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मंगलवार, 4 मई 2021

जब भगवान् श्रीकृष्ण ने तोड़ी अपनी प्रतिज्ञा

महाभारत के युद्ध में एक ऐसा क्षण भी आया था जब स्वयं भगवान् श्री कृष्ण को भी धर्म की रक्षा के लिए, इस युद्ध में शस्त्र न उठाने की अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ी थी। भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों को प्रणाम करते हुए मैं, पवित्र महाभारत ग्रन्थ के "भीष्म पर्व" में वर्णित इस अद्भुत प्रसंग का वर्णन करने जा रहा हूँ_


महाभारत के युद्ध का तीसरे दिन था, आज पितामह भीष्म पांडव सेना के लिए साक्षात काल बन चुके थे, उनके पराक्रम से पांडव सेना त्राहि-त्राहि कर रही थी और अर्जुन पितामह के प्रेम के मोहपाश में बंधकर उनकी ओर अपने भयानक बाण नहीं चला रहे थे। महाधनुर्धर "सात्यकि" ही एक ऐसे थे जो पितामह के बाणों से बचने के लिए इधर-उधर भाग रही पांडव सेना को एकजुट करने में लगे थे, ऐसे में धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर जन्म लेने वाले योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण का धैर्य टूट गया और उन्होंने क्रोध में भरकर कहा_

 ये यान्ति ते यान्तु शिनिप्रवीर येऽपि स्थिताः सात्वत तेऽपि यान्तु। भीष्मं रथात् पश्य निपात्यमानं द्रोणं च सङ्ख्ये सगणं  मयाऽद्य।।
शिनिवंश के प्रमुख वीर ! सात्वत रत्न ! जो भाग रहे हैं, वे भाग जाएँ।  जो खड़े हैं, वह भी चले जाएँ। तुम देखो, मैं अभी इस संग्राम भूमि में सहायकगणों के साथ भीष्म और द्रोण को रथ से मार गिराता हूँ।

 

न मे रथी सात्वत कौरवाणां क्रुद्धस्य मुच्येत रणेऽद्य कश्चित्। तस्मादहं गृह्य रथाङ्गमुग्रं प्राणं हरिष्यामि महाव्रतस्य।।

सात्वत वीर ! आज कौरव सेना का कोई भी रथी क्रोध में भरे हुए मुझ कृष्ण के हाथों जीवित नहीं छूट सकता । मैं अपना भयानक चक्र लेकर महान् व्रतधारी भीष्म के प्राण हर लूंगा।

 

निहत्य भीष्मं सगणं  तथाऽऽजौ द्रोणं च शैनेय रथप्रवीरौ। प्रीतिं करिष्यामि धनंजयस्य राज्ञश्च भीमस्य  तथाश्विनोश्च।।

सात्यके ! सहायकगणों सहित भीष्म और द्रोण, इन दोनों वीर महारथियों को युद्ध में मारकर मैं अर्जुन, राजा युधिष्ठिर, भीमसेन तथा नकुल-सहदेव को प्रसन्न करूँगा।

 

निहत्य सर्वान्धृतराष्ट्रपुत्रां- स्तत्पक्षिणो ये च नरेन्द्रमुख्याः। राज्येन राजानमजातशत्रुं संपादयिष्याम्यहमद्य  हृष्टः॥ 

धृतराष्ट्र के सभी पुत्रों तथा उसके पक्ष में आये हुए सभी श्रेष्ठ नरेशों को मारकर मैं प्रसन्नतापूर्वक आज अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर को राज्य से सम्पन्न कर दूंगा।

 

इतीदमुक्त्वा स महानुभावः सस्मार चक्रं निशितं पुराणम्। सुदर्शनं चिन्तितमात्रमेव तस्याग्रहस्तं स्वयमारुरोह॥

ऐसा कहकर महानुभाव श्रीकृष्ण ने अपने पुरातन एवं तीक्ष्ण आयुध सुदर्शन चक्र का स्मरण किया।  उनके चिंतन मात्रा करने से ही वह स्वयं उनके हाथ के अग्रभाग में प्रस्तुत हो गया।


तमात्तचक्रं  प्रणदन्तमुच्चैः क्रुद्धं  महेन्द्रावरजं समीक्ष्य।सर्वाणि भूतानि भृशं विनेदुः क्षयं कुरूणामिव चिन्तयित्वा।।

महेंद्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण कुपित हो हाथ में चक्र उठाये बड़े जोर से गरज रहे थे। उन्हें उस रूप में देखकर कौरवों के संहार का विचार करके सभी प्राणी हाहाकार करने लगे।

 

स  वासुदेवः प्रगृहीतचक्रः संवर्तयिष्यन्निव सर्वलोकम्। अभ्युत्पतँल्लोकगुरुर्बभासे भूतानि धक्ष्यन्निव धूमकेतुः॥

वे जगद्गुरु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हाथ में चक्र ले मानो सम्पूर्ण जगत का संहार करने के लिए उद्यत थे और समस्त प्राणियों को जलाकर भस्म कर डालने के लिए उठी हुई प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे।

 

तमाद्रवन्तं प्रगृहीतचक्रं दृष्ट्वा देवं शान्तनवस्तदानीम्। असंभ्रमं तद्विचकर्ष दोर्भ्यां महाधनुर्गाण्डिवतुल्यघोषम्।।

भगवान् को चक्र लिए अपनी ओर वेगपूर्वक आते देख शान्तनुनन्दन भीष्म उस समय तनिक भी भय अथवा घबराहट का अनुभव न करते हुए दोनों हाथों से गांडीव धनुष के समान गंभीर घोष करने वाले अपने महान धनुष को खींचने लगे। 


उवाच भीष्मस्तमनन्तपौरुषं गोविन्दमाजावविमूढचेताः ॥ एह्येहि देवेश जगन्निवास नमोस्तु ते माधव चक्रपाणे। प्रसह्य मां पातय लोकनाथ रथोत्तमात्सर्वशरण्य सङ्ख्ये ॥

उस समय युद्ध स्थल में भीष्म के चित्त में तनिक भी मोह नहीं था।  वे अनन्त पुरुषार्थशाली भगवान् श्रीकृष्ण का आवाहन करते हुए बोले- आइये-आइये देवेश्वर ! आपको नमस्कार है।  हाथ में चक्र लिए आये हुए माधव ! सबको शरण देने वाले लोकनाथ ! आज युद्धभूमि में बलपूर्वक इस उत्तम रथ से मुझे मार गिराइये। 

त्वया हतस्यापि ममाऽद्य कृष्ण श्रेयः परिस्मिन्निह चैव लोके। संभावितोऽस्म्यन्धकवृष्णिनाथ लोकैस्त्रिभिर्वीर तवाभियानात् ॥

श्रीकृष्ण ! आज आपके हाथ से यदि मैं मारा जाऊँगा तो इहलोक और परलोक में भी मेरा कल्याण होगा। अन्धक और वृष्णिकुल की रक्षा करने वाले वीर ! आपके इस आक्रमण से तीनों लोकों में मेरा गौरव बढ़ गया है। 

 

रथादवप्लुत्य ततस्त्वरावान् पार्थोऽप्यनुद्रुत्य यदुप्रवीरम्। जग्राह पीनोत्तमलम्बबाहुं बाह्वोर्हरिं व्यायतपीनबाहुः॥

मोटी, लम्बी और उत्तम भुजाओं वाले यदुकुल के श्रेष्ठ वीर भगवान् श्रीकृष्ण को आगे बढ़ते देख अर्जुन भी बड़ी उतावली के साथ रथ से कूदकर उनके पीछे दौड़े और निकट जाकर भगवान् की दोनों बाहें पकड़ लीं। अर्जुन की भुजाएं भी मोटी और विशाल थीं।

 

निगृह्यमणाश्च तदाऽऽदिदेवो भृशं सरोषः किल चात्मयोगी । आदाय वेगेन जगाम विष्णु- र्जिष्णुं महावात इवैकवृक्षम् ॥ 

आदिदेव आत्मयोगी भगवान् श्रीकृष्ण बहुत रोष में भरे हुए थे।  वे अर्जुन के पकड़ने से भी रुक न सके। जैसे आंधी किसी वृक्ष को खींचे लिए जाये, उसी प्रकार वे भगवान् विष्णु (कृष्ण), अर्जुन को लिए हुए ही बड़े वेग से आगे बढ़ने लगे।

पार्थस्तु विष्टभ्य बलेन पादौ भीष्मान्तिकं तूर्णमभिद्रवन्तम्। बलान्निजग्राह हरिं किरीटी पदेऽथ राजन् दशमे कथंचित् ॥

राजन ! तब किरीटधारी अर्जुन ने भीष्म के निकट बड़े वेग से जाते हुए श्रीहरि के चरणों को बलपूर्वक पकड़ लिया और किसी प्रकार दसवें कदम पर पहुंचते-पहुंचते उन्हें रोका।

 

अवस्थितं च प्रणिपत्य कृष्णं प्रीतोऽर्जुनः काञ्चनचित्रमाली। उवाच कोपं प्रतिसंहरेति गतिर्भवान् केशव पाण्डवानाम् ॥

जब श्रीकृष्ण भगवान् खड़े हो गये, तब सुवर्ण का विचित्र हार पहने हुए अर्जुन ने अत्यन्त प्रसन्न हो उनके चरणों में प्रणाम करते हुए कहा- केशव ! आप अपना क्रोध रोकिये। प्रभो ! आप ही पांडवों के आश्रय हैं।

 

न हास्यते कर्म यथाप्रतिज्ञं पुत्रैः शपे केशव सोदरैश्च । अन्तं करिष्यामि यथा कुरूणां त्वयाहमिन्द्रानुज संप्रयुक्तः ॥

केशव ! अब मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार कर्तव्य का पालन करूँगा, उसका कभी त्याग नहीं करूँगा। यह बात मैं अपने पुत्रों और भाइयों की शपथ खाकर कहता हूँ।  उपेंद्र ! आपकी आज्ञा मिलने पर मैं समस्त कौरवों का अंत कर डालूंगा।  

 

ततः प्रतिज्ञां समयं च तस्य जनार्दनः प्रीतमना निशम्य। स्थितः  प्रिये कौरवसत्तमस्य रथं सचक्रः पुनरारुरोह ॥

अर्जुन की यह प्रतिज्ञा और कर्तव्य पालन का यह निश्चय सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण का मन प्रसन्न हो गया। वे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन का प्रिय करने के लिये उद्यत हो पुनः चक्र लिए रथ पर जा बैठे।

 

इस प्रकार महाभारत के तीसरे दिन, भीष्म और द्रोण सहित सम्पूर्ण कौरव सेना भगवान् श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र से संहार होने से बच सकी थी।

 "शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava



शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Kulguru Kripacharya aur Karunamayi Arjun कुलगुरु कृपाचार्य और करुणामयी अर्जुन



महाभारत ग्रन्थ के सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोSध्याय में वर्णन है कि कुन्ती कुमार अर्जुन, कुलगुरु कृपाचार्य को अपने बाणों से आच्छादित करने के पश्चात किस प्रकार शोक से व्याकुल हो उठे थे।
अपने मस्तक को भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में रखते हुये मैं महाभारत ग्रंथ में वर्णित उस मार्मिक प्रसंग को प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

धृतराष्ट्र उवाच
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय।।
धृतराष्ट्र बोले 
संजय ! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।

संजय उवाच
सैन्ध्वं निहितं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत ।
अमर्षवशमापन्न: कृपः शारद्वतस्ततः ।।
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रोणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम्।।
संजय बोले
भरत नंदन ! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख कर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाणों की भारी वर्षा करते हुये पाण्डु पुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन ! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया।।
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्।।
रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे।।
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगदम् रथिनां वरः।।
इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी वर्षा से पीड़ित हो रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन अत्यंत व्यथित हो उठे।
सोSजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तन्यमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।।
वे युद्ध स्थल में गुरु तथा गुरुपुत्र का वध नहीं करना चाहते थे, अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहां अपने आचार्य का सम्मान किया।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूमस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्।।
उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये।
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखा: पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिम् शराणां तावगच्छताम्।।
अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुंची। वे बड़ी वेदना अनुभव करने लगे।
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह।।
राजन् ! कृपाचार्य अर्जुन के बाणो से पीड़ित हो मूर्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे।
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोSयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्।।
अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विह्वल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझ कर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया।
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम्।।
महाराज ! युद्ध स्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहां से हट जाने पर अश्वत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर किसी दूसरे रथी का सामना करने के लिये चला गया।
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदिव्यत्।।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
कृपाचार्य को बाणों से पीड़ित एवम मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुंती कुमार अर्जुन करुणावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे । उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी । वे दीन भाव से कहने लगे...।
पश्यन्निदं महाप्राज्ञ: क्षत्ता राजानमुक्तवान्।।
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भयम्।
जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था उस समय महाज्ञानी विदुर जी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि 'इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा;क्यों कि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियों को महान् भय उत्पन्न होगा।'
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः।।
तत्कृते ह्यघ पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।।
सत्यवादी विदुरजी का वह कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है। दुर्योधन के कारण ही आज मैं अपने गुरु को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रिय के आचार, बल, और पुरुषार्थ को धिक्कार है ! धिक्कार है।
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परम: सखा।।
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्वाणपीडित:।।
मेरे जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्य से द्रोह करेगा ? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्य के परम सखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पड़े हैं।
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम्।।
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
मैंने इच्छा न रहते हुये भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुंचाई है। वे रथ की बैठक में पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यंत पीड़ित सा कर रहे हैं।
ये च विद्यामुपादय गुरुभ्यः पुरुषाधमा:।।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
गुरु से विद्या ग्रहण करके जो नराधम उन पर ही चोट करते हैं वे दुराचारी मानव निश्चित ही नरकगामी होते हैं।
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम्।।
आचार्यम् शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है , निश्चित ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है ।
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने।।
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
'वार्ष्णेय !  युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है। मैं जो उन पर प्रहार करता हूँ ,इसके लिये मुझे धिक्कार है'।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava