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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Kulguru Kripacharya aur Karunamayi Arjun कुलगुरु कृपाचार्य और करुणामयी अर्जुन



महाभारत ग्रन्थ के सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोSध्याय में वर्णन है कि कुन्ती कुमार अर्जुन, कुलगुरु कृपाचार्य को अपने बाणों से आच्छादित करने के पश्चात किस प्रकार शोक से व्याकुल हो उठे थे।
अपने मस्तक को भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में रखते हुये मैं महाभारत ग्रंथ में वर्णित उस मार्मिक प्रसंग को प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

धृतराष्ट्र उवाच
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय।।
धृतराष्ट्र बोले 
संजय ! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।

संजय उवाच
सैन्ध्वं निहितं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत ।
अमर्षवशमापन्न: कृपः शारद्वतस्ततः ।।
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रोणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम्।।
संजय बोले
भरत नंदन ! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख कर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाणों की भारी वर्षा करते हुये पाण्डु पुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन ! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया।।
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्।।
रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे।।
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगदम् रथिनां वरः।।
इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी वर्षा से पीड़ित हो रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन अत्यंत व्यथित हो उठे।
सोSजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तन्यमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।।
वे युद्ध स्थल में गुरु तथा गुरुपुत्र का वध नहीं करना चाहते थे, अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहां अपने आचार्य का सम्मान किया।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूमस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्।।
उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये।
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखा: पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिम् शराणां तावगच्छताम्।।
अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुंची। वे बड़ी वेदना अनुभव करने लगे।
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह।।
राजन् ! कृपाचार्य अर्जुन के बाणो से पीड़ित हो मूर्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे।
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोSयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्।।
अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विह्वल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझ कर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया।
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम्।।
महाराज ! युद्ध स्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहां से हट जाने पर अश्वत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर किसी दूसरे रथी का सामना करने के लिये चला गया।
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदिव्यत्।।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
कृपाचार्य को बाणों से पीड़ित एवम मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुंती कुमार अर्जुन करुणावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे । उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी । वे दीन भाव से कहने लगे...।
पश्यन्निदं महाप्राज्ञ: क्षत्ता राजानमुक्तवान्।।
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भयम्।
जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था उस समय महाज्ञानी विदुर जी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि 'इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा;क्यों कि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियों को महान् भय उत्पन्न होगा।'
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः।।
तत्कृते ह्यघ पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।।
सत्यवादी विदुरजी का वह कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है। दुर्योधन के कारण ही आज मैं अपने गुरु को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रिय के आचार, बल, और पुरुषार्थ को धिक्कार है ! धिक्कार है।
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परम: सखा।।
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्वाणपीडित:।।
मेरे जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्य से द्रोह करेगा ? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्य के परम सखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पड़े हैं।
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम्।।
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
मैंने इच्छा न रहते हुये भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुंचाई है। वे रथ की बैठक में पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यंत पीड़ित सा कर रहे हैं।
ये च विद्यामुपादय गुरुभ्यः पुरुषाधमा:।।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
गुरु से विद्या ग्रहण करके जो नराधम उन पर ही चोट करते हैं वे दुराचारी मानव निश्चित ही नरकगामी होते हैं।
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम्।।
आचार्यम् शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है , निश्चित ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है ।
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने।।
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
'वार्ष्णेय !  युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है। मैं जो उन पर प्रहार करता हूँ ,इसके लिये मुझे धिक्कार है'।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

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