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शनिवार, 22 जून 2024

लोकेष्णा


 
अज्ञान के अंधकार से व्याप्त मनुष्य की बुद्धि और मन सदा तीन प्रकार की तृष्णाओं से घिरा रहता है ।

१- वित्तेष्णा, २- पुत्रेष्णा और ३- लोकेष्णा

वित्तेष्णा अर्थात् धन प्राप्ति की इच्छा, पुत्रेष्णा
अर्थात् पुत्र (संतान) प्राप्ति की इच्छा अथवा उसमें आसक्ति और लोकेष्णा अर्थात् "संसार भर में मान-सम्मान, यश, प्रसिद्धि प्राप्त करने की तृष्णा ।"
मेरे इस ब्लॉग का विषय है 'लोकेष्णा'। अतः यहां केवल इसी विषय पर बात करेंगे ।

वर्तमान में लोकेष्णा की तृष्णा में मनुष्य इस प्रकार से घिरे हुए हैं कि उन्हें इस बात का बोध भी नहीं है कि इसके अंधे कुएं में गिरकर वह स्वयं की आत्मा से कितने दूर निकल चुके हैं । स्वयं को परम् सात्विक समझने वाला मनुष्य, जिसमें वित्तेष्णा और पुत्रेष्णा यदि न भी हो तो वह भी लोकेष्णा के प्रभाव से बच नहीं पाता और लोकेष्णा
भी कैसी कि मनुष्य अपने ही जैसे नाशवान हाड़ मांस के शरीरों से सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखने लगता है तथा वह ऐसे संसार से यश प्राप्ति की इच्छा करता है जो दृष्टिगोचर तो होता है किन्तु वास्तव में है ही नहीं ("ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:" के सिद्धांत के आधार पर) ।

लोकेष्णा की इस अग्नि में जलकर कितने ही राजा-महाराजा, साधु-संत और राजनेता आदि स्वयं तो सर्वनाश को प्राप्त हो ही चुके हैं, उनकी इस लोकेष्णा की तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही ऐसे मनुष्यों को भी अपना बलिदान देना पड़ा है, जिनकी कोई भूल भी नहीं थी ।

आज भारत में एक 'महामानव' विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तथा भारत में अपने परम शत्रुओं से सम्मान प्राप्ति की लालसा में अपने ही धर्म के करोड़ों मनुष्यों का जीवन दाँव पर लगाए हुए है । १९४७ में भी यही हुआ था जब एक 'महामानव' ने अपनी लोकेष्णा
की अंधी वासना को शांत करने के लिए अपने ही धर्म के लाखों लोग कटवा दिए थे । प्राचीन काल में भी अनेकों बार दूसरों की लोकेष्णा की अंधी अग्नि को शांत करते-करते न जाने कितने ही प्राणियों को अपना बलिदान देना पड़ा है ।

लोकेष्णा की इस अंधी अग्नि से सामान्य जन भी अछूता नहीं है । माता-पिता भी अपने बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने का ज्ञान न देकर उन्हें लोकेष्णा की इस अग्नि में झोंक देते हैं । वह उन्हें यह ज्ञान नहीं देते कि तुम्हें अपना जीवन इस देह के होने के अभिमान से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति में लगाना है और इतना लगाना है कि किसी से यह सुनने की इच्छा भी शेष न रहे कि देखो ! "वह बालक ईश्वर की कितनी भक्ति करता है " क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो उस बालक की भक्ति में भी लोकेष्णा ही लोकेष्णा व्याप्त होगी, ईश्वर प्राप्ति की इच्छा नहीं ।

सभी दिशाओं से अपने लिए वाहवाही और प्रशंसा लूटने की इच्छाओं ने मानवीय चेतना को इतना निम्न स्तर का बना दिया है कि सात्विक से सात्विक आचरण करने वाला मनुष्य भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाता और यहीं उसकी आत्मा का पतन हो जाता है ।

माला पहनते हुए मेरा चित्र समाचार पत्र में आ जाए, किसी सांसद-विधायक के साथ मेरी फोटो खिंच जाए, मेरी संतान को विद्यालय में प्रथम पुरस्कार मिल जाए, मेरे द्वारा बनाई गई वस्तु अथवा लिखी हुई पुस्तक को चारों ओर से प्रशंसा प्राप्त हो जाए, दूर देशों तक मेरा अथवा मेरी संतान का नाम व्याप्त हो जाए, मैं जिस भी समारोह में जाऊं वहां मेरी जय-जयकार हो, फेसबुक-इंस्टाग्राम-यूट्यूब पर मेरे अभिनय, कला और नृत्य आदि की पोस्ट पर मुझे ढेरों लाइक्स और अच्छे कमेंट्स प्राप्त हों, मैं यदि शिक्षक-शिक्षिका हूँ तो विद्यालय में सभी विद्यार्थी मेरे ज्ञान की प्रशंसा करें, मैं यदि ऑफिस में कार्य करता हूँ तो कार्यस्थल पर सभी मेरी प्रशंसा करें, मेरे रिश्तेदार-पड़ोसी मेरी तथा मेरे बच्चों की प्रशंसा करें, मैं जिस बस-ट्रेन-प्लेन आदि में भी यात्रा करूं वहां भी लोग मुझे बार बार मुड़कर देखें आदि लोकेष्णा के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिससे साधारण मनुष्य तो छोड़ दीजिए दूर से ज्ञानी और महान प्रतीत होने वाला मनुष्य भी सदा घिरा रहता है । ऐसे मनुष्यों का यदि बस चले तो वह मार्ग में चलती हुई चींटी को भी रोककर अपनी प्रशंसा के गीत सुनने के बाद ही उसे वहां से प्रस्थान करने दें ।

लोकेष्णा से भरे हुए मनुष्यों की आत्ममुग्धता की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि वह न तो यह देख पाते हैं और न ही समझ पाते हैं कि उनके आसपास के लोग अपना कार्य निकालने के लिए सामने से उनकी कितनी ही प्रशंसा करे लें किन्तु भीतर से उनको मूर्ख ही समझते हैं और पीठ पीछे उनकी निंदा करते हैं और जो विद्वान हैं, लोकेष्णा की स्थिति को समझते हैं, वह उनकी तुच्छ बुद्धि पर तरस खाते हैं ।

अतः देखा जाए तो लोकेष्णा की तृप्ति से घिरा मनुष्य अपने परलोक को तो कब का नष्ट कर ही चुका होता है अपने इस लोक को भी नष्ट कर रहा होता है क्यूंकि लोक में भी नाम और प्रसिद्धि अपने साथ विपत्ति ही लेकर आती है । ऐसे व्यक्ति के जितने मित्र नहीं होते उससे कहीं अधिक शत्रु होते हैं क्यूंकि उसके नाम और प्रसिद्धि के कारण उससे जलने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है । वह स्वयं को जिस समारोह की आभा समझ रहा होता है उसी समारोह में यदि ४ व्यक्ति उसके प्रशंसक होते हैं तो उससे कहीं अधिक उसके निंदक होते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भौतिक जगत में आगे बढ़ना, अपना कैरियर बनाना, अपनी सफलता के लिए कार्य करना आदि क्या यह सब व्यर्थ का कार्य है ?
इसका उत्तर है— नहीं ! भौतिक ऊंचाइयों को प्राप्त करना कोई अपराध नहीं है किन्तु अपने ही जैसे नाशवान मनुष्यों से सम्मान प्राप्त करने की लालसा रखना, अपनी वाहवाही लूटने के लिए नित्य नए-नए नाटक करना तथा अपनी आत्ममुग्धता के अंधे कुएं में अपनी आत्मा की वास्तविक स्थिति को खो देना महान मूर्खता है ।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं तो कभी अपने मुख से किसी की प्रशंसा नहीं करते, इसके विपरीत सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं । वास्तव में इनकी चेतना का स्तर तो पशुओं से भी अधिक गिरा हुआ होता है क्यूंकि पशु भी अपने को प्रेम करने वाले के प्रति अपना पूरा समर्पण व्यक्त करते हैं । उच्च कोटि की चेतना रखने वाले साधकजन ऐसे लोगों का उपहास नहीं उड़ाते इसके विपरीत वह केवल इनकी तुच्छ बुद्धि और अज्ञान पर तरस ही खाते हैं क्यूंकि ब्रह्मज्ञानी को कभी लोकेष्णा को शांत करने की भूख नहीं होती । न तो वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त करने की कोई लालसा ही करता है और न ही वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त होने पर प्रभावित होता है, इसके विपरीत वह तो सदा ईश्वर की भक्ति में स्वयं को आत्मस्वरूप मानकर अपना जीवन यापन करता है, सांसारिक मान-सम्मान की आकांक्षाओं से वह मोहित नहीं होता क्यूंकि वह जानता है कि "इस नाशवान संसार में अविनाशी तत्व यदि कोई है तो वह केवल और केवल 'चैतन्य परमात्मा' ही है और मनुष्य का नाम, पद, प्रसिद्धि आदि इस देह के छूटने के उपरान्त सब यहीं रह जाता है और उसके साथ जो जाता है वह होते हैं उसके शुभाशुभ कर्म ।

वह लोक-परलोक के इस रहस्य को भी जानता है कि जो मनुष्य इस भौतिक जगत में अपने भौतिक ज्ञान के कारण, अपने लेखन के कारण, अपने अभिनय और कला के कारण, अपने उच्च पद के कारण, बड़े राजनेता या राष्ट्रध्यक्ष होने के कारण, अपनी मृत्यु के उपरान्त भी आज तक सम्मान प्राप्त कर रहा है, हो सकता है कि वह अपने जीवनकाल में पापों की अधिकता होने से पारलौकिक जगत में अनंत काल के लिए घोर नर्कों में यातनाएं प्राप्त कर रहा हो ।

इसके विपरीत जो मनुष्य इस भौतिक जगत में कभी कोई पद-प्रसिद्धि प्राप्त न कर पाया हो , जिसका कहीं कोई नाम तक लेने वाला न हो, हो सकता है कि अपनी मृत्यु के उपरान्त अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वह अनन्त काल तक के लिए मृत्युलोक से दूर स्वर्ग में आनंद प्राप्त कर रहा हो ।

तत्वज्ञानी यह जानते हैं कि इस भौतिक जगत में प्राप्त इस नाम, प्रसिद्धि, प्रशंसा का पारलौकिक जगत में कोई महत्व नहीं है । हो सकता है कि भौतिक जगत में जिनकी प्रसिद्धि के कारण उनके पुतले बनाकर उन पर प्रतिदिन माला-पुष्प अर्पण किए जा रहे हों, वह पारलौकिक जगत में यमदूतों के हाथों पीटे जा रहे हों ।

इस सत्यता को समझने के पश्चात् उच्च स्तर की चेतना वाला तत्वज्ञानी इस झूठ से भरे हुए संसार से दूर भागने लगता है क्यूंकि वह जान चुका होता है कि यह समस्त संसार अपनी-अपनी लोकेष्णा की प्यास को शांत करने में लगा हुआ है । तत्वज्ञानी 'लोकेष्णा' की इस अंधी दौड़ से इसलिए भी दूर भाग जाना चाहता है क्यूंकि जिस प्रकार धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता (क्षीणे वित्ते कः परिवारः) उसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता (ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः) ।
ऐसे ही तत्वज्ञानियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।
अर्थात्
जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।। (श्रीमद्भगवद्गीता–४.१९)


इसके विपरीत तत्वज्ञान के आभाव में जो मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, जिनकी चेतना शक्ति अत्यन्त निम्न स्तर की है और जो अपनी देह के होने का अहंकार नहीं त्याग सकते, वह इस लोकेष्णा के दलदल में कंठ तक धसे होते हुए भी स्वयं को एक ऐसे आवरण से ढके रहते हैं जो केवल उनके मिथ्या अहंकार की सूक्ष्म परतों से बना हुआ होता है । ऐसे उन देहाभिमानियों से मुझे केवल इतना ही कहना है कि इस अंधी लोकेष्णा के दलदल से यदि तुम अब भी बाहर न निकले तो संभवतः भगवान् के पास भी तुम्हारी मुक्ति का कोई विधान नहीं है ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

ग्रहों का राशि परिवर्तन और चन्द्र ग्रहण २०२३



 ब्रह्माण्ड में शीघ्र ही कुछ बड़े परिवर्तन होने जा रहे हैं—

३० अक्टूबर को राहु-केतु के राशि परिवर्तन के साथ ही देव गुरु बृहस्पति पर अब तक बना हुआ चांडाल योग भंग हो जाएगा ।

अति विध्वंसकारी मंगल-केतु योग जिसकी जानकारी मैंने आपको अपने पिछले ब्लॉग के माध्यम से उपलब्ध करवाई थी, यह विध्वंसकारी योग भी केतु के राशि परिवर्तन करने के साथ ही समाप्त हो जाएगा ।

४ नवंबर को शनि भी वक्री अवस्था छोड़ कर मार्गी अवस्था प्राप्त कर लेंगे और १७ नवम्बर को सूर्य भी अपनी नीच राशि से निकलकर अपने सेनापति मंगल की राशि में संचार करने लगेंगे जिससे विश्व और अधिकांश जनमानस को उनके कष्टों से मुक्ति प्राप्त होगी ।

यद्यपि ३ नवम्बर को शुक्र अपनी नीच राशि में संचार करने लगेंगे जिसके कारण विश्व भर में स्त्रियों को कुछ कष्ट अवश्य होगा किन्तु शुक्र के इस राशि परिवर्तन की अवधि अत्यन्त अल्पकाल की होने के कारण वह उतनी हानि नहीं कर सकेंगे ।

२८–२९ अक्तूबर, शरद पूर्णिमा की रात्रि में खण्डग्रास चन्द्र ग्रहण होगा जो कि सम्पूर्ण भारत में दृश्य होगा अतः सभी स्थानों पर सूतक भी मान्य होंगे । भारत में इसका स्पर्श– रात्रि १ बजकर ५ मिनट पर, मध्य– १ बजकर ४४ मिनट पर तथा समाप्त–२ बजकर २२ मिनट पर होगा । इस प्रकार से इसका पर्व काल १ घंटा १७ मिनट का होगा । चन्द्र ग्रहण में ९ घंटे पूर्व से सूतक लगते हैं, भारत के जिस नगर में जिस समय चन्द्र ग्रहण दिखाई देगा वहां उसके सूतक भी उसके ९ घंटे पूर्व से ही मान्य होंगे ।

यह ग्रहण 'मेष राशि के अश्वनी' नक्षत्र में लगेगा जो कि 'केतु' का नक्षत्र होता है । केतु तन्त्र साधक को उसकी साधना में गहराई तक ले जाने वाला ग्रह होता है अतः इस चन्द्र ग्रहण में १ घंटा १७ मिनट का यह पर्वकाल तन्त्र साधकों को विशेष सिद्धि प्राप्त करवाने वाला होगा । चन्द्र ग्रहण के इस विशेष अवसर पर जो साधक जिस साधना में अधिकृत है उसको उसके अधिकार की सीमा में आने वाले मंत्र को अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिए क्योंकि चन्द्र ग्रहण में मंत्र, दान, यज्ञ आदि करने का प्रभाव सामान्य से ९०० गुना अधिक होता है जिससे कोई भी मंत्र ग्रहण के समय अल्पकाल में ही सिद्ध हो जाता है, एक बार मंत्र सिद्ध हो जाने पर प्रतिदिन उस मंत्र का जप करते रहने से उस मंत्र की सिद्धि का प्रभाव जीवन पर्यन्त उस साधक के साथ बना रहता है ।

यह चंद्र ग्रहण एशिया, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, नॉर्थ अमेरिका, साउथ अमेरिका के अधिकतर भाग तथा हिन्द महासागर, प्रशान्त महासगर, अटलांटिक, आर्कटिक अंटार्कटिका में दिखाई देगा । ईरान, अफगानिस्तान, तुर्की, चीन, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, अमेरिका के अलास्का,कोडरिंगटन, एंटीगुआ बारबुडा तथा कैलिफोर्निया की जनता को आगामी तीन माह तक भूकंप के प्रति सावधान रहना चाहिए ।

शरद पूर्णिमा पर पड़ने वाला यह चन्द्र ग्रहण अपने गुरूत्वाकर्षण बल (Gravitational Force) के अनियंत्रित हो जाने से समुद्र से घिरे स्थानों में आगामी तीन माह तक सुनामी, चक्रवात और भूकम्प आदि लाकर बहुत अधिक विनाश करने वाला है । 

चन्द्र ग्रहण के इन अमंगलकारी परिणामों के पश्चात् भी विश्व के लिए सबसे अधिक शान्ति देने वाली बात यह है कि पिछले डेढ़ वर्ष से 'मेष' राशि में संचार कर रहे 'राहु' ने विश्व भर में जितना तांडव मचाया है ३० अक्टूबर के पश्चात् उसमें अब भारी कमी आयेगी क्योंकि ३० अक्टूबर से राहु द्वारा देव गुरु बृहस्पति की राशि 'मीन' में संचार करने से राहु के भीतर देव गुरु बृहस्पति के तत्व भी जाग्रत होने लगेंगे जिससे राहु की चांडाल प्रवृत्ति में आगामी डेढ़ वर्षों के लिए बहुत अधिक विनम्रता आयेगी (राहु-केतु जिस ग्रह के साथ बैठते हैं तथा जिस ग्रह की राशि में बैठते हैं, उसकी छाया ग्रहण करके उसके जैसे फल भी देने लगते हैं) ।

राहु द्वारा गुरु की शुभता प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी मैं जिस बात को यहां लिखने जा रहा हूँ हो सकता है वह कुछ व्यक्तियों को अटपटी लगे क्योंकि विश्व में आज से पूर्व किसी भी ज्योतिष के विद्वान ने प्रकट रूप से यह बात नहीं कही होगी परन्तु सत्य जैसा भी हो वह तो मुझे लिखना ही होगा ।

राहु द्वारा जलीय राशि 'मीन' में संचार करने से आगामी डेढ़ वर्ष तक समुद्र तल के नीचे पाताल लोक में निवास करने वाले पातालवासी (असुर,दैत्य,नाग आदि) राहु की शक्ति से नवीन ऊर्जा प्राप्त कर लेंगे । ईश्वरीय नियम में बंधे होने के कारण वह भले ही पृथ्वी लोक पर विचरण करने न आएं किन्तु जल में डूबकर मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्यों को जल-प्रेत बनाने का कार्य वह अवश्य करेंगे और पाताल लोक के इन असुरों द्वारा शक्ति प्राप्त करके मनुष्य से जल-प्रेत बने यह लोग आगामी डेढ़ वर्षों तक दूसरे मनुष्यों को जल में डुबोकर मारने का प्रयास करेंगे जिसके कारण आगामी डेढ़ वर्षों में विश्व भर में जल में डूबकर मरने वालों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि देखी जाएगी तथा समुद्र और नदियों में विचरण करने वाले विषैले सर्प डेढ़ वर्ष के इस अवधिकाल में बहुत से जीवों की मृत्यु का कारण बनेंगे ।
कलौ चंडी 'विनायकौ' के सिद्धांत को समझते हुए भगवती दुर्गा और जल तत्व के देवता भगवान् श्री गणेश की उच्च कोटि की साधना के प्रभाव से मनुष्यों के सभी कष्टों का निवारण होगा ।
"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

प्रेम-वियोग और अध्यात्म


अपने Professional Astrology के कैरियर में अब तक मेरे पास हजारों ऐसी जन्मकुंडलियां आ चुकी हैं जिसमें प्रेम संबंधों में वियोग हो जाने से सच्चा प्रेम करने वाले स्त्री-पुरुष आन्तरिक रूप से इतना टूट जाते हैं कि अपने जीवन जीने की समस्त इच्छा ही समाप्त कर लेते हैं । यदि प्रेम दोनों ही ओर से हो तब तो ठीक है किन्तु यदि एक व्यक्ति प्रेम करता है और दूसरा उसके साथ प्रेम करने का अभिनय कर रहा है तो ऐसे में सच्चा प्रेम करने वाला व्यक्ति अपने साथ हुए इस छल को सह नहीं पाता और स्वयं को चारों ओर से घोर मानसिक दुःख से घेर लेता है । उसे किसी से बात करना, मिलना-जुलना नहीं भाता क्योंकि उसे लगता है कि कोई भी दूसरा उसके विरह के दुःख को समझ नहीं पा रहा है (अपने प्रेमी-प्रेमिका के साथ बिताए गए अच्छे पलों के बार-बार स्मरण होने तथा भविष्य में कभी उन पलों को पुनः न जी सकने का दुःख) ।


प्रेम-वियोग जैसे महान 'सांसारिक दुःख' में डूबकर प्रतिदिन स्वयं तथा अपने परिवारजनों को घोर कष्ट दे रहे ऐसे स्त्री-पुरुषों, जिन पर कोई धर्म गुरु ध्यान नहीं देता, ऐसे उन भाई-बहनों को उनके उस दुःख से बाहर निकालने के लिए मैं यह ब्लॉग लिखने जा रहा हूँ । यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि विरह की अग्नि से बड़े-बड़े ऋषि मुनि और राजा-महाराजा तो क्या स्वयं भगवान् (लीलावश) भी नहीं बच सकें हैं तथापि अपने आराध्य भगवान् शंकर से मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरे इस ब्लॉग को यह आशीर्वाद प्रदान करें कि इस ब्लॉग को पढ़ने वाले मेरे सनातनी भाई-बहन न केवल प्रेम-वियोग की पीड़ा से बाहर निकलें अपितु वह सदा धर्म युक्त आचरण करने वाले धर्म-परायण सनातनी बनें ।

किसी भी जातक की जन्म कुंडली का 'पंचम भाव, 'पंचम भाव का अधिपति' (पंचमेश)' और प्रेम संबंधों का कारक ग्रह 'शुक्र' (भाव,स्वामी,कारक) उसके जीवन में बनने वाले प्रेम संबंधों को प्रदर्शित करते हैं तथा 'पंचम से पंचम' होने से 'नवम भाव' (भावात् भावम्) भी इस विषय में महत्वपूर्ण भाव हो जाता है।

ऐसे में यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, नवम भाव, नवमेश तथा कारक शुक्र शुभ स्थिति में हैं तो उस व्यक्ति के जीवन में कभी प्रेम की कमी नहीं रहती । इसके विपरीत यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में यह सभी अथवा इनमें से कुछ एक-दो पीड़ित हैं, पाप प्रभाव में हैं, अपनी नीच राशि या शत्रु राशि में स्थित हैं तो ऐसा जातक जीवन भर अपना प्रेम प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता रहता है । वह किसी को कितना ही प्रभावित करने का प्रयास कर ले किन्तु कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता ।

इधर यदि किसी जातक की कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, नवम भाव, नवमेश और कारक शुक्र शुभ स्थिति में हों और गोचर में उसकी जन्म कुंडली का पंचमेश ६,८,१२ भाव में चला जाए अथवा गोचर में पंचम भाव पर राहु, केतु, शनि, सूर्य, मंगल जैसे पृथकतावादी ग्रहों का संचार हो जाए तथा गोचर में ही प्रेम संबंधों का कारक शुक्र अपनी नीच अथवा शत्रु राशि में चला जाए या पाप ग्रहों के प्रभाव से पीड़ित अथवा सूर्य से अस्त हो जाए तब भी कुछ समय के लिए उसके प्रेम संबंधों में कड़वाहट आ जाती है जो कि अनेक बार इतनी अधिक हो जाती है कि वह स्वयं को अपने प्रेम संबंध से पृथक कर लेता है भले ही उसको इससे कितनी ही पीड़ा और दुःख उठाना पड़े ।

इस प्रकार यदि ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी जातक के जीवन में प्रेम संबंधों में सदैव मधुरता रह पाना संभव नहीं है । कभी न कभी तो यह पृथकतावादी प्रभाव उसके प्रेम संबंधों पर पड़ेगा ही । यही वह संक्रमण काल होता है जिसमें स्त्री-पुरुष स्वयं ही अपने प्रेम संबंधों को विच्छेद कर किसी दूसरे व्यक्ति से प्रेम प्राप्ति की अभिलाषा लिए आगे बढ़ जाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं अपने प्रेम के वियोग में डूबी हुई अपनी ही जैसी एक दूसरी जीवात्मा को, जिसकी अश्रुधाराओं से बनता है वह 'संचित कर्म' जिससे उत्पन्न 'प्रारब्ध' को भोगने के लिए उन्हें पुनर्जन्म लेना पड़ता है और पुनर्जन्म लेकर उनको भी अपने अगले जन्म में प्रेम-वियोग का वही दुःख सहन करना पड़ता है जो वह अपने इस जन्म में किसी और को दे रहा है क्योंकि संचित कर्म से उत्पन्न हुए प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है, यही ईश्वरीय विधान है ।

'संचित' का अर्थ होता है संचय (एकत्रित) किया हुआ, अतएव हमारे अनेक पूर्व जन्मों से लेकर वर्तमान में किए गए कर्मों के संचय को 'संचित कर्म' कहते हैं । इस प्रकार से संचित कर्म हमारे द्वारा अनेक जन्मों में किए गए पाप-पुण्यों का संग्रह है । इन्हीं संचित कर्मों में से कुछ अंश-मात्र कर्मों के फल को जो हमें इस जन्म में भोगना है उसे हमारा 'प्रारब्ध' कहा जाता है, दूसरे शब्दों में इसे हमारा 'भाग्य' भी कहते हैं अर्थात् यदि सरल शब्दों में कहा जाए तो जो कुछ भी शुभ-अशुभ घटनाएं हमारे जीवन में घटित होती हैं और जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता उसी को हमारा 'प्रारब्ध' कहते हैं ।

अनेक बार दुःख प्राप्त होने पर हम ईश्वर को कोसने लगते हैं और कहते हैं कि भगवान् ! हमने तो अपने इस जन्म में ऐसा कोई पाप नहीं किया जो हमें यह दुःख उठाना पड़ रहा है किन्तु ऐसा कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि हम केवल अपने इस जन्म को देख रहे होते हैं किन्तु इस चराचर जगत को बनाने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर हमारे अनेक जन्मों को भी जानते हैं ।

श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण, परम् धर्मात्मा अर्जुन को पुनर्जन्म के विषय में संकेत देते हुए यह कहते हैं—
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।४.५।।
अर्थात्
हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता ।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।४.९।।
अर्थात्
हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,  इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है ।।

अपने संचित कर्मों को नष्ट करके हमें किस प्रकार से प्रारब्ध शून्य बनना है यह समझाते हुए आगे के श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।४.३७।।
अर्थात्
जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को भस्मसात् कर देती है,  वैसे ही, हे अर्जुन ! ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है।।

अतः मेरा उन सभी सनातनी भाई-बहनों से विनम्र निवेदन है कि वह इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस बात को समझें कि प्रेम वियोग रूपी जो दुःख वह आज भोग रहे हैं संभवतः वह उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए गए किसी पाप कर्म का कोई फल है जो उन्हें यह भयानक मानसिक पीड़ा और दुःख देकर अंततः उनकी आत्मा को शुद्ध करने में सहायता ही कर रहा है तथा आप सभी इस बात को जानकर भी अपने मन की पीड़ा और क्रोध को शान्त कर सकते हैं कि इस जन्म में आपके साथ जो छल करके स्वयं को अत्यधिक चतुर समझ रहा है उसको भी पुनर्जन्म लेकर अपने संचित कर्मों का भुगतान तो करना ही पड़ेगा । यही नहीं, अनेक बार तो प्रारब्ध की स्थिति इतनी विकट होती है कि उसको इसी जन्म में निकट भविष्य में ही अपने द्वारा किए गए इस पाप कर्म का भुगतान करना पड़ जाता है । अतः इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भी आप में से किसी को अपने लिए शोक नहीं करना चाहिए ।

किसी के वियोग में शोक न करने का यह अत्यन्त तुच्छ और सांसारिक कारण है जो कि यहां लिखना इसलिए आवश्यक था क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य की चेतना शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, जिसमें से उच्च स्तर की चेतना शक्ति वाले मनुष्य प्रेम में स्वयं से छल करने वाले दूसरे मनुष्यों को स्वयं के पाप कर्मों के फलों का भुगतान करवाने वाला एक निमित्त मात्र मानकर क्षमा कर देते हैं तो कुछ मध्यम व निम्न स्तर की चेतना शक्ति वाले मनुष्य इस छल को सह नहीं पाते और निरन्तर उसके विनाश की कामना करते रहते हैं, इनमें से सभी अपने-अपने स्थानों पर सही हैं क्योंकि जिसके साथ छल किया जाता है उसकी पीड़ा बस वही समझ सकता है, हम यहां बैठकर उसका आंकलन भी नहीं कर सकते हैं ।

अब बात करते हैं कि प्रेम वियोग रूपी इस दुःख को मिटाने में अध्यात्म की क्या भूमिका है ?
तो जीव के अज्ञान का कारण उसकी देहात्मबुद्धि है । यह देह भौतिक है और मैं आत्म स्वरूप हूं जिसने यह देह धारण की हुई है, इसी समझ का नाम ही आत्म-ज्ञान है । दुर्भाग्यवश सांसारिक मोहवश जो जीव अज्ञान में रहता है, वह देह को ही आत्मा मान लेता है । उसे जीवन भर यह ज्ञात ही नहीं हो पाता कि देह पदार्थ-स्वरूप है । ये देहें बालू के छोटे-छोटे कणों के समान एक दूसरे के निकट आती और पुन: कालवेग से पृथक् हो जाती हैं जीव व्यर्थ ही संयोग या वियोग के लिए शोक करते हैं । इस विषय पर श्रीमद् भागवत का यह श्लोक देखिए...
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्रोतोवेगेन बालुका: ।
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिन: ॥ ६.१५.३॥
अर्थात्—
जिस प्रकार बालू के छोटे-छोटे कण लहरों के वेग से कभी एक दूसरे के निकट आते हैं और कभी विलग हो जाते हैं, उसी प्रकार से देहधारी जीवात्माएँ काल के वेग से कभी मिलती हैं, तो कभी बिछुड़ जाती हैं । 

अतः इस उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान को जानने के पश्चात् भी यदि कोई प्रेम वियोग से शोकाकुल है तो उसके लिए मैं यहां एक ही बात कहूंगा कि आपमें से कोई भी प्रेम संबंधों में विफलता के लिए इसलिए भी शोक न करे क्योंकि आपके साथ यदि कोई छल करके गया है अथवा ग्रहों और काल के प्रभाव से पृथक हो गया है तो वह आपके प्रेम रूपी ऋण को उतारने के लिए पुनः जीव देह धारण करके आपके सम्मुख आने के लिए विवश किया जाएगा। यही ईश्वरीय विधान है और न्याय भी। अतः आपको कभी भी किसी के लिए भी शोक नहीं करना चाहिए और सदैव धर्म की ही शरण में रहना चाहिए क्योंकि सदा धर्म की शरण में रहने वालों का कभी नाश नहीं होता ।
"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

रविवार, 13 अगस्त 2023

जीवन में हमारे कुलदेवी/देवता का महत्व...

पूर्व काल में हमारे ऋषि कुलों (आदि पूर्वजों) ने अपने इष्ट देवी/देवताओं को उचित स्थान देकर (मंदिर आदि बनाकर) उनका अपने कुल देवी/देवता के रूप में पूजन करना आरंभ किया जिससे एक पारलौकिक शक्ति उनके कुल के वंशजों की नकारात्मक ऊर्जाओं, ग्रह जनित बाधाओं तथा मांत्रिक शक्तियों से सदैव रक्षा करती रहे । हमारे पूर्वज इन शक्तियों से यह वचन लिया करते थे कि वह उनके कुल की यथा संभव रक्षा करेंगी जिसके कारण अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार यह शक्तियां अपने-अपने कुलों की रक्षा किया करती थीं ।


कालान्तर में विधर्मी मलेच्छ आक्रांताओं के आक्रमणों और उनके द्वारा की जा रही हिंसा, लूट, बलात्कारों के भय से बहुत से हिन्दू परिवार अपने स्थानों से विस्थापित होने लगे, मलेच्छों द्वारा लाखों की संख्या में धर्म परायण वेदपाठी ब्राह्मणों की हत्याओं, मंदिरों के विध्वंस तथा धर्म ग्रंथ जलाए जाने के कारण से सनातन धर्म का लोप होने लगा । जीवन बचाने के लिए जिसे जहां 
जो स्थान मिला वह वहीं बसने लगा, अंतर्जातीय विवाह होने से वर्णाश्रम व्यवस्था भंग होने लगी जिसके कारण कुलीन परंपरा विलुप्त होती गई । 


इधर वर्तमान की स्थिति का अवलोकन करने के पश्चात् हमें यह ज्ञात होता है कि पाश्चात्य संस्कृति का अंध अनुसरण करने से संस्कार शून्य हुए अधिकांश सनातनी एक तो पहले से ही यह भूल चुके हैं कि उनके कुल देवी/देवता कौन हैं ? ऊपर से मलेच्छ भूमि (समुद्र पार के देश) में जाकर बस जाने से स्थिति और भी भयावह हो चुकी है । 
मलेच्छ भूमि पर बसने वाले सनातनी अपना द्विजत्व खो जाने से मलेच्छत्व को प्राप्त हो चुके हैं और विडंबना यह है कि आप उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं करवा सकते क्योंकि धर्म ज्ञान के अभाव में अधिकांश सनातनी, विदेशी भूमि पर निवास करने के मिथ्या अहंकार से भरे होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ समझने के ऐसे महान भ्रमजाल में फंसे हुए हैं जिसमें से उन्हें शायद ही कभी निकाला जा सकता है ।


(याज्ञिक भूमि केवल भारतवर्ष ही है, जिसमें कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर जिसमें मूलाधार चक्र से लेकर सहस्त्रार चक्र तक सभी ७ चक्र स्थित हैं तथा इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों के रूप में गंगा, यमुना, सरस्वती भी हैं जिनका संगम प्रयाग क्षेत्र अर्थात् दोनों नेत्रों के मध्य स्थित आज्ञा चक्र में होता है । इन तीनों नदियों का संगम प्रयाग क्षेत्र में ठीक उसी प्रकार से होता है जैसे सिद्ध अवस्था में एक योगी के शरीर में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का आज्ञा चक्र में होता है । शरीर की ७२ हजार नाड़ियां और कुछ नहीं इसी भारत भूमि पर बह रही असंख्य नदियां, झीलों आदि का जाल है—  यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे)

अतः भारत भूमि और कुछ नहीं एक जीती-जागती पवित्र देह है जिसमें दिव्य ऊर्जा का प्रवाह स्वतः ही स्फुरित होता रहता है । यही कारण है कि इस भूमि को माता कहा जाता है जिसके गर्भ में भगवान् जन्म (अवतार) लिया करते हैं । इस विषय पर 'विष्णु पुराण' में एक श्लोक आता है–
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गास्पद हेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात॥
अर्थात्—
देवता भी स्वर्ग में यह गान करते हैं, धन्य हैं वह लोग जो भारत-भूमि के किसी भाग में उत्पन्न हुए । वह भूमि स्वर्ग से बढ़कर है क्योंकि वहां स्वर्ग के अतिरिक्त मोक्ष की साधना भी की जा सकती है ।

यहां विषय से हटकर मलेच्छत्व के विषय को विस्तार देने का कारण यही था कि जो भी सनातनी अपना देश छोड़कर विदेशों में जाकर बस चुके हैं किन्तु भीतर से धर्मपरायण और बुद्धिमान हैं वह इस ब्लॉग को पढ़कर यह समझ सकेंगे कि धर्म पालन में भारतवर्ष की क्या भूमिका है । साथ ही वह यह भी समझेंगे कि इस ब्लॉग को लिखते समय मेरी भावना किसी भी प्रकार से अहंकार, स्वार्थ और विद्वेषपूर्ण नहीं अपितु केवल और केवल शास्त्रसम्मत थी ।

अब इस विषय को और अधिक विस्तार न देते हुए पुनः वापस लौटते हैं अपने इस ब्लॉग के विषय पर अर्थात् जीवन में कुलदेवी/देवता का महत्व—
वचनबद्ध होने के कारण हमारे कुल देवी/देवता हमारे चारों ओर एक सुरक्षा कवच बनाकर रखते हैं । जो मनुष्य उनकी उपेक्षा करता है, उचित समय पर उनका पूजन नहीं करता, सदैव मलेच्छों की संगति में रहता है, उनकी संगति से प्रेरित होकर मांस (विशेषकर गौ मांस) भक्षण करता है तथा उनकी पूजा करने के स्थान पर भूत-प्रेतों, कब्रों, मजारों आदि का पूजन करता है, ऐसे व्यक्तियों के ऊपर से वह अपना सुरक्षा सुरक्षा कवच हटा लेते हैं और ऐसा मनुष्य शीघ्रता से तंत्र सम्बंधी बाधाओं, अभिचार कर्मों अथवा ब्रह्मांड में अनगिनत मात्रा में विचरण कर रही नकारात्मक काली शक्तियों की चपेट में आ जाता है।

ऐसे मनुष्यों के जीवन में कोई कार्य न बनना, गृह क्लेश रहना, मानसिक समस्याओं से ग्रसित होकर आत्महत्या करने के विचार आना, कोर्ट केस आदि में फंस जाना, धनी परिवार में जन्म लेने के पश्चात् भी अत्यन्त दरिद्र हो जाना, उसके कुल की स्त्रियों का दूषित हो जाना, परिवार में आकस्मिक दुर्घटनाएं होते रहना, घर में अग्नि कांड होना, घर में दीमक लग जाना आदि अनिष्टकारी घटनाएं घटित होती रहती हैं ।

ऐसी अवस्था में व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकता रहता है और अनेक ज्योतिषियों, तांत्रिकों आदि के द्वारा बताए गए उपायों को करवाने के पश्चात् भी उसको अपने जीवन में कोई लाभ दृष्टिगोचर नहीं होता । यहां यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि ऐसा व्यक्ति श्रापित होकर जीवन में अनेक दुःख भोगने को विवश होता है ।

मैंने अपने जीवन काल में अनेक जन्मकुंडलियों का अध्ययन करके यह पाया कि ऐसे व्यक्तियों को हमारे द्वारा बताए गए ज्योतिषीय उपाय भी उतना अधिक फलीभूत नहीं होते जितना कि उन्हें होना चाहिए किन्तु यही जातक जब अपने रुष्ट कुल देवी/देवता को प्रसन्न कर लेते हैं तो उन्हीं ज्योतिषीय उपायों से उनके जीवन में अद्भुत चमत्कार घटित होने लगते हैं । इसलिए अपने कुलदेवी/देवताओं का पूजन करना प्रत्येक सनातनी हिंदू का न केवल धर्म है, अपितु अनिवार्य कर्तव्य भी है ।

हमारे कुल देवी/देवता वह शक्तियां हैं जिनकी कृपा से हम सभी प्रकार की सफलता प्राप्त करते हुए सुखी व समृद्ध जीवन जी सकते हैं । अतः यदि किसी का घर बड़ा है और वास्तु के अनुसार बना हुआ है तथा वहां शुद्धता भी रहती है, तो उसे अपने घर के किसी वृद्ध व्यक्ति से अपने कुलदेवी/देवता के विषय में जानकारी प्राप्त करके उनको वहां उचित स्थान देना चाहिए । स्थान देते समय किसी योग्य वेदपाठी ब्राह्मण को बुलाकर अपने कुलदेवी/देवता का शास्त्र विधि अनुसार पूजन करवा लेना चाहिए तथा समय-समय पर उनका पूजन होते रहने की व्यवस्था करनी चाहिए । उस स्थान पर नित्य प्रतिदिन देशी गाय के दुग्ध से निर्मित घी का दीपक जलाना चाहिए । इससे उसके कुल देवी/देवता प्रसन्न होकर उसे अपने संरक्षण में ले लेंगे और उसे सभी प्रकार की सुख समृद्धि प्रदान करते हुए संसार में सदैव अपराजित रखेंगे ।

जिस व्यक्ति का घर छोटा है, घर में शुद्धि-अशुद्धि का विचार भी नहीं किया जाता, वास्तु द्वारा निर्मित भी नहीं है, घर में कुत्ता-बिल्ली-मुर्गा आदि पाले हुए हैं उसको अपने कुल देवी/देवता को घर में स्थान न देकर उसके पूर्वजों द्वारा स्थापित कुलदेवी/देवता के मंदिर में जाकर वर्ष में एक बार उनका विधि-विधान से पूजन अवश्य करना चाहिए । इसके अतिरिक्त घर में कोई शुभ कार्य होने वाला हो तब भी उस मंदिर में जाकर उनसे अनुमति और आशीर्वाद अवश्य ले लेना चाहिए जिससे बिना किसी अवरोध के उनका वह कार्य सम्पन्न हो सके तथा उसमें उन्हें आगे सफलता भी प्राप्त हो ।

यहां यह स्मरण रहे कि घर का मुखिया पुरुष होता है अतः यह कार्य किसी धर्मनिष्ठ पुरुष के द्वारा ही सम्पन्न होना चाहिए, घर की स्त्रियां उसका इस कार्य में सहयोग करें और इस धर्म कार्य में उसकी सहभागिनी बनकर श्रद्धापूर्वक अपने कुलदेवी/देवता की पूजा-अर्चना करें ।

अनेक बार देखा गया है कि जनसमुदाय अपने बच्चों के विवाह आदि शुभ अवसरों पर मनमाने ढंग से अपने कुलदेवी/देवताओं का पूजन करता है, विद्वान और धर्म परायण व्यक्तियों को इससे बचना चाहिए क्योंकि शास्त्र सम्मत आचरण करने में ही सबका कल्याण है, व्यर्थ के प्रमाद में पड़कर शास्त्र विरुद्ध आचरण करने से लाभ के स्थान पर उल्टा हानि ही उठानी पड़ती है ("यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।। १६.२३—श्रीमद् भगवद्गीता") ।

अब बात करते हैं उन व्यक्तियों की जिनके पास न तो धन है और न ही इतना सामर्थ्य है कि वह विधि-विधान से अपने कुलदेवी/देवता का पूजन कर सकें तो ऐसे व्यक्तियों को मानसिक रूप से ही अपने कुलदेवी/देवता का ध्यान करना चाहिए तथा हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन्हें इन भीषण विपत्तियों से निकाल कर अपना संरक्षण प्रदान करें (निष्कपट, शुद्ध और द्वेष रहित मन से की गई प्रार्थना देवी/देवताओं तक अवश्य पहुंचती है केवल कपटी, दंभी, धूर्त, लोभी और राग द्वेष भावना से युक्त मनुष्य ही उनकी कृपा कभी प्राप्त नहीं कर सकता)  इस प्रकार से प्रत्येक सनातनी हिंदू अपने जीवन में अपने कुलदेवी/देवता की कृपा प्राप्त करके स्वयं को सुखी और समृद्ध बना सकता है ।
"शिवार्पणमस्तु"

—Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

भगवान् श्री कृष्ण की शिव भक्ति...



 भगवान् शंकर और मां भवानी के चरणों को प्रणाम करते हुए आज मैं कलियुग के दक्ष बन चुके एक शिव-शक्ति निंदक अधर्मी Cult के मिथ्या प्रचार का अंत करने जा रहा हूँ जो भगवान् श्री कृष्ण को सर्वशक्तिमान परमेश्वर बताकर और उनकी आड़ लेकर भगवान् शंकर और माता भवानी का निरन्तर अपमान करता रहता है ।

इस Cult के अधर्मी तत्व अपनी अधर्म की दुकान चलाने के लिए इतने निम्न स्तर तक गिर चुके हैं कि वह अब सनातन धर्म में हस्तक्षेप करते हुए हमारे उच्च कोटि के देवी-देवताओं को भी नीचा दिखाने से पीछे नहीं हट रहे।
(इस cult के द्वारा किए गए मिथ्या प्रचार के खंडन पर मेरे अन्य ब्लॉग भी देखें)—




'श्रीमद्भगवतगीता' के कुछ श्लोकों का उदाहरण प्रस्तुत करके इस कलियुगी cult के चेले, अन्य देवी-देवताओं को तुच्छ बताने का प्रयास करते समय यह भूल जाते हैं कि 'भगवद्गीता' भी 'महाभारत' ग्रंथ का ही एक अंश है (जैसे जल की एक बूंद महासमुद्र का एक अंश मात्र होती है) जिसमें अनेक स्थानों पर श्री कृष्ण-अर्जुन द्वारा शिव-शक्ति, देवी दुर्गा आदि का पूजन करने का विवरण हमें प्राप्त होता है । अतः इन अधर्मियों को उत्तर देने के लिए आज मैं पवित्र महाभारत ग्रंथ में से ही भगवान् श्री कृष्ण द्वारा शिव भक्ति करने के प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

श्री कृष्ण युधिष्ठिर संवाद— श्री कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को अपनी शिव भक्ति के विषय में कहना {श्री महाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान-धर्म-पर्व में मेघवाहन पर्व के अध्याय १८ की श्लोक संख्या 👉३५-३६}

वासुदेवस्तदोवाच पुनर्मतिमतां वरः ।
सुवर्णाक्षो महादेवस्तपसा तोषितो मया ॥ ३० ।।
उस समय बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण फिर इस प्रकार बोले— "मैंने सुवर्ण-जैसे नेत्रवाले महादेव जी को अपनी तपस्या से संतुष्ट किया  । ३० ।।

ततोऽथ भगवानाह प्रीतो मां वै युधिष्ठिर ।
अर्थात् प्रियतरः कृष्ण मत्प्रसादाद् भविष्यसि ।। ३१ ।।
" युधिष्ठिर! तब भगवान् शिव ने मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहा— 'श्रीकृष्ण ! तुम मेरी कृपा से प्रिय पदार्थों की अपेक्षा भी अत्यन्त प्रिय होओगे.... । ३१।।

अपराजितश्च युद्धेषु तेजश्चैवानलोपमम् ।
एवं सहस्रशश्चान्यान् महादेवो वरं ददौ ।। ३२ ।।
युद्ध में तुम्हारी कभी पराजय नहीं होगी तथा तुम्हें अग्नि के समान दुस्सह तेज की प्राप्ति होगी'। इस तरह महादेव जी ने मुझे और भी सहस्त्रों वर दिए । (इसी कारण यदि कभी भी भगवान् शंकर प्रेमवश श्री कृष्ण से किसी युद्ध में पराजित हो जाते हैं तो इसमें किसी भी प्रकार के आश्चर्य की कोई बात नहीं है अपितु इसे भगवान् शंकर द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया वरदान ही समझना चाहिए) ।। ३२ ।।

मणिमन्थेऽथ शैले वै पुरा सम्पूजितो मया ।
वर्षायुतसहस्राणां सहस्रं शतमेव च ।। ३३ ।।
"केवल इसी अवतार में नहीं अपितु पूर्वकाल में अन्य अवतारों के समय भी मणिमन्थ पर्वत पर मैंने लाखों-करोड़ों वर्षों तक महादेव की आराधना की थी ।। ३३ ।।

ततो मां भगवान् प्रीत इदं वचनमब्रवीत् ।
वरं वृणीष्व भद्रं ते यस्ते मनसि वर्तते ॥ ३४ ।।
“इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने मुझसे कहा – 'कृष्ण! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन से जैसी रुचि हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो' ।। ३४ ।।

ततः प्रणम्य शिरसा इदं वचनमब्रुवम् ।
यदि प्रीतो महादेवो भक्त्या परमया प्रभुः ।। ३५ ।।
नित्यकालं तवेशान भक्तिर्भवतु मे स्थिरा ।
एवमस्त्विति भगवांस्तत्रोक्त्वान्तरधीयत ।। ३६ ।।
"यह सुनकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और कहा- 'यदि मेरी परम भक्ति से भगवान् महादेव प्रसन्न हों तो समस्त विद्याओं के ईश्वर तथा सब के ऊपर शासन करने वाले ईशान! आपके प्रति नित्य-निरन्तर मेरी स्थिर भक्ति बनी रहे।' तब 'एवमस्तु' कहकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये" ।। ३५-३६ ।।

इस प्रकार महाभारत ग्रंथ में भगवान् श्री कृष्ण द्वारा बोले गए इन वचनों से यह सिद्ध होता है कि अपनी ही योगमाया से मनुष्य शरीर धारण किए हुए स्वयं भगवान् श्री हरि विष्णु, श्री कृष्ण के रूप में भगवान् शंकर की आराधना किया करते थे ।


यही नहीं यदि इसी अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान-धर्म-पर्व के मेघवाहन पर्व के ही १५वें अध्याय को आप पढ़ेंगे तो उससे आपको यह ज्ञात होता है कि भगवान् श्री कृष्ण ने भगवान् शंकर सहित माता भवानी की भी घोर तपस्या करके उनसे भी ८ प्रकार के वर प्राप्त किए थे ।

आशा करता हूँ कि मेरे इस ब्लॉग को पढ़ने के उपरान्त कोई भी 'सनातन धर्मी' हमारे उच्च कोटि के देवी-देवताओं के प्रति किए जा रहे विष-वमन में सहायक नहीं बनेगा । चाहे वह विष-वमन अपनी उदर पूर्ति के लिए धार्मिक टीवी सीरियल बनाने वाले निर्माताओं के द्वारा किया जा रहा हो अथवा अपने cult के अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से किसी cult के 'अधर्म' गुरुओं द्वारा ।

—Astrologer Manu Bhargava

सोमवार, 8 मई 2023

मंगल का अपनी नीच राशि 'कर्क 'में प्रवेश (२०२३)—


 
१० मई २०२३ दोपहर १ बजकर ३९ मिनट पर गोचर में मंगल अपनी नीच राशि 'कर्क' में प्रवेश करने जा रहे हैं और वह १ जुलाई २०२३ प्रातः २ बजकर १६ मिनट तक वहीं संचार करेंगे तत्पश्चात् अपनी मित्र राशि 'सिंह' में प्रवेश करेंगे ।

अपने इस राशि परिवर्तन के साथ ही मंगल स्वयं राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी होकर राहु के ही केंद्रीय प्रभाव में आ जाएंगे और शनि के साथ षडाष्टक योग भी बना लेंगे । मंगल-शनि का यह षडाष्टक योग संसार के लिए विशेष पीड़ादायक होता है अतः इस योग का दुष्प्रभाव सभी जातकों के ऊपर पड़ेगा ।

मंगल के नीच राशि में गोचर करने तथा शनि के साथ यह षडाष्टक योग बन जाने से इस अवधिकाल में विश्व भर में हिंसा, आगजनी जैसी घटनाओं में वृद्धि होगी और विश्व भर से ट्रेन पलटना, प्लेन क्रैश होना तथा गैस पाइप लाइन में आग लग जाना जैसी अशुभ सूचनाएं प्राप्त होंगी इसके अतिरिक्त सामान्य से कहीं अधिक सड़क दुर्घटनाएं होने के आंकड़े भी प्राप्त होंगे। अतः विद्वान मनुष्यों को इस अवधिकाल में निजी वाहनों से लंबी दूरी की यात्राओं से यथा संभव बचना चाहिए, घरेलू महिलाओं को गैस सिलेण्डर का उपयोग करते समय विशेष सावधानी रखनी चाहिए तथा आग लगने की घटनाओं को रोकने के लिए प्रशासन को विशेष प्रबन्ध करने चाहिए।

राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी होकर अपनी नीच राशि में रहने के कारण मंगल के दुष्प्रभावों में एक विशेष विध्वंसकारी शक्ति आ गई है जिसके फलस्वरूप ऐसा मंगल गोचर में जातकों की जन्मकुंडलियों के जिस-जिस भावों का स्वामी होकर जिन-जिन भावों में जाएगा और यह सभी भाव शरीर के जिन अंगों, कारक तत्वों तथा सगे-संबंधियों का प्रतिनिधित्व करते हैं उन सभी के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में मंगल की अशुभ स्थिति होने से जातक को जो रोग, चोट, दुर्घटनाएं प्राप्त होती हैं, इस अवधिकाल में उसमें अधिकता देखी जाएगी । जन्मकुंडली में १२ भावों तथा मंगल से होने वाले रोगों के विषय में जानने के लिए मेरा यह ब्लॉग देखें

https://astrologermanubhargav.blogspot.com/2020/04/blog-post.html

राहु अधिष्ठित राशि के स्वामी होकर 'मन की राशि' में संचार करते हुए मंगल की मारक क्षमता के प्रभाव से जीवों के मन में हिंसा की भावना जन्म लेगी जिससे इस अवधिकाल में एक दूसरे के प्रति हिंसा में अत्यधिक वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप विश्व भर में हिंसा-रक्तपात और यहां न लिख सकने वाली अनेक अशुभ घटनाएं घटित होंगी । 

मंगल शल्य चिकित्सा का कारक ग्रह है जब यह अशुभ स्थिति में होता है तब विश्व भर में ऑपरेशन होने की संख्या में अत्यधिक वृद्धि होती है अतः चिकित्सकों के लिए यह समय व्यस्ततापूर्ण रहेगा ।

ब्लॉग का विस्तार न हो यह देखते हुए तथा समय के अभाव में सभी राशि-लग्नों वाले जातकों का भविष्यफल इस ब्लॉग में बताना संभव नहीं है अतः मंगल के इस विनाशकारी गोचर से सभी जातकों के बचाव के लिए कुछ उपायों का मैं यहां उल्लेख कर रहा हूँ ।

  •  हनुमान जी की उपासना करें ।
  •  रक्त वर्ण की देशी गाय की सेवा करें तथा उसे गुड़ का सेवन करवाएं ।
  •  मंगल के उस मंत्र का जाप करें जिसके लिए आप अधिकृत हैं ।
  •  गुड़, घी, लाल मसूर की दाल, तांबे का पात्र, अनार, गेंहू, लाल वस्त्र आदि वस्तुओं का दान किसी ऐसे मंदिर में करें जिसमें शास्त्र मर्यादा का पालन करने वाले वेदपाठी ब्राह्मण विद्वानों की नियुक्ति की गई हो 
  • अपने छोटे भाइयों को उनकी प्रिय वस्तु भेंट करें (ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 'मंगल' छोटे भाई का कारक होता है) ।
  • स्वयं रक्त वर्ण के वस्त्र धारण करने से बचें।

नोट—
मंगल का यह अशुभ गोचर उन जातकों के लिए उतना हानिकारक नहीं होगा जिनकी जन्मकुंडलियों में मंगल शुभ स्थिति में होंगे तथा उनकी दशा–अंतर्दशा भी उनकी जन्मकुंडली में स्थित शुभ योगकारक ग्रहों की चल रही होगी किन्तु जिन जातकों की जन्मकुंडलियों में मंगल अशुभ स्थिति में हुए और उनकी दशा–अंतर्दशा भी उनकी जन्मकुंडलियों में स्थित अशुभ ग्रहों की हुई, उनके लिए मंगल का यह गोचर अत्यन्त हानिकारक सिद्ध होगा ।

 

"शिवार्पणमस्तु"

—Astrologer Manu Bhargava

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

महाशिवरात्रि का रहस्य


मानव दृष्टि और चेतना जिस-जिस स्थान तक जाती है मनुष्य वहीं-वहीं तक देख सकता है, समझ सकता है किन्तु अध्यात्म विद्या को जानने वाले मनुष्य, साधारण मनुष्यों की दृष्टि और चेतना से भी परे देख व समझ सकते हैं । साधारण मनुष्य जो देख व समझ नहीं पाता वह उसको नहीं मानता किन्तु जिसे वह देख नहीं पाता, समझ नहीं पाता, यह आवश्यक तो नहीं कि वह पदार्थ अथवा तत्व इस जगत में है ही नहीं ?


इसी प्रकार ईश्वरीय तत्व परमाणु स्वरूप में प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है, केवल आवश्कता होती है उसे जाग्रत करने की ।

तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र की सहायता से उस ईश्वरीय तत्व को जाग्रत करके आत्मसात किया जाता है जिससे उसकी ऊर्जा से अपने तथा अन्य व्यक्तियों के जीवन की नकारात्मकता को दूर किया जा सके। इसके लिए प्राचीन ग्रंथो में कुछ सिद्ध रात्रियां बताई गई हैं जिनमें से 'महाशिवरात्रि' प्रमुख है ।

यह वह समय काल होता है जब ब्रह्माण्ड की दो महाशक्तियां  (Super Natural Powers) जिनमें से एक भगवान् शंकर और दूसरी महाकाली का मिलन होता है और इन दोनों शक्तियों का यह मिलन एक महाशक्तिशाली ऊर्जा का निर्माण करता है ।

महाशिवरात्रि के समय इन दोनों महान शक्तियों के एक हो जाने से ब्रह्माण्ड में चारों ओर अदृश्य रूप से जिस महाशक्तिशाली ऊर्जा का निर्माण होता है इसको साधारण साधक अनुभव कर सकता है और उच्च कोटि का साधक देख व अनुभव दोनों कर सकता है ।

यह ऊर्जा कल्याणकारी तथा प्रयलंकारी दोनों ही प्रकार की होती हैं, निर्भर यह करता है कि साधक किस ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करके उसे आत्मसात कर रहा है ।

जहां एक ओर दक्षिणमार्गी साधक शिव-शक्ति के मिलन से उत्पन्न हुई इस रहस्यमयी ऊर्जा में से सात्विक और कल्याणकारी तत्व को ग्रहण करते हैं वहीं दूसरी ओर कापालिक, अघोरी और वाममार्गी साधक इस महान ऊर्जा से उत्पन्न इसके प्रलयंकारी तत्व को ग्रहण करते हैं ।

विश्व के सभी सात्विक तत्वों को भगवान् विष्णु द्वारा ग्रहण कर लेने के पश्चात् कहीं तामसी ऊर्जाएं अनियंत्रित न हो जाए इस कारण से भगवान् शंकर और देवी महाकाली ने उनको अपने अधीन कर लिया l हलाहल विष और कुछ नहीं ब्रह्माण्ड में व्याप्त ऐसा भयानक विनाशकारी परमाणु विकिरण (Nuclear Radiation) था जिसके संपर्क में आने से कोई भी सुरक्षित नहीं रह सकता था इसी कारण से भगवान् शंकर ने उसे ग्रहण कर लिया। ब्रह्माण्ड की उस अद्भुत घटना के वैज्ञानिक रहस्यों पर किसी अन्य ब्लॉग में चर्चा करूंगा अभी पुनः अपने विषय पर आते हैं ।

वस्तुतः महाशिवरात्रि केवल एक पर्व नहीं, साधना के माध्यम से अपनी अंतः चेतना को नवीन आयाम देने के लिए ईश्वर के द्वारा हमें दिया गया एक सिद्ध मुहूर्त है जिसके माध्यम से हम जन्मजन्मांतरों तक के लिए भगवान् शंकर और माता भवानी की भक्ति और उनका संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए आवश्कता है इस साधना के रहस्य को जानकर अपनी आत्मा के स्तर से इस साधना को करने की क्योंकि प्रत्येक जन्म में हमारे साथ हमारा शरीर नहीं आत्मा जाती है। अतः साधनाओं को शरीर के स्तर पर न करके आत्मिक स्तर पर करना चाहिए, शरीर तो केवल माध्यम मात्र होना चाहिए किसी भी साधना को करने के लिए ।

साधक साधना करते समय अपने स्थूल (देह) और सूक्ष्म (मन) शरीरों के प्रति मोह, अनुराग और प्रीति को त्यागकर जब अपने कारण शरीर (आत्मा) से मंत्र जाप करता है तो वह निश्चित् ही अपने इष्ट का सानिध्य और उनकी शक्तियों का कुछ अंश प्राप्त कर लेता है। अतः साधकों को आत्मा के स्तर से मंत्र जाप करना चाहिए । यह एक अत्यन्त गुप्त रहस्य है जिसको केवल गुरु कृपा अथवा पूर्वजन्म की साधनाओं के इस जन्म में प्रकट होने पर ही जाना जा सकता है ।

इस विषय को अब और अधिक विस्तार न देते हुए अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ मेरे इस ब्लॉग की गहनता को समझते हुए इससे प्रेरणा लेकर साधक गण अनन्त काल तक केवल महाशिवरात्रि ही नहीं अपितु विभिन्न सिद्ध रात्रियों में अपने 'अधिकार की सीमा में आने वाले मन्त्रों' का जाप करके भगवान् की शरणागति प्राप्त करते रहेंगे जिससे मेरी आत्मा का मनुष्य रूप में जन्म लेने का उद्देश्य भी सार्थक सिद्ध होगा।

”शिवार्पणमस्तु”

—Astrologer Manu Bhargava

सोमवार, 1 अगस्त 2022

पंचदेवोपासना



प्राचीन 'सनातन वैदिक आर्य सिद्धान्त' के अनुसार कौन हैं 'पंचदेव' और क्यों करते हैं 'पंचदेवों' की साधना ?

वस्तुतः परब्रह्म परमेश्वर ही पंचदेवों के रूप में व्यक्त हैं तथा सम्पूर्ण चराचर जगत में भी वही व्याप्त हैं।

वेदानुसार निराकार ब्रह्म के साकार रूप हैं पंचदेव—

परब्रह्म परमात्मा (आदि शक्ति) निराकार व अशरीरी हैं, अत: साधारण मनुष्यों के लिए उनके स्वरूप का ज्ञान असंभव है इसलिए निराकार ब्रह्म ने अपने साकार स्वरूप को ५ महान शक्तियों के रूप में प्रकट किया और उनकी उपासना करने का विधान निश्चित किया। निराकार परब्रह्म की यही ५ शक्तियां 'पंचदेव' कहलाती हैं

हमारे शास्त्रों में इन पंचदेवों की मान्यता पूर्ण ब्रह्म के रूप में है, जिनकी साधना से पूर्ण ब्रह्म की ही प्राप्ति होती है। इसलिये अपनी-अपनी अभिरुचि के अनुसार इन पंचदेवों में से किसी एक को अपना इष्ट देव मानकर उनकी उपासना करने का विधान है।

यह पंचदेव हैं–गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु और सूर्य।

इनमें से गणपति के उपासक–गाणपत्य , शिव के उपासक–शैव, शक्ति के उपासक–शाक्त, विष्णु के उपासक–वैष्णव तथा सूर्य के उपासक–सौर कहे जाते हैं और जो मनुष्य इन पांचों देवी-देवताओं की उपासना करते हैं उन्हें 'स्मार्त' कहा जाता है।

अत्यन्त हास्यास्पद बात है कि निराकार परब्रह्म परमेश्वर की जो शक्तियां भिन्न होकर भी एक ही शक्ति का अंश हैं उनके नाम पर बनने वाले सम्प्रदाय आपस में एक दूसरे के देवी-देवताओं को नीचा दिखाने का कार्य करते हैं जबकि इन सम्प्रदायों के निर्माण का उद्देश्य मानव को उसकी अभिरुचि के अनुसार साधना के मार्ग पर आगे बढ़ाकर सद्गति प्राप्त करवाना था।

अति तो तब हो गई जब इन पंचदेवों की शक्तिशाली ऊर्जा से उत्पन्न होने वाले 'अवतारों' के नाम पर भी नए-नए सम्प्रदाय अस्तित्व में आ गए, जिसमें से कुछ तो प्राचीन ज्ञान परम्परा का अनुसरण करते हैं किन्तु अधिकांश का प्राचीन सनातन ज्ञान परम्परा से कोई लेना-देना ही नहीं है और इनका उद्देश्य केवल अपने चेलों की संख्या बढ़ाकर अपने-अपने 'Cult' के महान गुरु की पदवी प्राप्त करके सनातनी जनता से धन ऐंठना मात्र है।

वस्तुतः कलियुगी व्यक्ति-विशेषों द्वारा बनाए गए इन 'Cults' को सम्प्रदायों की श्रेणी में रखना भी इन पंचदेवों की साधना के लिए बनाए गए प्राचीन सम्प्रदायों का अपमान करना ही है। इस विषय पर मेरे यह ब्लॉग देखें—

https://astrologermanubhargav.blogspot.com/2020/04/blog-post_28.html 

https://astrologermanubhargav.blogspot.com/2019/07/dharm-yudh.html


इस प्रकार यहां मैंने पंचदेवों और उनकी साधना के विषय में वर्णन किया जिससे सभी सनातनी भाई-बहन विभिन्न Cults के प्रपंच में पड़ने के स्थान पर अपने मूल 'सनातन वैदिक आर्य सिद्धांत' का अनुसरण करके मुक्ति प्राप्त कर सकें।

 (शिवार्पणमस्तु)

-Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 27 अप्रैल 2022

शनि का अपनी मूलत्रिकोण राशि 'कुंभ' में प्रवेश

 

२९ अप्रैल २०२२ को प्रातः ९ बजकर ५७ मिनट (दिल्ली समयानुसार) पर शनि 'मकर' राशि से निकल कर अपनी मूलत्रिकोण राशि 'कुंभ' में प्रवेश करेंगे जहां वह २९ मार्च २०२५ की रात्रि १० बजकर ६ मिनट तक संचार करेंगे तत्पश्चात् अगली राशि 'मीन' में चले जायेंगे।

शनि ५ जून २०२२ में वक्री हो जायेंगे और १२ जुलाई २०२२ को वक्री गति से ही कुछ समय के लिए अपनी पिछली गोचर राशि 'मकर' में पुनर्वापसी करेंगे और बाद में २३ अक्तूबर २०२२ से अपनी मार्गी गति को प्राप्त होकर १७ जनवरी २०२३ को पुनः 'कुंभ' राशि में प्रवेश कर जायेंगे। इस प्रकार 'मकर' राशि में शनि के गोचर की अवधि १२ जुलाई २०२२ से १७ जनवरी २०२३ तक रहेगी।

शनि क्रम संख्या में सूर्य से छ्ठे स्थान पर स्थित हैं और बृहस्पति के बाद सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह हैं। यह विभिन्न गैसों का एक विशाल भंडार रखते हैं। अतः 'यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' के सिद्धांत के आधार पर जातक की जन्मकुंडली में शनि की अशुभकारी स्थिति होने पर उसके शरीर में गैस की अधिकता हो जाती है। वैदिक ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश कहा जाता है तथा यह आयु, रोग और दुःख के कारक होते हैं।

प्रायः देखा जाता है कि शनि का नाम सुनकर ही लोग भयभीत हो जाते हैं क्योंकि कोई भी मनुष्य अपने जीवन में दुःख नहीं उठाना चाहता। किन्तु यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो शनि, जीव को दुखों के चक्र में डालकर उसके द्वारा पूर्व जन्मों में किए गए पाप कर्मों का भुगतान करवाकर उसकी आत्मा को शुद्ध करवाने का ही कार्य करते हैं जिससे जीव मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर चलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।

कई जातकों की जन्मकुंडलियों में अशुभ स्थिति होने पर शनि अपनी दशा काल में उसको इतने दुःख देते हैं कि अनेक बार वह अपने सगे-संबंधियों के मोह से विरक्त होकर, अपना घर-परिवार छोड़कर पर्वतों, वनों आदि में साधना करने निकल जाता है और स्वयं की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। पर्वतों पर आप जितने भी साधु रहते हुए देखते हैं उनके जीवन पर कहीं न कहीं शनि का ही प्रभाव होता है जिसके कारण वह आत्मकल्याण हेतु मोक्ष की साधना कर पा रहे हैं। इस प्रकार शनि दुखों के कारक होते हुए भी अन्त में जीव के लिए कल्याणकारी ही सिद्ध होते हैं।

शनि ग्रह की एक विशेषता यह है कि उनकी अशुभ दशा-अंतर्दशा, ढैय्या, साढ़े साती प्राप्त होने पर जो जातक अपने स्वभाव में विनम्रता और जीवन में सात्विकता ले आते हैं उनको वह उतना अशुभ फल नहीं देते किन्तु जो जातक दूसरों पर अत्याचार करते हैं, पाप आचरण करते हैं, हत्या, लूट, डकैती, चोरी, बलात्कार आदि पापों में लिप्त रहते हैं तथा मांस, मदिरा आदि का सेवन करते हैं, शनि उनका समूल विनाश करके प्राणियों को उसके भय से मुक्ति दिलाने का कार्य करते हैं।

शनि की गति सभी ग्रहों में सबसे अधिक धीमी है जिसके कारण यह एक राशि से निकलने में लगभग ढाई वर्ष का समय लगा देते हैं। इसी ढाई वर्ष के समय काल को शनि की ढैय्या के नाम से जाना जाता है। यह तुला, मकर और कुम्भ राशियों, सप्तम भाव (पश्चिम दिशा), दक्षिणायन, स्वद्रेष्काण में रहने पर तथा रात्रि में बली होते हैं और यह कुम्भ राशि के प्रथम २० अंश तक मूलत्रिकोण तथा २१ से ३० अंश तक स्वराशि का फल देते हैं। यह वायु तत्व प्रधान एक नपुंसक ग्रह हैं जो कि शिशिर ऋतु के स्वामी होते हैं तथा रोग, दुःख, विपत्ति, नौकरी (सेवक), न्याय व्यवस्था, शराब, लोहा, काले वस्त्र, पेट्रो कैमिकल्स, कोयला, गैस, तंत्रिका तंत्र (Nervous System), गठिया, वायु विकार, लकवा, श्रम, दरिद्रता, मजदूरी, ऋण आदि के कारक होते हैं।

फलदीपिका में शनि के विषय में इस प्रकार कहा गया है...

वातश्लेष्मविकारपादविहतिं चापत्तितन्द्राश्रमान् भ्रान्तीं कुक्षिरुगन्तरुष्णभृतकध्वंसं च पार्श्वहतिम्।
भार्यापुत्रविपत्तिमङ्ग्विहर्तिं हृत्तापमर्कत्मजो वृक्षाश्मक्षतिमाह कश्मलगणैः पीडां पिशाचादिभिः॥
अर्थात् -
शनि के दूषित होने से वात-कफज विकार, पादक्षति, विपत्ति, श्रमजनित थकान, मानसिक विभ्रम, कुक्षिरोग, हृद् रोग, भृत्यों की क्षति, पसली में चोट, स्त्री-पुत्रादि को कष्ट, अंग-भंग, हृत् ताप, वृक्ष अथवा पत्थर से चोट, पिशाचादि से पीड़ा आदि फल होते हैं ।

फलदीपिका में यह भी कहा गया है...

दारिद्रयदोषनिजकर्मपिशाचचौरै: क्लेशं करोति रविजः सह सन्धिरोगैः।
अर्थात्
दरिद्रता, दूषित कर्म, पिशाच और चौर भय तथा इनके द्वारा कष्ट, सन्धियों में रोग आदि दूषित शनि के प्रभाव से होते हैं।

वैदिक ज्योतिष में शनि को आयु का कारक माना जाता है, यदि लग्नेश, अष्टमेश और शनि बलवान हों तो मनुष्य दीर्घायु होता है। शनि का रंग काला होता है और यदि यह किसी जातक के लग्न-लग्नेश, चन्द्र लग्न-चन्द्र लग्नेश, सूर्य लग्न-सूर्य लग्नेश तथा द्वितीय भाव-द्वितीयेश पर अपना प्रभाव डालें तो उस जातक का रंग काला होता है।

शनि की ढैय्या एवं साढ़े साती विचार-
गोचर में शनि जब किसी जातक के चन्द्र लग्न (जन्म राशि) से चतुर्थ अथवा अष्टम् भाव में संचार करना प्रारम्भ करते हैं तब उसके ऊपर शनि की ढैय्या का आगमन होता है और जब यह चन्द्र लग्न से द्वादश, प्रथम और द्वितीय भावों में स्थित राशियों में ढाई-ढाई वर्ष संचार करते हैं तो इसको ही शनि की साढ़े साती कहा जाता है।

शनि के इस राशि परिवर्तन के कारण 'धनु राशि' पर से शनि की साढ़े साती तथा 'मिथुन व तुला' से शनि की ढैय्या समाप्त हो जायेगी और 'मीन राशि' पर साढ़े साती तथा 'कर्क व वृश्चिक' पर ढैय्या का आगमन होगा। इस प्रकार 'मकर, कुम्भ व मीन' पर शनि की साढ़े साती तथा 'कर्क व वृश्चिक' राशियों पर शनि की ढैय्या का प्रभाव रहेगा। जैसा कि मैं बता चुका हूँ कि १२ जुलाई से शनि पुनः 'मकर' राशि में गोचर करने लगेंगे जिसके कारण जो राशियां २९ अप्रैल को शनि ढैय्या व साढ़े साती से मुक्त हो चुकी होंगी वह एक बार पुनः इसकी चपेट में आ जायेंगी और १७ जनवरी २०२३ तक इसी स्थिति में रहेंगी। इस तरह से देखा जाए तो मिथुन और तुला राशि वालों को शनि की ढैय्या और धनु राशि को शनि की साढ़े साती से पूर्ण रूप से मुक्ति १७ जनवरी २०२३ को ही मिल सकेगी।

आइए अब जानते हैं कि विभिन्न राशि-लग्नों वाले जातकों के जीवन पर शनि के इस राशि परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा?

शनि के 'कुम्भ' राशि में प्रवेश से विभिन्न राशि-लग्नों वाले जातकों के जीवन में पड़ने वाले प्रभाव-

मेष राशि - मेष लग्न
आपके एकादश भाव में शनि का संचार आपको सरकार से विभिन्न प्रकार के लाभ कराने वाला होगा। यदि आप किसी सरकारी पद पर हैं तो आपके प्रमोशन के योग बनेंगे। यदि आप सरकारी ठेकेदारी का कार्य करते हैं तो आपको उससे बहुत अधिक लाभ प्राप्त होगा और यदि आप राजनीति में हैं तो आपको उसमें भी सफलता मिलेगी किन्तु शनि की तीसरी नीच दृष्टि आपके सिर, सप्तम शत्रु दृष्टि आपके पेट, हृदय, संतान तथा पढ़ाई के लिए अशुभ है तथा इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके ससुराल के लिए अमंगलकारी है। इस राशि-लग्न वाले जातक सिर की चोट से स्वयं का बचाव करें। हनुमान जी की आराधना से आपको विशेष लाभ होगा।

वृष राशि - वृष लग्न
आपके दशम भाव में शनि का संचार आपके पिता के स्वास्थ्य, उनकी आयु तथा उनकी आर्थिक उन्नति के लिए विशेष लाभकारी है। यदि आप सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए प्रयासरत है तो उसमें आपको सफलता मिलेगी किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपकी दादी के स्वास्थ्य, आपकी एड़ी-पंजों तथा आपके बाएं नेत्र के लिए विशेष हानिकारक है। इसकी सप्तम शत्रु दृष्टि आपकी माता, वाहन, भवन-भूमि तथा आपके सेवकों के लिए अशुभ है तथा इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके वैवाहिक जीवन और पार्टनरशिप के लिए अमंगलकारी है। इस अवधिकाल में आपको वाहन चलाने में सावधानी रखनी चाहिए अन्यथा कोई दुर्घटना घटित हो सकती है। रुद्राक्ष की माला से भगवान् शंकर के उच्च कोटि के मंत्रों का विधिवत् जाप करें।

मिथुन राशि - मिथुन लग्न
आपके नवम भाव में शनि का संचार आपके भाग्य के लिए बहुत उत्तम फल प्रदान करने वाला होगा। नवम भाव में शनि आपको देश में ही पर्वतीय स्थानों की यात्रा करवा सकता है जिससे आपके जीवन में आध्यात्मिक ऊर्जा का नवीन संचार होगा। यदि आपके भाग्य के कारण आपके कोई कार्य रुके हुए थे तो वह अब पूर्ण होंगे किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपकी पिंडलियों तथा आपके बड़े भाई-बहन, चाचा और छोटी बुआ के लिए विशेष हानिकारक है। इसकी सप्तम शत्रु दृष्टि आपके छोटे भाई-बहनों, आपके गले और दाहिने हाथ के लिए अशुभ है। इस अवधिकाल में आपको विदेश यात्रा करने से बचना चाहिए। इसके अतिरिक्त शनि की दशम शत्रु दृष्टि आपके छ्ठे भाव में होने के कारण इस समय आपको कर्ज लेने से बचना चाहिए तथा अपने शत्रुओं से सावधान रहना चाहिए। यह समय आपके दादा के स्वास्थ्य के लिए भी अशुभ है। यदि पहले से ही आप छ्ठे भाव से सम्बंधित अंगों के किसी रोग से पीड़ित है तो अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें। रुद्राक्ष की माला से भगवती दुर्गा के उच्च कोटि के मन्त्रों का जाप करने से सभी प्रकार की बाधाओं का नाश होगा।

कर्क राशि - कर्क लग्न
आपके अष्टम् भाव में शनि का संचार आपकी आयु तथा आपके जीवन साथी के धन के लिए अत्यन्त शुभ है। यदि इस राशि-लग्न का कोई जातक मृत्यु शैय्या पर होगा तो वह अष्टम् भाव में पहले से ही संचार कर रहे मंगल के 'मीन राशि' में प्रवेश करने के साथ ही शनि के प्रभाव से ठीक होने लगेगा क्योंकि तब इनके अष्टम् भाव में आयुकारक शनि के अकेले संचार करने से वह इनकी आयु में वृद्धि कर देगा। शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके पिता के धन, सास के स्वास्थ्य तथा आपके घुटनों की लिए ठीक नहीं है। इसकी सप्तम शत्रु दृष्टि आपके धन, कुटुंब तथा मुख के लिए अशुभ है और इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके पेट, हृदय, पढ़ाई तथा आपकी संतान के लिए अमंगलकारी है। अपने इष्टदेवता के मंत्रों का विधिपूर्वक जाप करें।

सिंह राशि - सिंह लग्न
यद्यपि शनि का सप्तम भाव में संचार आपके वैवाहिक जीवन के लिए ठीक नहीं है तथापि यह आपके जीवन साथी के स्वास्थ्य और उनके मानसम्मान में वृद्धि करवाने वाला होगा। यदि आपकी जन्मकुंडली में शनि शुभ स्थिति में हैं और आप उसी से सम्बंधित वस्तुओं का व्यापार करते हैं तो यह समय आपके व्यापार के लिए उत्तम है। शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके पिता तथा आपके भाग्य के लिए अशुभ है तथा यह आपको धर्म से भी विमुख करेगी। पीठ और कमर की चोट से स्वयं का बचाव करें। इस अवधिकाल में आपको अपने नगर से दूर होने वाली व्यर्थ की यात्राओं को टाल देना चाहिए अन्यथा यात्रा में हानि उठानी पड़ सकती है। इसकी सप्तम शत्रु दृष्टि आपके सिर में कोई चोट अथवा पीड़ा दे सकती है, अतः बचाव करें। शनि की दशम शत्रु दृष्टि आपकी माता, भवन-भूमि, वाहन और सेवकों के लिए अमंगलकारी है। हनुमान जी की उपासना,पीपल की पूजा करने तथा काले रंग की देशी गाय को रात्रि के समय भोजन करवाने से शनि जनित पीड़ाओं का शमन होगा। शनि के मंत्रों का विधिवत् जाप करने से भी जीवन में सुख-शान्ति का आगमन होगा।

कन्या राशि - कन्या लग्न
शनि का आपके छठे भाव में संचार आपको कर्जों से मुक्ति प्रदान करने तथा आपके शत्रुओं का विनाश करने वाला सिद्ध होगा किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके ससुराल तथा आपके जीवन साथी के धन एवं उनके दाहिने नेत्र व मुख के लिए अशुभ है। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपके धन का व्यय चिकित्सालय, औषधियों अथवा न्यायालय में करवाएगी, अतः यदि आपके परिवार में किसी को चिकित्सा की आवश्यकता है तो अपने धन का उपयोग उसकी चिकित्सा में करें अन्यथा आपका धन न्यायालय में किसी अभियोग आदि में व्यय हो सकता है। इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके छोटे भाई-बहनों, आपके दाहिने हाथ एवं गले के लिए कष्टकारी है। इस अवधिकाल में आपको विदेश यात्रा करने से बचना चाहिए। किसी योग्य वेदपाठी ब्राह्मण के सानिध्य में देवी बगुलामुखी और हनुमान जी की उपासना करें।

तुला राशि - तुला लग्न
यद्यपि शनि का आपके पंचम भाव पर संचार आपके पेट में गैस की वृद्धि करने, आपकी बुद्धि को दूषित करने, आपके प्रेम संबंधों में बाधा डालने तथा आपकी संतान को कष्ट देने वाला होगा तथापि यदि आपकी जन्मकुंडली में आपका पंचम भाव एवं पंचमेश शुभ स्थिति में हुआ तो यह समय आपको अक्समात् ही जुआ, लॉटरी , सट्टा, शेयर मार्केट आदि से धन प्राप्त करवाने वाला तथा राजनीति में आपको उच्च पद प्राप्त करवाने वाला सिद्ध होगा। यह समय आपके माता के धन एवं उनके कुटुम्ब की वृद्धि करने वाला होगा। इस राशि-लग्न वाली गर्भवती स्त्रियां इस समय अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखें। शनि की तीसरी नीच दृष्टि आपके सप्तम भाव पर पड़ने से आपके दाम्पत्य जीवन में कलह, विवाद उत्पन्न होना, आपके जीवन साथी की आयु-स्वास्थ्य पर संकट आने जैसे अशुभ फल घटित होंगे। इसकी सप्तम शत्रु दृष्टि आपके बड़े भाई-बड़ी बहन, चाचा और छोटी बुआ के लिए शुभ नहीं है। पिंडलियों की चोट से स्वयं को बचाएं। शनि की दशम शत्रु दृष्टि आपके द्वितीय भाव पर होने से आपके मुख और दाहिने नेत्र में कोई रोग उत्पन्न हो सकता है। यह दृष्टि आपके धन-कुटुम्ब के लिए भी अमंगलकारी है। भैरव सहित हनुमान जी की उपासना से शनि जनित पीड़ाओं का शमन होगा।

वृश्चिक राशि - वृश्चिक लग्न
शनि का आपके चतुर्थ भाव में संचार आपकी माता के स्वास्थ्य, उनकी आयु और मान-सम्मान, आपके भवन-भूमि-वाहन तथा आपके सेवकों आदि के लिए शुभ फल प्रदान करने वाला होगा। यदि आपकी जन्मकुंडली में चतुर्थ भाव-चतुर्थेश, द्वितीय भाव-द्वितीयेश और शनि शुभ स्थिति में हैं तो इस समय आप कोई चुनाव जीत सकते हैं, कोई बड़ी संपत्ति को प्राप्त कर सकते हैं किन्तु इसकी तृतीय नीच दृष्टि आपको शत्रुओं से पीड़ा अवश्य देगी तथा जन्मकुंडली में छ्ठे भाव से उत्पन्न रोगों में वृद्धि करवाएगी। किसी भी प्रकार का कर्ज लेने से आपको बचना चाहिए। यह समय आपके छोटे मामा-छोटी मौसी तथा आपके दादा की आयु के लिए अत्यन्त अमंगलकारी है। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपकी सास के लिए शुभ नहीं है। घुटनों की चोट से स्वयं को बचाएं। इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके लग्न में पड़ने से आपको अपने सिर की चोट व पीड़ा से भी बचाव करना होगा। हनुमान जी की उपासना करने, पीपल पर सरसों के तेल का दीपक जलाने व शनि के मंत्रों का जाप करने से शनि जनित कष्टों का निवारण होगा।

धनु राशि - धनु लग्न
शनि का आपके तृतीय भाव में संचार आपके छोटे भाई-बहनों के स्वास्थ्य और उनके मान सम्मान में तथा आपके पराक्रम में वृद्धि करवाने वाला होगा। इस अवधिकाल में आपको विदेश यात्राओं से लाभ प्राप्त होगा। इस राशि-लग्न का कोई जातक यदि बहुत समय से विदेश जाने के लिए प्रयासरत था तो अब वह जा सकेगा किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके पेट, हृदय, संतान, पढ़ाई आदि के लिए ठीक नहीं है। इस राशि-लग्न वाली गर्भवती स्त्रियों को विशेष सावधानी रखने की आवश्यकता है। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपके पिता के लिए अशुभ है। अपनी पीठ, कमर की चोट व पीड़ा का ध्यान रखें। शनि की दशम शत्रु दृष्टि आपकी दादी के स्वास्थ्य के लिए अशुभ है। यह आपको बाएं नेत्र, एड़ी व पंजों में कोई कष्ट दे सकती है। परिवार में किसी को चिकित्सा की आवश्यकता हो तो अपने खर्चे से करवा दें। संतान की सुरक्षा के लिए भगवान् विष्णु के मंत्रों का जाप करें तथा हनुमान जी की आराधना करें।

मकर राशि - मकर लग्न
शनि का आपके द्वितीय भाव में अपनी मूल त्रिकोण राशि में संचार आपके धन की वृद्धि करवाने वाला होगा। यदि आपका कोई पुराना धन किसी के पास रुका हुआ है तो उसके वापसी के योग बनेंगे। यदि दीर्घ काल से आप अपने कुटुम्ब से पृथक रहते हैं तो आपके अपने कुटुम्ब में वापसी के योग बनेंगे किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपकी माता, भवन-भूमि, वाहन, सेवक आदि के लिए अशुभ है। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपके ससुराल तथा पत्नी के मुख और इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके बड़े भाई-बहनों, चाचा और छोटी बुआ के लिए अमंगलकारी है। पैरों और छाती की चोट से स्वयं का बचाव करें। वाहन चलाने में भी सावधानी रखें। मिथ्या वचन बोलने से बचें तथा भवानी सहित भगवान् शंकर का पूजन करें।

कुम्भ राशि - कुम्भ लग्न
शनि का आपके लग्न में संचार करना आपकी आयु, स्वास्थ्य, मान-सम्मान के लिए अत्यन्त शुभ है। यदि दीर्घ काल से आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है तो अब उसमें सुधार देखने को मिलेंगे। आपके सिर के स्थान पर शनि के संचार करने के कारण आपके सिर में भारीपन रहने की समस्या बन सकती है। शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके छोटे भाई-बहनों के लिए अशुभ है। अपने हाथ की चोट व गले की समस्या से स्वयं का बचाव करें। इस अवधिकाल में आपको विदेश यात्रा करने से बचना चाहिए। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपके जीवन साथी के स्वास्थ्य और उनकी आयु पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले इसके लिए उनको उनका जीवन रत्न धारण करवाकर रखें। साथ ही योग्य वेदपाठी ब्राह्मणों से उनके लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप अनुष्ठान करवा लें। यह समय आपके ताऊ तथा बड़ी बुआ के लिए भी शुभ नहीं है। शनि की दशम शत्रु दृष्टि आपकी सास के लिए अमंगलकारी है। घुटनों की चोट से बचें। आपके पिता की धन हानि तथा उनके मुख में पीड़ा के योग बनेंगे।

मीन राशि - मीन लग्न
इस राशि-लग्न का कोई जातक यदि किसी अभियोग में कारावास में बन्दी है तो अब उसको उस अभियोग से मुक्ति मिलने के योग बन रहे हैं। यदि आप विदेश में प्रवास करने के लिए प्रयासरत थे तो आपको उसमें सफलता मिलेगी। आपके बड़े भाई-बहनों की आर्थिक उन्नति के लिए भी यह समय शुभ है किन्तु शनि की तृतीय नीच दृष्टि आपके धन की हानि अन्य स्थानों पर करवाती रहेगी तथा आपके नेत्रों और मुख में कोई कष्ट देगी। यह आपके कुटुम्ब में भी क्लेश-विवाद की स्थिति बनाए रखेगी। अपनी वाणी पर संयम रखें अन्यथा शत्रु प्रबल होंगे। शनि की सप्तम शत्रु दृष्टि आपके छ्ठे भाव पर पड़ने से आपके साथ कोई हिंसा अथवा दुर्घटना के योग बना रही है अतः सावधान रहें। इसकी दशम शत्रु दृष्टि आपके भाग्य व पिता के स्वास्थ्य के लिए अमंगलकारी है। शनि के अनिष्ट फलों को समाप्त करने के लिए हनुमान जी की आराधना करें, पीपल के वृक्ष पर जल चढ़ाएं व उसकी परिक्रमा करें, शनि के मंत्रों का जाप व उनके निमित्त दान करें, काले रंग के वस्त्रों को धारण करने से बचें।


नोट- शनि के कुम्भ राशि में संचार करने के इस अवधिकाल में शनि के साथ होने वाली विभिन्न ग्रहों की युति-दृष्टि से जातकों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव से इस फलादेश का कोई सम्बन्ध नहीं है और ना ही गोचर में होने वाले अन्य ग्रहों के राशि परिवर्तनों का। यहाँ केवल शनि के अपनी मूल त्रिकोण राशि 'कुम्भ' में होने के शुभाशुभ परिणामों का वर्णन किया जा रहा है। आगे यदि संभव हुआ तो मैं शनि के 'कुम्भ राशि' में संचार करने के इस अवधिकाल के अन्तर्गत् शनि के साथ होने वाले अन्य ग्रहों की युतियों के फलस्वरूप घटित होने वाले परिणामों के विषय में अलग से ब्लॉग बनाकर आप सभी को उसकी जानकारी उपलब्ध करवाने का प्रयास करूंगा।

इसके अतिरिक्त इन राशि-लग्नों में जन्म लेने वाले किसी जातक की स्वयं की जन्म-कुंडली में शनि यदि अपनी शत्रु राशि, नीच राशि अथवा किसी पाप या शत्रु ग्रह के प्रभाव में हुए और उनकी दशा-अंतर्दशा भी उनकी जन्मकुंडली में स्थित अशुभ ग्रहों की चल रही होगी, तो उन्हें इस फलादेश में बताए गए उत्तम फलों की प्राप्ति तो अल्पमात्रा में होगी किन्तु अशुभ फलों की प्राप्ति अधिक होगी। इसके विपरीत जिन जातकों की जन्म-कुंडली में शनि शुभ स्थानों के स्वामी होकर अपने मित्र या उच्च राशि में स्थित होकर शुभ प्रभाव में हुए तथा उनकी दशा-अंतर्दशा भी उनकी जन्मकुंडलियों में स्थित शुभ ग्रहों की चल रही होगी तो उनके लिये शनि यह राशि परिवर्तन अत्यन्त शुभ फल प्रदान करने वाला होगा।

'शिवार्पणमस्तु'
-Astrologer Manu Bhargava