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बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

लग्न और लग्नेश

किसी भी जातक की जन्म-कुण्डली में 'लग्न' से हम उसका स्वास्थ्य, उसकी आयु , उसके शरीर की बनावट तथा उसको जीवन में मिलने वाला मान-सम्मान आदि देखते हैं । जीवन की यात्रा ही लग्न से आरंभ होती है, जो कि १२वें भाव (व्यय स्थान) पर जाकर समाप्त हो जाती है । लग्न के स्वामी ग्रह को 'लग्नेश' कहते हैं, जो कि किसी भी जातक की जन्मकुंडली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

लग्नेश जन्मकुंडली के १२भावों में जहां भी स्थित हो जाता है, हमें उसी भाव से सम्बन्धित पदार्थों में आसक्ति उत्पन्न करवा देता है क्योंकि लग्नेश और कोई नहीं हम स्वयं होते हैं । ऐसे में जहां-जहां हमारा लग्नेश जाता है हम भी उन्हीं-उन्हीं स्थानों पर अपनी आसक्ति करने में विवश होते हैं ।

लग्न-लग्नेश पर शुभ प्रभाव हो, लग्नेश केंद्र-त्रिकोण में बैठा हो तथा नीच का न हुआ हो, तो ऐसा जातक अच्छी आयु, स्वास्थ्य और मान-सम्मान का सुख प्राप्त करता है किन्तु इसके विपरीत लग्न-लग्नेश पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो, लग्नेश ६, ८, १२ वें भाव में हो, अपनी नीच राशि में स्थित हो या अस्त हो जाए तो ऐसे में उस जातक को संसार में अनेक प्रकार के कष्ट और अपयश भोगने पड़ते हैं ।

लग्न तथा लग्नेश के विषय में एक महत्वपूर्ण बात और भी है, वह ये कि अधिकांश ज्योतिषाचार्य गोचर के जो नियम 'चंद्र कुंडली' पर लगाते हैं, यदि वही नियम वह 'लग्न कुंडली तथा लग्नेश' पर भी लगाएं तो उन्हें कहीं अधिक सटीक फलादेश प्राप्त होंगे ।

यह तो हुई थोड़ी सी जानकारी लग्न तथा लग्नेश के विषय में, अब हम बात करते हैं लग्नेश के लग्न में ही स्थित होने अथवा लग्न को देखने के फलों की ।

किसी जातक की जन्मकुंडली में लग्नेश द्वारा लग्न में ही बैठे होने अथवा लग्नेश द्वारा लग्न को देखने के जहां उस जातक को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं, वहीं एक बहुत बड़ी हानि भी प्राप्त होती है ।

कभी-कभी ऐसा जातक अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाले मान-सम्मान तथा सरलता से उपलब्ध होने वाली सफलताओं से इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि उसको धर्म-अधर्म का कुछ बोध ही नहीं रहता ।

जीवन पर्यन्त वह सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए आतुर रहता है और जहां उसे अपनी प्रशंसा करते लोग नहीं मिलते, वहां से भागकर वह अपने लिए ऐसे नए चेले-चपाटे खोजने लगता है, जो नित्य-प्रतिदिन उसके यश का गुणगान करें । कहने का तात्पर्य यह है कि उसको उसकी चापलूसी करने वाले मनुष्यों की लत लग जाती है ।

यदि यह लग्नेश बृहस्पति हो तो समस्या और भी बड़ी हो जाती है, क्योंकि जातक की जन्म कुंडली में शुभ स्थिति में बैठा बृहस्पति ही उसको ज्ञानी तथा धनवान बनाने का कार्य करता है, ऐसे में वह बृहस्पति यदि लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए अथवा लग्नेश होकर लग्न को देख ले, तो वह उस जातक को ज्ञान के अहंकार में इतना चूर कर देता है कि  अपने अहंकार के समक्ष वह किसी को भी कुछ नहीं समझता । ऐसे में शनि और राहु की दशा-अंतर्दशाएं ही उस जातक के अहंकार को नष्ट करने का कार्य करती हैं ।

यदि वह अहंकार राहु के द्वारा नष्ट किया गया है तो उसका परिणाम बहुत ही विनाशकारी होता है किन्तु यदि वह अहंकार शनि के द्वारा नष्ट किया गया है तो आरंभ का समय तो उस जातक के लिए बहुत कष्टकारी होता है परन्तु घोर दुखों के फेर में डालकर अंत में शनि, उस जातक की मलिन आत्मा को शुद्ध करने का ही कार्य करता है ।

इसी प्रकार यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए तथा वह डिग्रीकली भी युवावस्था का हो, तो ऐसे जातक को समस्त संसार में अपार मान-सम्मान, आयु, यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है ।

ऐसा जातक बलपूर्वक अपने शत्रुओं को कुचलकर रख देता है । साधारण अभिचार कर्मों के द्वारा भी वह पराजित नहीं होता । वह बड़े कद-काठी का होता है और समाज में उसको बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।

यदि कोई तांत्रिक भी उस पर अभिचारिक प्रयोग करने का प्रयास करता है तो वह तांत्रिक भी अपने मंत्र प्रयोगों में कोई त्रुटि हो जाने से स्वयं ही मरण को प्राप्त हो जाता है ।

जब तक इसी लग्न में जन्म लेने वाला और ऐसे ही ग्रह स्थिति लेकर बैठा हुआ कोई तंत्र साधक अपनी मंत्र शक्ति से कृत्या आदि उत्पन्न नहीं करता, तब तक ऐसे जातक को मार पाना उसके लिए भी संभव नहीं होता ।

किन्तु ऐसे जातक के जीवन साथी को जीवन पर्यन्त बहुत दुःख उठाना पड़ता है तथा वह घुट-घुट कर अपना जीवन यापन करने को विवश होता है । (शक्तिशाली सूर्य की सप्तम् शत्रु दृष्टि के कारण) ।

यहां मैं एक बात सभी को बता दूं कि लग्नेश का लग्न में बैठना और अथवा लग्न को देखना एक बहुत ही उत्तम योग माना जाता है । यहां तक कि मैंने भी अपने जीवन काल में जिन बच्चों की डिलीवरी के मुहूर्त निकाले हैं, उनका भी लग्नेश, उनके लग्न में ही रखने का प्रयास किया है तथा लग्न-लग्नेश की डिग्री (अंश) भी युवावस्था की रखने की हरसंभव चेष्ठा की है ।

ऐसे में भगवान् शंकर और माता भवानी के द्वारा, मेरे माध्यम से निकलवाए गए 'चाइल्ड डिलीवरी मुहूर्त' में जन्में सभी बच्चे जीवन पर्यन्त स्वास्थ्य, आयु, मान-सम्मान तो प्राप्त करेंगे ही, इसके अतिरिक्त वह ऋण, रोग व शत्रुनाशक भी सिद्ध होंगे क्योंकि छठे भाव का अष्टम् स्थान (हानि स्थान), 'लग्न' होता है ।

इन सभी बच्चों के माता-पिताओं को यह ध्यान रखना होगा कि कहीं उनके बच्चे अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाली सफलताओं से इतने आत्ममुग्ध न हो जाएं कि वह धर्म और अधर्म का भेद ही भूल जाएं । इसके लिए उन माता-पिताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह आरंभ से ही अपने इन बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने की सीख दें तथा उन्हें ईश्वर भक्ति के मार्ग में लगाएं ।

लग्नेश के लग्न में बैठे होने अथवा लग्न को देखने के कारण जीवन में सरलता से जो कुछ भी उपलब्धियां हमें प्राप्त होती हैं, हमें उन्हें भगवान् का आशीर्वाद मानकर विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए तथा सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि देहाभिमानियों का साथ तो उनके इष्टदेव भी छोड़ देते हैं ।
"शिवार्पणमस्तु"

नोट—ज्योतिष शास्त्र एक ब्रह्मविधा है जो बिना दैवीय सहायता से किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकती । मैंने अपने इस छोटे से लेख में ज्योतिष के अनेक गुप्त सूत्र प्रकट किए हैं, ऐसे में जिस पर भगवान् की कृपा होगी, केवल वही उन सूत्रों को ग्रहण कर सकेगा ।
—Astrologer Manu Bhargava

शनिवार, 22 जून 2024

लोकेष्णा


 
अज्ञान के अंधकार से व्याप्त मनुष्य की बुद्धि और मन सदा तीन प्रकार की तृष्णाओं से घिरा रहता है ।

१- वित्तेष्णा, २- पुत्रेष्णा और ३- लोकेष्णा

वित्तेष्णा अर्थात् धन प्राप्ति की इच्छा, पुत्रेष्णा
अर्थात् पुत्र (संतान) प्राप्ति की इच्छा अथवा उसमें आसक्ति और लोकेष्णा अर्थात् "संसार भर में मान-सम्मान, यश, प्रसिद्धि प्राप्त करने की तृष्णा ।"
मेरे इस ब्लॉग का विषय है 'लोकेष्णा'। अतः यहां केवल इसी विषय पर बात करेंगे ।

वर्तमान में लोकेष्णा की तृष्णा में मनुष्य इस प्रकार से घिरे हुए हैं कि उन्हें इस बात का बोध भी नहीं है कि इसके अंधे कुएं में गिरकर वह स्वयं की आत्मा से कितने दूर निकल चुके हैं । स्वयं को परम् सात्विक समझने वाला मनुष्य, जिसमें वित्तेष्णा और पुत्रेष्णा यदि न भी हो तो वह भी लोकेष्णा के प्रभाव से बच नहीं पाता और लोकेष्णा
भी कैसी कि मनुष्य अपने ही जैसे नाशवान हाड़ मांस के शरीरों से सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखने लगता है तथा वह ऐसे संसार से यश प्राप्ति की इच्छा करता है जो दृष्टिगोचर तो होता है किन्तु वास्तव में है ही नहीं ("ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:" के सिद्धांत के आधार पर) ।

लोकेष्णा की इस अग्नि में जलकर कितने ही राजा-महाराजा, साधु-संत और राजनेता आदि स्वयं तो सर्वनाश को प्राप्त हो ही चुके हैं, उनकी इस लोकेष्णा की तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही ऐसे मनुष्यों को भी अपना बलिदान देना पड़ा है, जिनकी कोई भूल भी नहीं थी ।

आज भारत में एक 'महामानव' विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तथा भारत में अपने परम शत्रुओं से सम्मान प्राप्ति की लालसा में अपने ही धर्म के करोड़ों मनुष्यों का जीवन दाँव पर लगाए हुए है । १९४७ में भी यही हुआ था जब एक 'महामानव' ने अपनी लोकेष्णा
की अंधी वासना को शांत करने के लिए अपने ही धर्म के लाखों लोग कटवा दिए थे । प्राचीन काल में भी अनेकों बार दूसरों की लोकेष्णा की अंधी अग्नि को शांत करते-करते न जाने कितने ही प्राणियों को अपना बलिदान देना पड़ा है ।

लोकेष्णा की इस अंधी अग्नि से सामान्य जन भी अछूता नहीं है । माता-पिता भी अपने बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने का ज्ञान न देकर उन्हें लोकेष्णा की इस अग्नि में झोंक देते हैं । वह उन्हें यह ज्ञान नहीं देते कि तुम्हें अपना जीवन इस देह के होने के अभिमान से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति में लगाना है और इतना लगाना है कि किसी से यह सुनने की इच्छा भी शेष न रहे कि देखो ! "वह बालक ईश्वर की कितनी भक्ति करता है " क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो उस बालक की भक्ति में भी लोकेष्णा ही लोकेष्णा व्याप्त होगी, ईश्वर प्राप्ति की इच्छा नहीं ।

सभी दिशाओं से अपने लिए वाहवाही और प्रशंसा लूटने की इच्छाओं ने मानवीय चेतना को इतना निम्न स्तर का बना दिया है कि सात्विक से सात्विक आचरण करने वाला मनुष्य भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाता और यहीं उसकी आत्मा का पतन हो जाता है ।

माला पहनते हुए मेरा चित्र समाचार पत्र में आ जाए, किसी सांसद-विधायक के साथ मेरी फोटो खिंच जाए, मेरी संतान को विद्यालय में प्रथम पुरस्कार मिल जाए, मेरे द्वारा बनाई गई वस्तु अथवा लिखी हुई पुस्तक को चारों ओर से प्रशंसा प्राप्त हो जाए, दूर देशों तक मेरा अथवा मेरी संतान का नाम व्याप्त हो जाए, मैं जिस भी समारोह में जाऊं वहां मेरी जय-जयकार हो, फेसबुक-इंस्टाग्राम-यूट्यूब पर मेरे अभिनय, कला और नृत्य आदि की पोस्ट पर मुझे ढेरों लाइक्स और अच्छे कमेंट्स प्राप्त हों, मैं यदि शिक्षक-शिक्षिका हूँ तो विद्यालय में सभी विद्यार्थी मेरे ज्ञान की प्रशंसा करें, मैं यदि ऑफिस में कार्य करता हूँ तो कार्यस्थल पर सभी मेरी प्रशंसा करें, मेरे रिश्तेदार-पड़ोसी मेरी तथा मेरे बच्चों की प्रशंसा करें, मैं जिस बस-ट्रेन-प्लेन आदि में भी यात्रा करूं वहां भी लोग मुझे बार बार मुड़कर देखें आदि लोकेष्णा के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिससे साधारण मनुष्य तो छोड़ दीजिए दूर से ज्ञानी और महान प्रतीत होने वाला मनुष्य भी सदा घिरा रहता है । ऐसे मनुष्यों का यदि बस चले तो वह मार्ग में चलती हुई चींटी को भी रोककर अपनी प्रशंसा के गीत सुनने के बाद ही उसे वहां से प्रस्थान करने दें ।

लोकेष्णा से भरे हुए मनुष्यों की आत्ममुग्धता की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि वह न तो यह देख पाते हैं और न ही समझ पाते हैं कि उनके आसपास के लोग अपना कार्य निकालने के लिए सामने से उनकी कितनी ही प्रशंसा करे लें किन्तु भीतर से उनको मूर्ख ही समझते हैं और पीठ पीछे उनकी निंदा करते हैं और जो विद्वान हैं, लोकेष्णा की स्थिति को समझते हैं, वह उनकी तुच्छ बुद्धि पर तरस खाते हैं ।

अतः देखा जाए तो लोकेष्णा की तृप्ति से घिरा मनुष्य अपने परलोक को तो कब का नष्ट कर ही चुका होता है अपने इस लोक को भी नष्ट कर रहा होता है क्यूंकि लोक में भी नाम और प्रसिद्धि अपने साथ विपत्ति ही लेकर आती है । ऐसे व्यक्ति के जितने मित्र नहीं होते उससे कहीं अधिक शत्रु होते हैं क्यूंकि उसके नाम और प्रसिद्धि के कारण उससे जलने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है । वह स्वयं को जिस समारोह की आभा समझ रहा होता है उसी समारोह में यदि ४ व्यक्ति उसके प्रशंसक होते हैं तो उससे कहीं अधिक उसके निंदक होते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भौतिक जगत में आगे बढ़ना, अपना कैरियर बनाना, अपनी सफलता के लिए कार्य करना आदि क्या यह सब व्यर्थ का कार्य है ?
इसका उत्तर है— नहीं ! भौतिक ऊंचाइयों को प्राप्त करना कोई अपराध नहीं है किन्तु अपने ही जैसे नाशवान मनुष्यों से सम्मान प्राप्त करने की लालसा रखना, अपनी वाहवाही लूटने के लिए नित्य नए-नए नाटक करना तथा अपनी आत्ममुग्धता के अंधे कुएं में अपनी आत्मा की वास्तविक स्थिति को खो देना महान मूर्खता है ।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं तो कभी अपने मुख से किसी की प्रशंसा नहीं करते, इसके विपरीत सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं । वास्तव में इनकी चेतना का स्तर तो पशुओं से भी अधिक गिरा हुआ होता है क्यूंकि पशु भी अपने को प्रेम करने वाले के प्रति अपना पूरा समर्पण व्यक्त करते हैं । उच्च कोटि की चेतना रखने वाले साधकजन ऐसे लोगों का उपहास नहीं उड़ाते इसके विपरीत वह केवल इनकी तुच्छ बुद्धि और अज्ञान पर तरस ही खाते हैं क्यूंकि ब्रह्मज्ञानी को कभी लोकेष्णा को शांत करने की भूख नहीं होती । न तो वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त करने की कोई लालसा ही करता है और न ही वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त होने पर प्रभावित होता है, इसके विपरीत वह तो सदा ईश्वर की भक्ति में स्वयं को आत्मस्वरूप मानकर अपना जीवन यापन करता है, सांसारिक मान-सम्मान की आकांक्षाओं से वह मोहित नहीं होता क्यूंकि वह जानता है कि "इस नाशवान संसार में अविनाशी तत्व यदि कोई है तो वह केवल और केवल 'चैतन्य परमात्मा' ही है और मनुष्य का नाम, पद, प्रसिद्धि आदि इस देह के छूटने के उपरान्त सब यहीं रह जाता है और उसके साथ जो जाता है वह होते हैं उसके शुभाशुभ कर्म ।

वह लोक-परलोक के इस रहस्य को भी जानता है कि जो मनुष्य इस भौतिक जगत में अपने भौतिक ज्ञान के कारण, अपने लेखन के कारण, अपने अभिनय और कला के कारण, अपने उच्च पद के कारण, बड़े राजनेता या राष्ट्रध्यक्ष होने के कारण, अपनी मृत्यु के उपरान्त भी आज तक सम्मान प्राप्त कर रहा है, हो सकता है कि वह अपने जीवनकाल में पापों की अधिकता होने से पारलौकिक जगत में अनंत काल के लिए घोर नर्कों में यातनाएं प्राप्त कर रहा हो ।

इसके विपरीत जो मनुष्य इस भौतिक जगत में कभी कोई पद-प्रसिद्धि प्राप्त न कर पाया हो , जिसका कहीं कोई नाम तक लेने वाला न हो, हो सकता है कि अपनी मृत्यु के उपरान्त अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वह अनन्त काल तक के लिए मृत्युलोक से दूर स्वर्ग में आनंद प्राप्त कर रहा हो ।

तत्वज्ञानी यह जानते हैं कि इस भौतिक जगत में प्राप्त इस नाम, प्रसिद्धि, प्रशंसा का पारलौकिक जगत में कोई महत्व नहीं है । हो सकता है कि भौतिक जगत में जिनकी प्रसिद्धि के कारण उनके पुतले बनाकर उन पर प्रतिदिन माला-पुष्प अर्पण किए जा रहे हों, वह पारलौकिक जगत में यमदूतों के हाथों पीटे जा रहे हों ।

इस सत्यता को समझने के पश्चात् उच्च स्तर की चेतना वाला तत्वज्ञानी इस झूठ से भरे हुए संसार से दूर भागने लगता है क्यूंकि वह जान चुका होता है कि यह समस्त संसार अपनी-अपनी लोकेष्णा की प्यास को शांत करने में लगा हुआ है । तत्वज्ञानी 'लोकेष्णा' की इस अंधी दौड़ से इसलिए भी दूर भाग जाना चाहता है क्यूंकि जिस प्रकार धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता (क्षीणे वित्ते कः परिवारः) उसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता (ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः) ।
ऐसे ही तत्वज्ञानियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।
अर्थात्
जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।। (श्रीमद्भगवद्गीता–४.१९)


इसके विपरीत तत्वज्ञान के आभाव में जो मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, जिनकी चेतना शक्ति अत्यन्त निम्न स्तर की है और जो अपनी देह के होने का अहंकार नहीं त्याग सकते, वह इस लोकेष्णा के दलदल में कंठ तक धसे होते हुए भी स्वयं को एक ऐसे आवरण से ढके रहते हैं जो केवल उनके मिथ्या अहंकार की सूक्ष्म परतों से बना हुआ होता है । ऐसे उन देहाभिमानियों से मुझे केवल इतना ही कहना है कि इस अंधी लोकेष्णा के दलदल से यदि तुम अब भी बाहर न निकले तो संभवतः भगवान् के पास भी तुम्हारी मुक्ति का कोई विधान नहीं है ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava