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सोमवार, 19 अगस्त 2019

Tantra Peethika Rahasay तंत्र पीठिका रहस्य



भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों मे अपना मस्तक रखते हुये तथा 'कालीतत्व रहस्य', दुर्गातत्व तथा पदार्थदर्श (शारदातिलक की व्याख्या) के रचनाकार और वेदांत तथा आगम शास्त्र के प्रकांड पंडित 'राघवभट्ट' जी को प्रणाम करते हुए मैं तंत्र शास्त्र में वर्णित उन चार पीठिकाओं का वर्णनं करने जा रहा हूँ जिनके बिना मंत्र सिद्धि नहीं की जा सकती।  दक्षिणमार्गी, मध्यममार्गी तथा वाम मार्गी तीनों ही प्रकार के साधकों के लिए उपयोगी ये चार पीठिकायें इस प्रकार हैं- 
१- श्मशान पीठ, २- शव पीठ, ३- अरण्य पीठ, 4- श्यामा पीठ 

(श्मशान पीठ)

जिस साधना में प्रतिदिन रात्रि काल में श्मशान भूमि में जाकर यथाशक्ति विधि से मन्त्र का जाप किया जाता है उसे 'श्मशान' पीठ कहते हैं। जितने दिन का प्रयोग होता है, उतने दिन तक मन्त्र का साधन यथाविधि किया जाता है। अधिकांशतः तंत्र साधक इसी पीठ का आश्रय लेते हैं क्यों कि यह पीठ शेष तीन पीठिकाओं के अपेक्षाकृत सरल है।

(शव पीठ)

किसी मृत कलेश्वर के ऊपर बैठकर या उसके भीतर घुसकर मन्त्रानुष्ठान संपूर्ण करना 'शव-पीठिका' है। प्रायः वाममार्गियों में इस पीठिका की प्रधानता देखी जाती है। कर्णपिशाचिनी, उच्छिष्ठ चाण्डालिनी, कर्णेश्वरी, उच्छिष्ठ गणपति
आदि उग्र शक्तियों की साधना तथा अघोर पंथियों की साधनाएं इसी पीठिका के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

(अरण्य पीठ)

मनुष्य जाति का जहां संचार न हो, हिंसक पशुओं जैसे बाघ, सिंह, भालू, भेड़िये, विषैले सर्प आदि जहां बहुतायत में निवास करते हों, ऐसे निर्जन वन-स्थान में किसी पवित्र वृक्ष अथवा शून्य मंदिर (जहां कोई मनुष्य न आता जाता हो) का आश्रय लेकर मन्त्र-साधना करना और निर्भयतापूर्वक मन को एकाग्र रखकर तल्लीन हो जाना 'अरण्य-पीठिका' है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इसी पीठिका का आश्रय लेकर महान सिद्धियों को प्राप्त किया करते थे। 

(श्यामापीठ)

यह अत्यंत कठिन से कठिनतर पीठिका है , बहुत कम मनुष्य इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकते हैं। एकांत में किसी षोडशवर्षीय, नवयौवना, सुंदर कन्या को वस्त्र-रहित कर, स्वयं उसके सम्मुख बैठकर साधक मन्त्र-साधने में तत्पर हो तथा मन मे काम-वासना के विचार लाना तो दूर एक पल के लिए भी अपने मन को विचलित न होने दे और कठोर ब्रह्मचर्य में स्थित रहकर मन्त्र का साधन करे, इसे ही 'श्यामा-पीठिका' कहते हैं।  
जैन-ग्रन्थ में लिखा है कि द्वैपायनपुत्र मुनीश्वर शुकदेव, स्थूलिभद्राचार्य और हेमचंद्राचार्य ने इस पीठिका का आलम्बन लेकर मन्त्र-साधना की थी तथा वह सिद्ध हुये थे। 

चेतावनी- 
अंतिम और सर्वाधिक कठिन पीठिका (श्यामा पीठ) का वर्णन मैंने यहां केवल ज्ञान देने के उद्देश्य की पूर्ति मात्र के लिये किया है तथा यह पीठ कंठ तक वासना में डूबे कलियुगी मनुष्यों के लिए नहीं है, जिसका कारण यह है कलियुगी मनुष्यों में इतना संयम नहीं है कि वह इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकें तथा यह हमारी वर्तमान न्याय-व्यवस्था द्वारा दंडनीय अपराध भी है। अतः वर्तमान न्याय-व्यवस्था का सम्मान करते हुए भी किसी भी व्यक्ति को इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। तब भी यदि कोई साधक इस पीठिका का प्रयोग सिद्धियों की प्राप्ति के लिये करता है तो वह अपने विनाशकारी कर्म के लिये स्वयं ही उत्तरदायी होगा।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

Dus Mahavidhya Rahasaya दस महाविद्या रहस्य




दस महाविद्यायें और उनकी उत्त्पत्ति का रहस्य 

दस महाविद्याओं का संबंध परंपरातः सती (शिवा, पार्वती) से है। सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया, सती ने शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी। शिव ने अनुचित बताकर उन्हें रोका, परंतु सती अपने निश्चय पर अटल रहीं।

उन्होंने कहा- मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहां या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिये यज्ञभाग प्राप्त करूंगी या उस यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी।

यह कहते हुये सती के नेत्र लाल हो गये, वे शिव को उग्र दृष्टि से देखने लगीं, उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया, क्रोधाग्नि से दग्ध शरीर महाभयानक एवं उग्र दिखने लगा।

देवी का यह स्वरूप साक्षात महादेव के लिये भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय उनका श्री विग्रह करोड़ों मध्याह्न के सूर्यों के समान तेज-सम्पन्न था और वे बार बार अट्टहास कर रही थीं।

देवी के इस विकराल रूप को देखकर शिव(लीलावश) भाग चले। भागते हुये रुद्र को दसों दिशाओं में रोकने के लिये देवी ने अपनी अङ्गभूता दस देवियों को प्रकट किया। देवी की ये स्वरूपा शक्तियां ही 'दस महाविद्याएं' हैं । 

जिनके नाम हैं-  (१) काली(२) तारा (३) छिन्नमस्ता (४) भुवनेश्वरी (५) बगलामुखी (६) धूमावती (७) त्रिपुर सुंदरी (८) मातङ्गी (९) षोडशी (१०) त्रिपुर भैरवी।

शिव ने सती से इन महाविधाओं का जब परिचय पूँछा तब सती ने स्वयं इसकी व्याख्या करके उन्हें बताया-

येयं  ते पुरतः  कृष्णा सा काली भीमलोचना ।
श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्वं व्यवस्थिता ।।
सेयं   तारा   महाविद्या  महाकालस्वरूपिणी ।
सव्येतरेयं     या   देवी    विशीर्षातिभयप्रदा ।।
इयं    देवी   छिन्नमस्ता   महाविद्या   महामते ।
वामे   त्वेयं   या   देवी  सा  शम्भो भुवनेश्वरी ।।
पृष्ठतस्तव     या    देवी    बगला    शत्रुसूदनी ।
वह्निकोणे    तवेयं    या  विधावारूपधारिणी ।।
सेयं    धूमावती     देवी    महाविधा    महेश्वरी ।
नैऋत्यां   तव    या    देवी   सेयं   त्रिपुरसुंदरी ।।
वायौ   या   ते  महाविद्या  सेयं   मतङ्गकन्यका ।
ऐशान्यां   षोडशी   देवी  महाविद्या   महेश्वरी  ।।
अहं   तु  भैरवी  भीमा  शम्भो  मा  त्वं  भयं कुरु ।
एताः    सर्वा:   प्रकृष्टास्तु    मूर्तयो   बहुमूर्तिषु ।।

'शम्भो ! आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा एवं भयंकर नेत्रों वाली देवी स्थित हैं वह 'काली' हैं । जो श्याम वर्ण वाली देवी स्वयं ऊर्ध्व भाग में स्थित हैं यह महाकालस्वरूपिणी महाविद्या 'तारा' हैं । महामते ! बायीं ओर जो यह अत्यन्त भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं, यह महाविद्या 'छिन्नमस्ता' हैं । शम्भो ! आपके वामभाग में जो यह देवी हैं वह 'भुवनेश्वरी' हैं । आपके पृष्ठभाग में जो देवी हैं वह शत्रु संहारिणी 'बगला' हैं । आपके अग्निकोण में जो यह विधवा का रूप धारण करने वाली देवी हैं वह महेश्वरी महाविद्या 'धूमावती' हैं । आपके नैऋत्य कोण में जो देवी हैं वह 'त्रिपुरसुंदरी' हैं । आपके वायव्यकोण में जो देवी हैं वह मतङ्गकन्या महाविद्या 'मातङ्गी' हैं । आपके ईशानकोण में महेश्वरी महाविद्या 'षोडशी' देवी हैं । शम्भो ! मैं भयंकर रूप वाली 'भैरवी' हूँ । आप भय मत करें ! ये सभी मूर्तियां बहुत सी मूर्तियों में प्रकृष्ट हैं ।

इस प्रकार 'श्रीमन्महीधर भट्ट' द्वारा रचित दिव्य ग्रन्थ 'मंत्र महोदधि' में वर्णित 'दस महाविद्याओं' की उत्पत्ति का रहस्य समाप्त हुआ।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava