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गुरुवार, 6 मार्च 2025

पिशाच योग (शनि-राहु युति २०२५)


शीघ्र ही गोचर में एक बहुत बड़ा दुर्योग बनने जा रहा है जिसके विषय में मैं बहुत समय पूर्व से संकेत करता आ रहा हूँ , ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसका नाम है—'पिशाच योग'।

२९ मार्च को शनि द्वारा राशि परिवर्तन कर लेने के साथ ही गोचर के अन्तर्गत 'मीन राशि' में शनि-राहु की युति बन जायेगी जो कि १७ मई तक रहेगी, १८ मई को राहु-केतु द्वारा राशि परिवर्तन करने के उपरान्त ही शनि-राहु की यह युति भंग हो सकेगी । ब्रह्माण्ड में होने जा रही अत्यन्त दुर्लभ यह घटना पिशाच योग को जन्म देगी ।

शनि-राहु जैसे दो पापी ग्रहों की युति किसी भी अवस्था में शुभ नहीं कही जा सकती । अपने जीवनकाल में अब तक मैंने जितनी भी जन्म-कुंडलियों में शनि-राहु की युति पाई है, उनमें उस जातक के लिए मैंने विशेष विध्वंसात्मक तत्वों की अधिकता ही देखी है, जिनका उल्लेख करके मैं इस ब्लॉग को पढ़ने वाले जनमानस के हृदयों में भय उत्पन्न नहीं करना चाहता ।

यद्यपि गोचर में दो अत्यन्त पृथकतावादी पाप ग्रहों की होने जा रही यह युति अनेक दुर्योगों को जन्म देने वाली सिद्ध होगी तथापि राहु द्वारा १६ मार्च को शनि के नक्षत्र (उत्तराभाद्रपद) से निकलकर, बृहस्पति के नक्षत्र (पूर्वाभाद्रपद) में संचार करने के कारण राहु के स्वभाव में ज्ञान तथा अध्यात्मिक भावना आ जाएगी, जिसके कारण वह धार्मिक जातकों की उतनी हानि नहीं कर सकेंगे जितनी कि शनि के साथ होने वाली इस युति के कारण कर सकते थे ।

यह सत्य है कि गोचर में शनि-राहु की युति होना कभी भी एक उत्तम योग नहीं होता किन्तु इस योग के बनने के समय राहु द्वारा बृहस्पति के नक्षत्र में संचार करने से यह समय तंत्र साधना के लिए अत्यन्त शुभ हो जाएगा ।

राहु गूढ़ रहस्यों-रहस्यमयी विद्याओं, शनि वैराग्य तथा बृहस्पति ज्ञान व अध्यात्म के कारक ग्रह होते हैं । ऐसे में राहु द्वारा बृहस्पति की राशि तथा बृहस्पति के ही नक्षत्र में शनि के साथ युति को प्राप्त हो जाने के कारण साधकों को ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की सहायता से रहस्यमयी सिद्धियां प्राप्त करने के लिए नई ऊर्जा प्राप्त होगी, जिसके कारण तन्त्र साधनाओं के लिए यह समयकाल अत्यन्त विलक्षण हो जाएगा । इस समय साधकों की सुषुम्ना नाड़ी भी अधिक समय तक जाग्रत रहेगी, जिसके कारण उन्हें सिद्धियां प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगेगा ।

यदि इस युति के परिणाम से उत्पन्न दुर्योगों की बात करें तो—सभी जातकों की जन्मकुंडली में शनि जिन-जिन भावों के स्वामी और कारक होंगे, उनसे सम्बन्धित पदार्थों को राहु हानि पहुंचाएंगे तथा शनि की छाया लिए हुए राहु जहां-जहां दृष्टि डालेंगे, वहां-वहां वह दृष्टियां भी विशेष अनिष्टकारी हो जायेंगी (शनि की छाया ग्रहण कर लेने के प्रभाव से) ।

अतः बुद्धिमान मनुष्यों को इस अवधिकाल में राहु के निमित्त जो दान शास्त्रों में बताए गए हैं, शनिवार के दिन (शनि की होरा में ) उन दानों को करना चाहिए तथा नील वर्ण के वस्त्रों को धारण करने से, तम्बाकू से बने उत्पादों का सेवन करने से व अधिक पुरानी काष्ठ को अपने समीप रखने से बचना चाहिए ।

राहु, भगवती दुर्गा के परम् भक्त होते हैं इसलिए स्मार्त्त अथवा शाक्त परम्परा से दीक्षित योग्य ब्राह्मण गुरु द्वारा प्राप्त भगवती के मंत्र' का जप करने से राहु अपने नकारात्मक प्रभाव को समाप्त कर देते हैं ।

इसके अतिरिक्त जो जातक अदीक्षित हैं वह बिना प्रणव (ॐ) का उच्चारण किए देवी के विभिन्न स्त्रोतों का पाठ कर सकते हैं ।

जो जातक किसी कारणवश यह भी नहीं कर सकते वह किसी 'जाग्रत देवालय' में जाकर भगवती को नारियल व श्रृंगार की वस्तुएं भेंट करके उनसे अपने कल्याण की प्रार्थना कर सकते हैं ।

गोचर में लगभग ५० दिन के लिए बनने जा रहे शनि-राहु योग के इस अवधिकाल में भगवती की योगिनी शक्ति, शनि-राहु की सहायता से विश्व भर में भूकंप, सुनामी, चक्रवात लाकर अनेक प्राणियों को विदीर्ण करेगी । अतः लगभग ५० दिनों का यह समयकाल मौसम वैज्ञानिकों के लिए बहुत चुनौतियों से भरा हुआ रहने वाला है । इसके अतिरिक्त मार्च के महीने में पड़ने वाले चंद्रग्रहण व सूर्यग्रहण, भचक्र में एक नवीन प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का निर्माण कर देंगे, जिसके कारण यह ५० दिन विश्व भर में प्राकृतिक आपदाओं तथा दुर्घटनाओं के लिए और भी अधिक घातक हो जाएंगे ।

इधर नीच राशि में स्थित मंगल भी दुर्घटनाओं तथा अग्निकांडों की ओर संकेत कर रहा है ।  १४ मार्च को पड़ने जा रहे चंद्रग्रहण के एक दिन पूर्व से ही विश्वभर के भूगर्भ वैज्ञानिकों के लिए चुनौतियां आरम्भ हो जायेंगी, जिनका निर्वाहन करने का समय भी उनको प्राप्त न हो सकेगा । विद्वान मनुष्यों को बड़े भूकंपों से सावधान रहने की आवश्यकता है ।

यदि और अधिक सरल शब्दों में कहूं तो शनि-राहु की युति के इस अवधिकाल को ईश्वर की शरण में रहकर शान्ति के साथ निकालने की आवश्यकता है क्योंकि मीन राशि में होने जा रही इस युति के कारण अब तक वहां संचार कर रहे उच्च के शुक्र भी अपनी शुभता को खो देंगे तथा वह विभिन्न जातकों के जिस-जिस भाव के स्वामी व कारक होंगे वहां से सम्बन्धित पदार्थों की हानि करने लगेंगे ।

नोट— 

[ ] शनि के राशि परिवर्तन कर लेने के साथ ही कुछ जातकों की ढैया-साढ़े साती समाप्त, तो कुछ की आरम्भ होगी किन्तु यह इस ब्लॉग का विषय न होने से इस विषय में यहां जानकारी नहीं दे रहा हूँ । यदि संभव हुआ तो उसके लिए अलग से एक ब्लॉग लिख दूंगा । 


[ ] ज्योतिष शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले विद्वान मनुष्यों को २९ मार्च से लेकर १८ मई तक अपने बच्चों की डिलीवरी करवाने से बचना चाहिए । यदि संभव हो सके तो २९ मार्च से पूर्व (शनि-राहु युति बनने से पूर्व) अथवा ६ जून के पश्चात् (मंगल के नीच राशि में संचार करने के कारण) ही बच्चों की डिलीवरी हो अन्यथा उनकी जन्म-कुंडली में जीवनभर के लिए शनि-राहु की युति तथा नीच राशि के मंगल की स्थिति बन जाएगी, जो कि बहुत कष्टकारी सिद्ध होगी । 

"शिवार्पणमस्तु"

—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

Pralay Ka Varnana प्रलय का वर्णन



पवित्र महाभारत ग्रन्थ के 'शांतिपर्व' के अन्तर्गत 'मोक्षधर्मपर्व' में वर्णन किया गया है कि 'भगवान् शंकर', किस प्रकार से 'प्रलयरुद्र' बनकर सृष्टि का संहार कर देते हैं। 
भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये मैं 'संहारक क्रम' बताने जा रहा हूँ।

याज्ञवल्क्य उवाच
यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः।
अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च।।
याज्ञवल्क्य जी बोले
राजन् ! आदि और अंत से रहित नित्य अक्षरस्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियों की सृष्टि और संहार करते हैं यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो।

अहः क्षयमथो बुद्ध्वा निशि स्वप्नमनास्तथा।
चोदयामास भगवानव्यक्तोSहंकृतं नरम्।।
भगवान् ब्रह्मा जी जब देखते हैं कि मेरे दिन का अंत हो गया है तब उनके मन में रात को शयन करने की इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकार के अभिमानी देवता रुद्र को संहार करने के लिये प्रेरित करते हैं।

ततः शतसहस्त्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः।
कृत्वा द्वादशधाSSत्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत्।।
उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजी से प्रेरित होकर प्रचंड सूर्य का रूप धारण करते हैं और अपने को बारह रूपों में अभिव्यक्त करके अग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो उठते हैं।

चतुर्विधं महीपाल निर्दहत्याशु तेजसा।
जरायुजाण्डजस्वेदजोदिभज्जं च नराधिप।।
भूपाल ! नरेश्वर ! फिर वे अपने तेज से "जरायुज,अण्डज,स्वेदज और उदिभज्ज" इन चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुये सम्पूर्ण जगत् को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं।

एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणु जङ्गमम्।
कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः।।
पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत् का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओर से कछुए की पीठ की तरह प्रतीत होने लगती है।

जगद्  दग्ध्वामितबलः केवलां जगतीं ततः।
अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः।।
जगत् को दग्ध करने के बाद अमित बलवान् रुद्रदेव इस अकेली बची हुई सम्पूर्ण पृथ्वी को शीघ्र ही जल के महान प्रवाह में डुबो देते हैं।

ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम्।
विनष्टेSम्भसि राजेन्द्र जाज्वलत्यनलो महान्।।
तदन्तर कालाग्नि की लपट में पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र ! जल के नष्ट हो जाने पर अग्नि भयानक रूप धारण करती है और सब ओर से बड़े जोर से प्रज्ज्वलित होने लगती है।

तमप्रमेयोSतिबलं ज्वलमानं विभावसुम्।
ऊष्माणम् सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा।।
भक्षयामास भगवान् वायुरष्टात्मको बली।
विचरन्नमितप्राणस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।।
सम्पूर्ण भूतों को गर्मी पहुंचाने वाली तथा अत्यंत प्रबल वेग से जलती हुई उस सात ज्वालाओं से युक्त आग को बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपों में प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर नीचे तथा बीच में सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं।

तमप्रतिबलं भीममाकाशं ग्रसतेSSत्मना।
आकाशमप्यभिनदन्मनो ग्रसति चाधिकम्।।
तदन्तर आकाश उस अत्यंत प्रबल एवं भयंकर वायु को स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करने वाले उस आकाश को उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है।

मनो ग्रसति भूतात्मा सोSहंकारः प्रजापतिः।
अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित्।।
क्रमशः भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मन को अपने में लीन कर लेता है। तत्पश्चात भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्व अहंकार को अपना ग्रास बना लेता है।

तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भु: प्रजापति:।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्यय:।।
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोSक्षिशिरोमुखः।
सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
हृदयं सर्वभूतानां पर्वणाड्गुष्ठमात्रक:।
अथ ग्रसत्यनन्तो हि महात्मा विश्वमीश्वरः।।
इसके बाद, जिनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र , मस्तक और मुख हैं , सब ओर कान हैं तथा जो जगत् में सबको व्याप्त करके स्तिथ हैं, जो सम्पूर्ण भूतों के हृदय में अँगुष्ठ पर्व के बराबर आकर धारण करके विराजमान हैं। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता ज्योतिःस्वरूप , अविनाशी, कल्याणमय, प्रजा के स्वामी , अनन्त, महान और सर्वेश्वर हैं , वे परब्रह्म परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत्व को अपने में लीन कर लेते हैं।

ततः समभवत्  सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम्।
भूतभव्यभविष्याणाम् स्त्रष्टारमनघम् तथा।।
तदन्तर ह्रास और वृद्धि से रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्म ही शेष रह जाता है उसी ने भूत, भविष्य और वर्तमान की सृष्टि करने वाले निष्पाप ब्रह्मा की भी सृष्टि की है।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 24 जुलाई 2019

भगवान शिव और श्री हरि विष्णु एक ही हैं


अहंकार, द्वेष, लोभ एवं स्वार्थ के वशीभूत होकर सनातन धर्म में कुछ 'सम्प्रदाय' केवल भगवान विष्णु की ही महिमा का गुणगान करते हैं। यहां तक तो बात ठीक है परंतु दुःख तब होता है जब उनके यहां भगवान शिव को तुच्छ देवता कहकर उनका अपमान किया जाता है, इस विषय मे वैदिक ज्योतिष का क्या मत है, आइये देखते हैं।

वैदिक ज्योतिष के महानतम ग्रंथ 'बृहत पाराशर होरा शास्त्रम' में त्रिकालज्ञ (तीनों कालों को जानने वाले) पाराशर ऋषि , मैत्रेय ऋषि से भगवान के तीनों स्वरूपों का वर्णन कुछ इस प्रकार से करते हैं-
श्रीशक्त्या सहितो विष्णु: सदा पाति जगत्त्रयम।
भूशक्त्या सृजते ब्रह्मा नीलशक्त्या शिवोSत्ति हि।।
अर्थात-
पूर्वोक्त वासुदेव श्री शक्ति के सहित विष्णुस्वरूप होकर तीनों भुवनों का पालन करते हैं, भूशक्ति से युक्त होकर ब्रह्मस्वरूप बनकर सृष्टी करते हैं तथा नील शक्ति से युक्त होकर शिव स्वरूप बनकर संहार करते हैं।)

इस श्लोक के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि पालन करते समय भगवान की जो शक्ति 'विष्णु' नाम से जानी जाती है संहार करते समय वही शक्ति 'शिव' कहलाती है, ऐसे में शिव का अपमान करके वह सभी क्या भगवान विष्णु का अपमान नहीं कर रहे हैं?

रुद्रहृदय उपनिषद में कहा गया है —
येनमस्यन्तिगोविन्दंतेनमस्यन्ति_शंकरम् ।
येऽर्चयन्तिहरिंभक्त्यातेऽर्चयन्तिवृषध्वजम् ॥5॥
अर्थात-
जो गोविंद को नमस्कार करते हैं ,वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं । जो लोग भक्ति से विष्णु की पूजा करते हैं, वे वृषभ ध्वज भगवान् शंकर की पूजा करते हैं ।

यद्विषन्तिविरूपाक्षंतेद्विषन्ति_जनार्दनम् ।
येरुद्रंनाभिजानन्तितेनजानन्तिकेशवम् ॥6॥
अर्थात-
जो लोग भगवान विरुपाक्ष त्रिनेत्र शंकर से द्वेष करते हैं, वे जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। जो लोग रूद्र को नहीं जानते ,वे लोग भगवान केशव को भी नहीं जानते।

सत्यता यह है कि भक्तिकाल में मुगल आक्रांताओं से किसी भी तरह से धर्म को बचाये रखने के लिए विद्वानों ने जब वैदिक मार्ग छोड़कर भक्तिमार्ग का आश्रय लिया तब वहीं से यह सब विकृतियां उत्पन्न हुईं क्योंकि उससे पूर्व जितना भी ज्ञान हुआ करता था उसके पीछे शास्त्रों का आधार हुआ करता था।

अतः मुगल काल के पश्चात सनातन धर्म में कुकुरमुत्तों की भांति जितने भी पंथ, सम्प्रदाय उग आये हैं (जिनमे वेदों की आड़ लेकर मूर्ति पूजा को पाखंड बताकर सनातन धर्म पर आघात करने वाले सम्प्रदाय भी सम्मलित हैं )उन सभी का विसर्जन करके उसके स्थान पर पुनः वैदिक शिक्षा की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है नहीं तो यह लोग अपने अनुयायियों को ऐसे ही मूर्ख बनाकर अपनी दुकानें चलाते रहेंगे।

''शिवार्पणमस्तु"

- Astrologer Manu Bhargava