम व्याप्त हो जाए, मैं जिस भी समारोह में जाऊं वहां मेरी जय-जयकार हो, फेसबुक-इंस्टाग्राम-यूट्यूब पर मेरे अभिनय, कला और नृत्य आदि की पोस्ट पर मुझे ढेरों लाइक्स और अच्छे कमेंट्स प्राप्त हों, मैं यदि शिक्षक-शिक्षिका हूँ तो विद्यालय में सभी विद्यार्थी मेरे ज्ञान की प्रशंसा करें, मैं यदि ऑफिस में कार्य करता हूँ तो कार्यस्थल पर सभी मेरी प्रशंसा करें, मेरे रिश्तेदार-पड़ोसी मेरी तथा मेरे बच्चों की प्रशंसा करें, मैं जिस बस-ट्रेन-प्लेन आदि में भी यात्रा करूं वहां भी लोग मुझे बार बार मुड़कर देखें आदि लोकेष्णा के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिससे साधारण मनुष्य तो छोड़ दीजिए दूर से ज्ञानी और महान प्रतीत होने वाला मनुष्य भी सदा घिरा रहता है । ऐसे मनुष्यों का यदि बस चले तो वह मार्ग में चलती हुई चींटी को भी रोककर अपनी प्रशंसा के गीत सुनने के बाद ही उसे वहां से प्रस्थान करने दें ।

लोकेष्णा से भरे हुए मनुष्यों की आत्ममुग्धता की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि वह न तो यह देख पाते हैं और न ही समझ पाते हैं कि उनके आसपास के लोग अपना कार्य निकालने के लिए सामने से उनकी कितनी ही प्रशंसा करे लें किन्तु भीतर से उनको मूर्ख ही समझते हैं और पीठ पीछे उनकी निंदा करते हैं और जो विद्वान हैं, लोकेष्णा की स्थिति को समझते हैं, वह उनकी तुच्छ बुद्धि पर तरस खाते हैं ।

अतः देखा जाए तो लोकेष्णा की तृप्ति से घिरा मनुष्य अपने परलोक को तो कब का नष्ट कर ही चुका होता है अपने इस लोक को भी नष्ट कर रहा होता है क्यूंकि लोक में भी नाम और प्रसिद्धि अपने साथ विपत्ति ही लेकर आती है । ऐसे व्यक्ति के जितने मित्र नहीं होते उससे कहीं अधिक शत्रु होते हैं क्यूंकि उसके नाम और प्रसिद्धि के कारण उससे जलने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है । वह स्वयं को जिस समारोह की आभा समझ रहा होता है उसी समारोह में यदि ४ व्यक्ति उसके प्रशंसक होते हैं तो उससे कहीं अधिक उसके निंदक होते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भौतिक जगत में आगे बढ़ना, अपना कैरियर बनाना, अपनी सफलता के लिए कार्य करना आदि क्या यह सब व्यर्थ का कार्य है ?
इसका उत्तर है— नहीं ! भौतिक ऊंचाइयों को प्राप्त करना कोई अपराध नहीं है किन्तु अपने ही जैसे नाशवान मनुष्यों से सम्मान प्राप्त करने की लालसा रखना, अपनी वाहवाही लूटने के लिए नित्य नए-नए नाटक करना तथा अपनी आत्ममुग्धता के अंधे कुएं में अपनी आत्मा की वास्तविक स्थिति को खो देना महान मूर्खता है ।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं तो कभी अपने मुख से किसी की प्रशंसा नहीं करते, इसके विपरीत सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं । वास्तव में इनकी चेतना का स्तर तो पशुओं से भी अधिक गिरा हुआ होता है क्यूंकि पशु भी अपने को प्रेम करने वाले के प्रति अपना पूरा समर्पण व्यक्त करते हैं । उच्च कोटि की चेतना रखने वाले साधकजन ऐसे लोगों का उपहास नहीं उड़ाते इसके विपरीत वह केवल इनकी तुच्छ बुद्धि और अज्ञान पर तरस ही खाते हैं क्यूंकि ब्रह्मज्ञानी को कभी लोकेष्णा को शांत करने की भूख नहीं होती । न तो वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त करने की कोई लालसा ही करता है और न ही वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त होने पर प्रभावित होता है, इसके विपरीत वह तो सदा ईश्वर की भक्ति में स्वयं को आत्मस्वरूप मानकर अपना जीवन यापन करता है, सांसारिक मान-सम्मान की आकांक्षाओं से वह मोहित नहीं होता क्यूंकि वह जानता है कि "इस नाशवान संसार में अविनाशी तत्व यदि कोई है तो वह केवल और केवल 'चैतन्य परमात्मा' ही है और मनुष्य का नाम, पद, प्रसिद्धि आदि इस देह के छूटने के उपरान्त सब यहीं रह जाता है और उसके साथ जो जाता है वह होते हैं उसके शुभाशुभ कर्म ।

वह लोक-परलोक के इस रहस्य को भी जानता है कि जो मनुष्य इस भौतिक जगत में अपने भौतिक ज्ञान के कारण, अपने लेखन के कारण, अपने अभिनय और कला के कारण, अपने उच्च पद के कारण, बड़े राजनेता या राष्ट्रध्यक्ष होने के कारण, अपनी मृत्यु के उपरान्त भी आज तक सम्मान प्राप्त कर रहा है, हो सकता है कि वह अपने जीवनकाल में पापों की अधिकता होने से पारलौकिक जगत में अनंत काल के लिए घोर नर्कों में यातनाएं प्राप्त कर रहा हो ।

इसके विपरीत जो मनुष्य इस भौतिक जगत में कभी कोई पद-प्रसिद्धि प्राप्त न कर पाया हो , जिसका कहीं कोई नाम तक लेने वाला न हो, हो सकता है कि अपनी मृत्यु के उपरान्त अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वह अनन्त काल तक के लिए मृत्युलोक से दूर स्वर्ग में आनंद प्राप्त कर रहा हो ।

तत्वज्ञानी यह जानते हैं कि इस भौतिक जगत में प्राप्त इस नाम, प्रसिद्धि, प्रशंसा का पारलौकिक जगत में कोई महत्व नहीं है । हो सकता है कि भौतिक जगत में जिनकी प्रसिद्धि के कारण उनके पुतले बनाकर उन पर प्रतिदिन माला-पुष्प अर्पण किए जा रहे हों, वह पारलौकिक जगत में यमदूतों के हाथों पीटे जा रहे हों ।

इस सत्यता को समझने के पश्चात् उच्च स्तर की चेतना वाला तत्वज्ञानी इस झूठ से भरे हुए संसार से दूर भागने लगता है क्यूंकि वह जान चुका होता है कि यह समस्त संसार अपनी-अपनी लोकेष्णा की प्यास को शांत करने में लगा हुआ है । तत्वज्ञानी 'लोकेष्णा' की इस अंधी दौड़ से इसलिए भी दूर भाग जाना चाहता है क्यूंकि जिस प्रकार धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता (क्षीणे वित्ते कः परिवारः) उसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता (ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः) ।
ऐसे ही तत्वज्ञानियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।
अर्थात्
जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।। (श्रीमद्भगवद्गीता–४.१९)


इसके विपरीत तत्वज्ञान के आभाव में जो मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, जिनकी चेतना शक्ति अत्यन्त निम्न स्तर की है और जो अपनी देह के होने का अहंकार नहीं त्याग सकते, वह इस लोकेष्णा के दलदल में कंठ तक धसे होते हुए भी स्वयं को एक ऐसे आवरण से ढके रहते हैं जो केवल उनके मिथ्या अहंकार की सूक्ष्म परतों से बना हुआ होता है । ऐसे उन देहाभिमानियों से मुझे केवल इतना ही कहना है कि इस अंधी लोकेष्णा के दलदल से यदि तुम अब भी बाहर न निकले तो संभवतः भगवान् के पास भी तुम्हारी मुक्ति का कोई विधान नहीं है ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava