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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2024

सनातन धर्म की आन्तरिक चुनौतियां भाग—३

भाग १ तथा २ देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं—

९ अक्टूबर को देव गुरु बृहस्पति 'वृष राशि' में, 'मृगशिरा नक्षत्र के द्वितीय चरण' में वक्री होने जा रहे है, जिसका शुभाशुभ प्रभाव सभी राशि-लग्न वाले जातकों पर पड़ने वाला है । इधर 'शनि' पहले से ही वक्री चल रहे हैं जो कि १५ नवम्बर को मार्गी होंगे ।

गोचर में संचार कर रहे ग्रहों की परिवर्तित होती स्थितियों के कारण ही हमारे जीवन में भी प्रत्येक क्षण परिवर्तन आते रहते हैं (यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे) । अतः ये मान-सम्मान , हानि-लाभ, सुख-दुःख, जय-पराजय और जीवन-मृत्यु सब कुछ परिवर्तनशील है, इनमें से कुछ भी स्थिर नहीं है । इसलिए विद्वान मनुष्यों को इनमें से किसी से भी मोहित नहीं होना चाहिए और निरन्तर अपने इष्टदेव के मंत्रों का जप करते हुए सदा उन्हीं की शरण में रहना चाहिए ।

ईश्वर द्वारा ज्योतिष शास्त्र के निर्माण का कारण ही यह था कि मनुष्य अपनी जन्मकुंडली तथा गोचर में संचार कर रहे ग्रहों की स्थितियों को देखकर, उनके द्वारा स्वयं पर पड़ने वाले शुभाशुभ परिणामों का अवलोकन करके, मंत्र-यज्ञ-दान-रत्न आदि चिकित्साओं द्वारा अपना उपचार करते हुए, सुखी जीवन व्यतीत कर सके और सरलता से मोक्ष तक की अपनी यात्रा संपन्न कर सके । यही कारण है कि ज्योतिष को ईश्वर का दिखाया हुआ प्रकाश (ज्योति+ईश) कहते हैं ।


वर्तमान काल की भांति, प्राचीन काल में ज्योतिष शास्त्र केवल भाग्य बताने अथवा मुहूर्त आदि निकालने तक ही सीमित नहीं था । प्राचीन काल में ज्योतिषीय गणना के आधार पर राजाओं के यहां नियुक्त विद्वान राजज्योतिषी उन्हें उनके राज्य में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं की सूचना पहले से ही दे दिया करते थे, जिससे प्रजा तथा उस राज्य की सुरक्षा की जा सके । ऐसी ही कितनी ही भविष्यवाणियां तो स्वयं मैं ही वर्षों से करता हुआ आ रहा हूँ, जो कि पूर्णतः सत्य घटित हुई हैं । जो लोग मुझे वर्षों से जानते हैं , वह इस बात के साक्षी हैं ।

स्वयं व्यास जी ने महाभारत युद्ध होने से पूर्व 'भारतवर्ष' (सम्पूर्ण आर्यवर्त) में पड़ने वाले सूर्य-चंद्र ग्रहण तथा गोचर में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति देखकर, राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध में होने वाले महाविनाश की चेतावनी पहले ही दे दी थी, जिसका विवरण हमें महाभारत ग्रंथ में प्राप्त होता है । ऐसे में जब आज हम देखते हैं कि मलेच्छ प्रवृत्ति के धर्मद्रोही तत्वों के साथ-साथ कुछ अशास्त्रीय कथावाचक (सभी नहीं) भी ज्योतिष शास्त्र की निंदा करने में लगे हुए हैं तो इसके मूल में और कुछ नहीं कलियुग का प्रभाव ही है ।


वैदिक परम्परा प्राप्त कथावाचकों की आड़ लेकर, उनकी पीठ पीछे छुपकर, स्वयं ही मंत्र दीक्षा लेने-देने, यज्ञ करने-करवाने तथा व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने के लिए अनधिकृत होते हुए भी, अपने कल्ट में ब्राह्मणों से लेकर मलेच्छों तक को मंत्र दीक्षा दे रहे ऐसे अनेक 'वर्णेतर' तत्व हमें यह बताने का कष्ट करेंगे कि बिना शुभ मुहूर्त के क्या वह कोई कथा-व्यास पूजन-यज्ञ आदि करवा सकते हैं ? यदि हां तो कैसे और यदि नहीं तो ये मुहूर्त इन्हें कौन बताएगा ?
इसका उत्तर है—ज्योतिष शास्त्र ।

वास्तव में ज्योतिष शास्त्र वेद के ६ अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छंद, निरुक्त) जिन्हें वेदांग कहा जाता है, में से एक है और यह वेदांग में इतना महत्वपूर्ण स्थान रखता है कि इसे वेद के नेत्र का स्थान प्राप्त है । महर्षि पाणिनि ने भी ज्योतिष शास्त्र को वेदपुरुष का नेत्र कहा है तथा जितने प्राचीन वेद हैं, उतना ही प्राचीन ज्योतिष शास्त्र भी है ।

जिन महर्षि वेदव्यास जी के द्वारा लिखे गए पुराणों की कथा सुनाकर ये अशास्त्रीय-अनाधिकृत कथावाचक और कल्ट गुरु अपने यजमानों से मान-सम्मान तथा धन आदि प्राप्त करते हैं, उन्हीं महर्षि वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर जी, ज्योतिष शास्त्र (वैदिक ज्योतिष) के एक महान ज्ञाता थे, जिनके द्वारा लिखित ग्रंथ 'बृहत् पराशर होरा शास्त्र' में वर्णित ज्योतिष के गूढ़ सिद्धांतों का अनुसरण करके ही अधिकांश ज्योतिषाचार्य, सभी जातकों को उनका भविष्यफल बताया करते हैं ।

अब बात करते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वह कौन से ग्रह तथा भाव-भावेश होते हैं जिनके कारण कोई व्यक्ति व्यासपीठ पर बैठकर, अपनी कथाओं के माध्यम से हजारों-लाखों श्रोताओं को ज्ञान देकर उनका जीवन बदलने में सक्षम हो पाता है ? 
इसका उत्तर है— जन्मकुंडली के द्वितीय भाव-द्वितीयेश (वाणी स्थान और उसका स्वामी ग्रह) तथा नवम भाव-नवमेश (धर्म स्थान और उसका स्वामी ग्रह) पर पड़ने वाले शुभ ग्रहों का प्रभाव तथा वाणी के कारक बुध और ज्ञान के कारक बृहस्पति का उसकी जन्मकुंडली में शुभ स्थिति में बैठना ।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी भी मनुष्य की वाणी तथा लेखन का कारक बुध होता है और ज्ञान तथा आध्यात्मिकता का कारक बृहस्पति । ऐसे में कोई भी ऐसा धर्मगुरु जो कि अच्छा वक्ता-लेखक-ज्ञानी तीनों हो, तो इसका कारण उसकी जन्मकुंडली में बुध तथा बृहस्पति की स्थिति का अत्यन्त शुभ होना होता है । ऐसे में यदि उसके द्वितीय भाव-द्वितीयेश, नवम भाव-नवमेश पर भी शुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो वह एक अच्छा कथावाचक-धार्मिक वक्ता बनकर देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करता है किन्तु वर्णेतर होने अथवा राहु के पाप प्रभाव के कारण अनेक बार ऐसा व्यक्ति किसी नए 'कल्ट' के निर्माण का भी कारण बन जाता है । उसकी जन्मकुंडली में इन ग्रहों की स्थिति भी विशाल जनसमुदाय को अपनी ओर आकर्षित करने में उसकी पूरी सहायता करती है, यही कारण है कि विश्व भर में बहुत से ऐसे कल्ट बनते आए हैं और बनते रहेंगे जिनके धर्मगुरुओं (जो वास्तव में अधर्म गुरु होते हैं) ने अपनी जन्मकुंडलियों में बने हुए ऐसे योगों का दुरुपयोग करके विशाल जनसमुदाय को मूर्ख बनाने का कार्य किया । ऐसे अनेक कल्ट गुरुओं के ग्रहों का प्रभाव तो ऐसा है कि उनकी मृत्यु के सैंकड़ों वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् भी आज तक लोग उनकी लिखी हुई पुस्तकें (कुछ किताबें भी) लाकर पढ़ते हैं और उनके कल्ट को आगे बढ़ा रहे हैं ।

किसी भी जातक की जन्मकुंडली का द्वितीय भाव जो कि धन का भी भाव होता है, द्वितीयेश (धनेश) धनभाव का स्वामी ग्रह होता है तथा धन का कारक देव गुरु बृहस्पति होता है । ऐसे में उस अशास्त्रीय धर्मगुरु-कथावाचक-कल्ट गुरु की जन्मकुंडली में इन पर पड़ने वाले शुभ प्रभाव के कारण उसको अपने जीवन में कभी धन की भी कोई कमी नहीं रहती । अतः इससे यह सिद्ध होता है कि ज्योतिष शास्त्र की निंदा करने वाले कल्ट गुरु एवं अशास्त्रीय कथावाचक भी स्वयं ग्रहों के ही आधीन होते हैं ।

यदि ये सारे ज्योतिषीय सूत्र छोड़ भी दिए जाएं (क्योंकि ज्योतिष के ज्ञान के बिना इनको यह सूत्र समझ में नहीं आएंगे), तो भी मैं अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए भगवान् श्रीराम-कृष्ण आदि के नाम से अपनी दुकान चलाने वाले इन सभी महानुभावों से आज यह समझना चाहता हूँ कि वह कौन से ऋषि थे जिन्होंने भगवान् श्री राम चंद्र की जन्मकुंडली देखकर उनके जीवन में प्राप्त होने वाले दुःखों की भविष्यवाणी कर दी थी और क्या महर्षि गर्ग ने भगवान् श्री कृष्ण की जन्मकुंडली देखकर उनका नामकरण संस्कार नहीं किया था ? 

वास्तव में सत्यता यह है कि आज जितने भी परम्परा प्राप्त प्रामाणिक धर्माचार्य अथवा कथावाचक हैं, वह सभी ज्योतिष शास्त्र का महत्व जानते हैं और ज्योतिष शास्त्र को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । वह जानते हैं कि ज्योतिष की निंदा अर्थात् वेद की निंदा है (वेदांग होने के कारण) और किसी वेद निंदक को कथावाचक या धर्माचार्य कहना तो दूर की बात है, वह तो हिंदू कहलाने के योग्य भी नहीं होता क्योंकि—
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय: ।
अर्थात्— वेदों में विहित बताए गये कर्मो को करना धर्म है और उसके विपरीत (वेदों में निषिद्ध) कार्यों को करना अधर्म है।

ऐसे वह नकली कथावाचक और कल्ट गुरु, जो वर्णेतर और धर्मेतर होने के कारण व्यासपीठ पर बैठने के लिए अधिकृत भी नहीं हैं (जिनमें से अधिकांश तो उस कल्ट के ही अनुयायी है, जिन्होंने अनधिकृत होते हुए भी आजकल भगवान् श्री कृष्ण के नाम पर देश-विदेश में धर्म की दुकान लगाई हुई है), उनसे मुझे यही कहना है कि—

यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्यौतिषं खलु निन्दति ।
रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि ।।
अर्थात् —
जो मानव ज्योतिष शास्त्र को अच्छी प्रकार न समझकर उसकी निंदा करता है, वह रौरव नामक नरक में वास करके अन्धा होकर जन्म ग्रहण करता है।।
(बृहतपाराशर होरा शास्त्रम्)

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

लग्न और लग्नेश

किसी भी जातक की जन्म-कुण्डली में 'लग्न' से हम उसका स्वास्थ्य, उसकी आयु , उसके शरीर की बनावट तथा उसको जीवन में मिलने वाला मान-सम्मान आदि देखते हैं । जीवन की यात्रा ही लग्न से आरंभ होती है, जो कि १२वें भाव (व्यय स्थान) पर जाकर समाप्त हो जाती है । लग्न के स्वामी ग्रह को 'लग्नेश' कहते हैं, जो कि किसी भी जातक की जन्मकुंडली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

लग्नेश जन्मकुंडली के १२भावों में जहां भी स्थित हो जाता है, हमें उसी भाव से सम्बन्धित पदार्थों में आसक्ति उत्पन्न करवा देता है क्योंकि लग्नेश और कोई नहीं हम स्वयं होते हैं । ऐसे में जहां-जहां हमारा लग्नेश जाता है हम भी उन्हीं-उन्हीं स्थानों पर अपनी आसक्ति करने में विवश होते हैं ।

लग्न-लग्नेश पर शुभ प्रभाव हो, लग्नेश केंद्र-त्रिकोण में बैठा हो तथा नीच का न हुआ हो, तो ऐसा जातक अच्छी आयु, स्वास्थ्य और मान-सम्मान का सुख प्राप्त करता है किन्तु इसके विपरीत लग्न-लग्नेश पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो, लग्नेश ६, ८, १२ वें भाव में हो, अपनी नीच राशि में स्थित हो या अस्त हो जाए तो ऐसे में उस जातक को संसार में अनेक प्रकार के कष्ट और अपयश भोगने पड़ते हैं ।

लग्न तथा लग्नेश के विषय में एक महत्वपूर्ण बात और भी है, वह ये कि अधिकांश ज्योतिषाचार्य गोचर के जो नियम 'चंद्र कुंडली' पर लगाते हैं, यदि वही नियम वह 'लग्न कुंडली तथा लग्नेश' पर भी लगाएं तो उन्हें कहीं अधिक सटीक फलादेश प्राप्त होंगे ।

यह तो हुई थोड़ी सी जानकारी लग्न तथा लग्नेश के विषय में, अब हम बात करते हैं लग्नेश के लग्न में ही स्थित होने अथवा लग्न को देखने के फलों की ।

किसी जातक की जन्मकुंडली में लग्नेश द्वारा लग्न में ही बैठे होने अथवा लग्नेश द्वारा लग्न को देखने के जहां उस जातक को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं, वहीं एक बहुत बड़ी हानि भी प्राप्त होती है ।

कभी-कभी ऐसा जातक अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाले मान-सम्मान तथा सरलता से उपलब्ध होने वाली सफलताओं से इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि उसको धर्म-अधर्म का कुछ बोध ही नहीं रहता ।

जीवन पर्यन्त वह सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए आतुर रहता है और जहां उसे अपनी प्रशंसा करते लोग नहीं मिलते, वहां से भागकर वह अपने लिए ऐसे नए चेले-चपाटे खोजने लगता है, जो नित्य-प्रतिदिन उसके यश का गुणगान करें । कहने का तात्पर्य यह है कि उसको उसकी चापलूसी करने वाले मनुष्यों की लत लग जाती है ।

यदि यह लग्नेश बृहस्पति हो तो समस्या और भी बड़ी हो जाती है, क्योंकि जातक की जन्म कुंडली में शुभ स्थिति में बैठा बृहस्पति ही उसको ज्ञानी तथा धनवान बनाने का कार्य करता है, ऐसे में वह बृहस्पति यदि लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए अथवा लग्नेश होकर लग्न को देख ले, तो वह उस जातक को ज्ञान के अहंकार में इतना चूर कर देता है कि  अपने अहंकार के समक्ष वह किसी को भी कुछ नहीं समझता । ऐसे में शनि और राहु की दशा-अंतर्दशाएं ही उस जातक के अहंकार को नष्ट करने का कार्य करती हैं ।

यदि वह अहंकार राहु के द्वारा नष्ट किया गया है तो उसका परिणाम बहुत ही विनाशकारी होता है किन्तु यदि वह अहंकार शनि के द्वारा नष्ट किया गया है तो आरंभ का समय तो उस जातक के लिए बहुत कष्टकारी होता है परन्तु घोर दुखों के फेर में डालकर अंत में शनि, उस जातक की मलिन आत्मा को शुद्ध करने का ही कार्य करता है ।

इसी प्रकार यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए तथा वह डिग्रीकली भी युवावस्था का हो, तो ऐसे जातक को समस्त संसार में अपार मान-सम्मान, आयु, यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है ।

ऐसा जातक बलपूर्वक अपने शत्रुओं को कुचलकर रख देता है । साधारण अभिचार कर्मों के द्वारा भी वह पराजित नहीं होता । वह बड़े कद-काठी का होता है और समाज में उसको बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।

यदि कोई तांत्रिक भी उस पर अभिचारिक प्रयोग करने का प्रयास करता है तो वह तांत्रिक भी अपने मंत्र प्रयोगों में कोई त्रुटि हो जाने से स्वयं ही मरण को प्राप्त हो जाता है ।

जब तक इसी लग्न में जन्म लेने वाला और ऐसे ही ग्रह स्थिति लेकर बैठा हुआ कोई तंत्र साधक अपनी मंत्र शक्ति से कृत्या आदि उत्पन्न नहीं करता, तब तक ऐसे जातक को मार पाना उसके लिए भी संभव नहीं होता ।

किन्तु ऐसे जातक के जीवन साथी को जीवन पर्यन्त बहुत दुःख उठाना पड़ता है तथा वह घुट-घुट कर अपना जीवन यापन करने को विवश होता है । (शक्तिशाली सूर्य की सप्तम् शत्रु दृष्टि के कारण) ।

यहां मैं एक बात सभी को बता दूं कि लग्नेश का लग्न में बैठना और अथवा लग्न को देखना एक बहुत ही उत्तम योग माना जाता है । यहां तक कि मैंने भी अपने जीवन काल में जिन बच्चों की डिलीवरी के मुहूर्त निकाले हैं, उनका भी लग्नेश, उनके लग्न में ही रखने का प्रयास किया है तथा लग्न-लग्नेश की डिग्री (अंश) भी युवावस्था की रखने की हरसंभव चेष्ठा की है ।

ऐसे में भगवान् शंकर और माता भवानी के द्वारा, मेरे माध्यम से निकलवाए गए 'चाइल्ड डिलीवरी मुहूर्त' में जन्में सभी बच्चे जीवन पर्यन्त स्वास्थ्य, आयु, मान-सम्मान तो प्राप्त करेंगे ही, इसके अतिरिक्त वह ऋण, रोग व शत्रुनाशक भी सिद्ध होंगे क्योंकि छठे भाव का अष्टम् स्थान (हानि स्थान), 'लग्न' होता है ।

इन सभी बच्चों के माता-पिताओं को यह ध्यान रखना होगा कि कहीं उनके बच्चे अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाली सफलताओं से इतने आत्ममुग्ध न हो जाएं कि वह धर्म और अधर्म का भेद ही भूल जाएं । इसके लिए उन माता-पिताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह आरंभ से ही अपने इन बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने की सीख दें तथा उन्हें ईश्वर भक्ति के मार्ग में लगाएं ।

लग्नेश के लग्न में बैठे होने अथवा लग्न को देखने के कारण जीवन में सरलता से जो कुछ भी उपलब्धियां हमें प्राप्त होती हैं, हमें उन्हें भगवान् का आशीर्वाद मानकर विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए तथा सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि देहाभिमानियों का साथ तो उनके इष्टदेव भी छोड़ देते हैं ।
"शिवार्पणमस्तु"

नोट—ज्योतिष शास्त्र एक ब्रह्मविधा है जो बिना दैवीय सहायता से किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकती । मैंने अपने इस छोटे से लेख में ज्योतिष के अनेक गुप्त सूत्र प्रकट किए हैं, ऐसे में जिस पर भगवान् की कृपा होगी, केवल वही उन सूत्रों को ग्रहण कर सकेगा ।
—Astrologer Manu Bhargava