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शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

महाशिवरात्रि का रहस्य


मानव दृष्टि और चेतना जिस-जिस स्थान तक जाती है मनुष्य वहीं-वहीं तक देख सकता है, समझ सकता है किन्तु अध्यात्म विद्या को जानने वाले मनुष्य, साधारण मनुष्यों की दृष्टि और चेतना से भी परे देख व समझ सकते हैं । साधारण मनुष्य जो देख व समझ नहीं पाता वह उसको नहीं मानता किन्तु जिसे वह देख नहीं पाता, समझ नहीं पाता, यह आवश्यक तो नहीं कि वह पदार्थ अथवा तत्व इस जगत में है ही नहीं ?


इसी प्रकार ईश्वरीय तत्व परमाणु स्वरूप में प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है, केवल आवश्कता होती है उसे जाग्रत करने की ।

तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र की सहायता से उस ईश्वरीय तत्व को जाग्रत करके आत्मसात किया जाता है जिससे उसकी ऊर्जा से अपने तथा अन्य व्यक्तियों के जीवन की नकारात्मकता को दूर किया जा सके। इसके लिए प्राचीन ग्रंथो में कुछ सिद्ध रात्रियां बताई गई हैं जिनमें से 'महाशिवरात्रि' प्रमुख है ।

यह वह समय काल होता है जब ब्रह्माण्ड की दो महाशक्तियां  (Super Natural Powers) जिनमें से एक भगवान् शंकर और दूसरी महाकाली का मिलन होता है और इन दोनों शक्तियों का यह मिलन एक महाशक्तिशाली ऊर्जा का निर्माण करता है ।

महाशिवरात्रि के समय इन दोनों महान शक्तियों के एक हो जाने से ब्रह्माण्ड में चारों ओर अदृश्य रूप से जिस महाशक्तिशाली ऊर्जा का निर्माण होता है इसको साधारण साधक अनुभव कर सकता है और उच्च कोटि का साधक देख व अनुभव दोनों कर सकता है ।

यह ऊर्जा कल्याणकारी तथा प्रयलंकारी दोनों ही प्रकार की होती हैं, निर्भर यह करता है कि साधक किस ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करके उसे आत्मसात कर रहा है ।

जहां एक ओर दक्षिणमार्गी साधक शिव-शक्ति के मिलन से उत्पन्न हुई इस रहस्यमयी ऊर्जा में से सात्विक और कल्याणकारी तत्व को ग्रहण करते हैं वहीं दूसरी ओर कापालिक, अघोरी और वाममार्गी साधक इस महान ऊर्जा से उत्पन्न इसके प्रलयंकारी तत्व को ग्रहण करते हैं ।

विश्व के सभी सात्विक तत्वों को भगवान् विष्णु द्वारा ग्रहण कर लेने के पश्चात् कहीं तामसी ऊर्जाएं अनियंत्रित न हो जाए इस कारण से भगवान् शंकर और देवी महाकाली ने उनको अपने अधीन कर लिया l हलाहल विष और कुछ नहीं ब्रह्माण्ड में व्याप्त ऐसा भयानक विनाशकारी परमाणु विकिरण (Nuclear Radiation) था जिसके संपर्क में आने से कोई भी सुरक्षित नहीं रह सकता था इसी कारण से भगवान् शंकर ने उसे ग्रहण कर लिया। ब्रह्माण्ड की उस अद्भुत घटना के वैज्ञानिक रहस्यों पर किसी अन्य ब्लॉग में चर्चा करूंगा अभी पुनः अपने विषय पर आते हैं ।

वस्तुतः महाशिवरात्रि केवल एक पर्व नहीं, साधना के माध्यम से अपनी अंतः चेतना को नवीन आयाम देने के लिए ईश्वर के द्वारा हमें दिया गया एक सिद्ध मुहूर्त है जिसके माध्यम से हम जन्मजन्मांतरों तक के लिए भगवान् शंकर और माता भवानी की भक्ति और उनका संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए आवश्कता है इस साधना के रहस्य को जानकर अपनी आत्मा के स्तर से इस साधना को करने की क्योंकि प्रत्येक जन्म में हमारे साथ हमारा शरीर नहीं आत्मा जाती है। अतः साधनाओं को शरीर के स्तर पर न करके आत्मिक स्तर पर करना चाहिए, शरीर तो केवल माध्यम मात्र होना चाहिए किसी भी साधना को करने के लिए ।

साधक साधना करते समय अपने स्थूल (देह) और सूक्ष्म (मन) शरीरों के प्रति मोह, अनुराग और प्रीति को त्यागकर जब अपने कारण शरीर (आत्मा) से मंत्र जाप करता है तो वह निश्चित् ही अपने इष्ट का सानिध्य और उनकी शक्तियों का कुछ अंश प्राप्त कर लेता है। अतः साधकों को आत्मा के स्तर से मंत्र जाप करना चाहिए । यह एक अत्यन्त गुप्त रहस्य है जिसको केवल गुरु कृपा अथवा पूर्वजन्म की साधनाओं के इस जन्म में प्रकट होने पर ही जाना जा सकता है ।

इस विषय को अब और अधिक विस्तार न देते हुए अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ मेरे इस ब्लॉग की गहनता को समझते हुए इससे प्रेरणा लेकर साधक गण अनन्त काल तक केवल महाशिवरात्रि ही नहीं अपितु विभिन्न सिद्ध रात्रियों में अपने 'अधिकार की सीमा में आने वाले मन्त्रों' का जाप करके भगवान् की शरणागति प्राप्त करते रहेंगे जिससे मेरी आत्मा का मनुष्य रूप में जन्म लेने का उद्देश्य भी सार्थक सिद्ध होगा।

”शिवार्पणमस्तु”

—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

Pralay Ka Varnana प्रलय का वर्णन



पवित्र महाभारत ग्रन्थ के 'शांतिपर्व' के अन्तर्गत 'मोक्षधर्मपर्व' में वर्णन किया गया है कि 'भगवान् शंकर', किस प्रकार से 'प्रलयरुद्र' बनकर सृष्टि का संहार कर देते हैं। 
भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये मैं 'संहारक क्रम' बताने जा रहा हूँ।

याज्ञवल्क्य उवाच
यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः।
अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च।।
याज्ञवल्क्य जी बोले
राजन् ! आदि और अंत से रहित नित्य अक्षरस्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियों की सृष्टि और संहार करते हैं यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो।

अहः क्षयमथो बुद्ध्वा निशि स्वप्नमनास्तथा।
चोदयामास भगवानव्यक्तोSहंकृतं नरम्।।
भगवान् ब्रह्मा जी जब देखते हैं कि मेरे दिन का अंत हो गया है तब उनके मन में रात को शयन करने की इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकार के अभिमानी देवता रुद्र को संहार करने के लिये प्रेरित करते हैं।

ततः शतसहस्त्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः।
कृत्वा द्वादशधाSSत्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत्।।
उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजी से प्रेरित होकर प्रचंड सूर्य का रूप धारण करते हैं और अपने को बारह रूपों में अभिव्यक्त करके अग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो उठते हैं।

चतुर्विधं महीपाल निर्दहत्याशु तेजसा।
जरायुजाण्डजस्वेदजोदिभज्जं च नराधिप।।
भूपाल ! नरेश्वर ! फिर वे अपने तेज से "जरायुज,अण्डज,स्वेदज और उदिभज्ज" इन चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुये सम्पूर्ण जगत् को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं।

एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणु जङ्गमम्।
कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः।।
पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत् का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओर से कछुए की पीठ की तरह प्रतीत होने लगती है।

जगद्  दग्ध्वामितबलः केवलां जगतीं ततः।
अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः।।
जगत् को दग्ध करने के बाद अमित बलवान् रुद्रदेव इस अकेली बची हुई सम्पूर्ण पृथ्वी को शीघ्र ही जल के महान प्रवाह में डुबो देते हैं।

ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम्।
विनष्टेSम्भसि राजेन्द्र जाज्वलत्यनलो महान्।।
तदन्तर कालाग्नि की लपट में पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र ! जल के नष्ट हो जाने पर अग्नि भयानक रूप धारण करती है और सब ओर से बड़े जोर से प्रज्ज्वलित होने लगती है।

तमप्रमेयोSतिबलं ज्वलमानं विभावसुम्।
ऊष्माणम् सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा।।
भक्षयामास भगवान् वायुरष्टात्मको बली।
विचरन्नमितप्राणस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।।
सम्पूर्ण भूतों को गर्मी पहुंचाने वाली तथा अत्यंत प्रबल वेग से जलती हुई उस सात ज्वालाओं से युक्त आग को बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपों में प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर नीचे तथा बीच में सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं।

तमप्रतिबलं भीममाकाशं ग्रसतेSSत्मना।
आकाशमप्यभिनदन्मनो ग्रसति चाधिकम्।।
तदन्तर आकाश उस अत्यंत प्रबल एवं भयंकर वायु को स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करने वाले उस आकाश को उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है।

मनो ग्रसति भूतात्मा सोSहंकारः प्रजापतिः।
अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित्।।
क्रमशः भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मन को अपने में लीन कर लेता है। तत्पश्चात भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्व अहंकार को अपना ग्रास बना लेता है।

तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भु: प्रजापति:।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्यय:।।
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोSक्षिशिरोमुखः।
सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
हृदयं सर्वभूतानां पर्वणाड्गुष्ठमात्रक:।
अथ ग्रसत्यनन्तो हि महात्मा विश्वमीश्वरः।।
इसके बाद, जिनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र , मस्तक और मुख हैं , सब ओर कान हैं तथा जो जगत् में सबको व्याप्त करके स्तिथ हैं, जो सम्पूर्ण भूतों के हृदय में अँगुष्ठ पर्व के बराबर आकर धारण करके विराजमान हैं। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता ज्योतिःस्वरूप , अविनाशी, कल्याणमय, प्रजा के स्वामी , अनन्त, महान और सर्वेश्वर हैं , वे परब्रह्म परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत्व को अपने में लीन कर लेते हैं।

ततः समभवत्  सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम्।
भूतभव्यभविष्याणाम् स्त्रष्टारमनघम् तथा।।
तदन्तर ह्रास और वृद्धि से रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्म ही शेष रह जाता है उसी ने भूत, भविष्य और वर्तमान की सृष्टि करने वाले निष्पाप ब्रह्मा की भी सृष्टि की है।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 24 जुलाई 2019

भगवान शिव और श्री हरि विष्णु एक ही हैं


अहंकार, द्वेष, लोभ एवं स्वार्थ के वशीभूत होकर सनातन धर्म में कुछ 'सम्प्रदाय' केवल भगवान विष्णु की ही महिमा का गुणगान करते हैं। यहां तक तो बात ठीक है परंतु दुःख तब होता है जब उनके यहां भगवान शिव को तुच्छ देवता कहकर उनका अपमान किया जाता है, इस विषय मे वैदिक ज्योतिष का क्या मत है, आइये देखते हैं।

वैदिक ज्योतिष के महानतम ग्रंथ 'बृहत पाराशर होरा शास्त्रम' में त्रिकालज्ञ (तीनों कालों को जानने वाले) पाराशर ऋषि , मैत्रेय ऋषि से भगवान के तीनों स्वरूपों का वर्णन कुछ इस प्रकार से करते हैं-
श्रीशक्त्या सहितो विष्णु: सदा पाति जगत्त्रयम।
भूशक्त्या सृजते ब्रह्मा नीलशक्त्या शिवोSत्ति हि।।
अर्थात-
पूर्वोक्त वासुदेव श्री शक्ति के सहित विष्णुस्वरूप होकर तीनों भुवनों का पालन करते हैं, भूशक्ति से युक्त होकर ब्रह्मस्वरूप बनकर सृष्टी करते हैं तथा नील शक्ति से युक्त होकर शिव स्वरूप बनकर संहार करते हैं।)

इस श्लोक के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि पालन करते समय भगवान की जो शक्ति 'विष्णु' नाम से जानी जाती है संहार करते समय वही शक्ति 'शिव' कहलाती है, ऐसे में शिव का अपमान करके वह सभी क्या भगवान विष्णु का अपमान नहीं कर रहे हैं?

रुद्रहृदय उपनिषद में कहा गया है —
येनमस्यन्तिगोविन्दंतेनमस्यन्ति_शंकरम् ।
येऽर्चयन्तिहरिंभक्त्यातेऽर्चयन्तिवृषध्वजम् ॥5॥
अर्थात-
जो गोविंद को नमस्कार करते हैं ,वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं । जो लोग भक्ति से विष्णु की पूजा करते हैं, वे वृषभ ध्वज भगवान् शंकर की पूजा करते हैं ।

यद्विषन्तिविरूपाक्षंतेद्विषन्ति_जनार्दनम् ।
येरुद्रंनाभिजानन्तितेनजानन्तिकेशवम् ॥6॥
अर्थात-
जो लोग भगवान विरुपाक्ष त्रिनेत्र शंकर से द्वेष करते हैं, वे जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। जो लोग रूद्र को नहीं जानते ,वे लोग भगवान केशव को भी नहीं जानते।

सत्यता यह है कि भक्तिकाल में मुगल आक्रांताओं से किसी भी तरह से धर्म को बचाये रखने के लिए विद्वानों ने जब वैदिक मार्ग छोड़कर भक्तिमार्ग का आश्रय लिया तब वहीं से यह सब विकृतियां उत्पन्न हुईं क्योंकि उससे पूर्व जितना भी ज्ञान हुआ करता था उसके पीछे शास्त्रों का आधार हुआ करता था।

अतः मुगल काल के पश्चात सनातन धर्म में कुकुरमुत्तों की भांति जितने भी पंथ, सम्प्रदाय उग आये हैं (जिनमे वेदों की आड़ लेकर मूर्ति पूजा को पाखंड बताकर सनातन धर्म पर आघात करने वाले सम्प्रदाय भी सम्मलित हैं )उन सभी का विसर्जन करके उसके स्थान पर पुनः वैदिक शिक्षा की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है नहीं तो यह लोग अपने अनुयायियों को ऐसे ही मूर्ख बनाकर अपनी दुकानें चलाते रहेंगे।

''शिवार्पणमस्तु"

- Astrologer Manu Bhargava