Translate

बुधवार, 24 जुलाई 2019

Ratan Dhaaran Rahasay रत्न धारण रहस्य


यह सृष्टि का नियम है कि कोई भी जीव अपने शत्रुओं तथा अपना अनिष्ट करने वालों को कभी भी शक्ति प्रदान नहीं करना चाहता, फिर भी ज्ञान के अभाव में 90% व्यक्ति उन ग्रहों का रत्न धारण किये हुए होते हैं जो उनकी जन्म कुंडली में उनका अनिष्ट कर रहे होते हैं ।

इसके पीछे उनका यह तर्क होता है कि रत्न धारण करने से उस ग्रह का अनिष्ट प्रभाव कम हो जाएगा, जबकि सत्य यह है कि रत्न किसी भी ग्रह की शुभ-अशुभ फल देने की क्षमता को कई गुना बढ़ाने का कार्य करते हैं। ऐसे में केवल किसी ग्रह की महादशा-अंतर्दशा आ जाने पर उस ग्रह का रत्न धारण कर लेना कहाँ तक उचित है जबकि वह जन्म कुंडली में अशुभ फल कर रहा हो।

ऐसे ही शनि की ढैया अथवा साढ़े साती लग जाने पर अधिकांश व्यक्ति शनि की धातु माने जाने वाले लोहे का छल्ला धारण करके शनि के दुष्प्रभावों को कम करने का प्रयास करते हैं जबकि उन्हें उस समय शनि की वस्तुओं तथा दिशा से दूर रहना चाहिये।
अनेक बार देखा गया कि जातक स्वयं से ही नवरत्न जड़ित अंगूठी धारण कर लेता है जबकि किसी भी जातक की जन्मकुंडली में 9 के 9 ग्रह शुभ नहीं हो सकते, ऐसे में जो ग्रह उसकी जन्मकुंडली में अशुभ फल दे रहे होते हैं उनका रत्न धारण करते ही उनकी अनिष्ट करने की क्षमता भी कई गुना अधिक बढ़ जाती है।

ऐसे में यह ही कहा जा सकता है कि भला हो बाजार में मिलने वाले नकली और TREATMENT किये हुए रत्नों का जो यदि जातक को कोई लाभ नहीं दे रहे, तो उसकी हानि भी नहीं करते। ऐसे रत्न यदि गलत उंगली में भी धारण किये जायें तो भी वह हानि नहीं कर पाते क्यों कि HEATING और TREATMENT होने के कारण उनमें इतनी शक्ति नहीं रह जाती कि वह किसी को अपना शुभाशुभ फल दे सकें।

ज्योतिष विज्ञान का अध्ययन करने वाले संस्कृत के विद्वानों तथा कर्मकांडी आचार्यों को भी जन्म कुंडली में ग्रहों की स्थिति, युति एवम दृष्टि कहीं किसी भाव या ग्रह का अनिष्ट तो नही कर रही है, इन सूक्ष्म बातों का विचार कर लेने के पश्चात ही रत्न धारण कराना चाहिये अन्यथा उनके यजमानों का अनिष्ट भी हो सकता है।

वर्तमान में समाचार पत्रों तथा टीवी चैनलों द्वारा जन्म तथा प्रचलित नाम राशि के आधार पर रत्न धारण करवाने का नया प्रचलन चल पड़ा है जबकि हो सकता है कि किसी व्यक्ति का राशि रत्न वाला ग्रह जन्म कुंडली में उस व्यक्ति का बहुत अनिष्ट कर रहा हो,अतः व्यक्ति को किसी योग्य विद्वान से जन्म कुंडली की सूक्ष्म विवेचना करवा लेने के पश्चात ही कोई रत्न धारण करना चाहिए ,केवल जन्म राशि के आधार पर नहीं, और बोलते हुए नाम के आधार पर तो कदापि नहीं ।

जन्म कुंडली ना होने पर कृपया करके कोई भी रत्न धारण ना करें उसके स्थान पर मानसिक, वाचिक, दैहिक पापों से बचते हुए तथा सात्विक आहार ग्रहण करते हुए किसी योग्य 'वेदपाठी अथवा तंत्र विद्या में निपुण ब्राह्मण गुरुओं' से प्राप्त मंत्रो द्वारा पंच देवोपासना अर्थात "गणेश, दुर्गा, सूर्य, विष्णु तथा शिव" जैसे उच्च कोटि के देवी-देवताओं की उपासना करें, उसी से आपका कल्याण होगा।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu bhargava

कलियुगी सम्प्रदायों द्वारा शक्ति की आराधना निषेध करना क्या उचित है ?


श्रीमद्भागवत गीता' में भगवान श्री कृष्ण द्वारा स्वयं को ही 'पूर्णब्रह्म' घोषित करने का उदाहरण देकर,'उच्च कोटि' के अन्य 'देवी-देवताओं' को तुच्छ बताने का कुत्सिक प्रयास करने वाले 'नवीन संप्रदायों' को, योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन को 'देवी दुर्गा' की उपासना करने का आदेश देने का प्रमाण 'महाभारत ग्रंथ' में से ही देता हूँ।

संजय उवाच
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्तिथम।
अर्जुनस्य हितार्थाय कृष्णो वचनमब्रवीत्।।
संजय कहते हैं
दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित की रक्षा के लिये इस प्रकार कहा।।

श्रीभगवानुवाच
शुचिर्भूत्वा महाबाहो संग्रामाभिमुखे स्तिथ:।
पराजयाय शत्रूणां दुर्गास्तोत्रमुदीरय।।
श्रीभगवान बोले
महाबाहो ! तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो, पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गादेवी की स्तुति करो।।

संजय उवाच
एवमुक्तोSर्जुन: संख्ये वासुदेवेन धीमता।
अवतीर्य रथात पार्थ: स्तोत्रमाह कृताञ्जलि:।।
संजय कहते हैं
परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतर कर दुर्गा देवी की स्तुति करने लगे।।

अर्जुन द्वारा अपनी स्तुति करने से प्रसन्न होकर 'देवी दुर्गा' ने स्वयं प्रकट होकर,अर्जुन को शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद किस प्रकार से दिया,यह महाभारत में ही वर्णित निम्न श्लोकों के माध्यम से देखते हैं।

संजय उवाच
ततः पार्थस्य विज्ञाय भक्तिं मानववत्सला।
अन्तरिक्षगतोवाच गोविंदस्याग्रत: स्तिथा।।
संजय कहते हैं
राजन ! अर्जुन के इस भक्ति भाव का अनुभव करके मनुष्यों पर वात्सल्य भाव रखने वाली माता दुर्गा अन्तरिक्ष में भगवान श्री कृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गईं और इस प्रकार बोलीं।।

देव्युवाच
स्वल्पेनैव तु कालेन शत्रूञ्जेष्यसि पाण्डव।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष नारायणसहायवान।।
अजेयस्त्वं रणेSरीणामपि वज्रभृत: स्वयम।
देवी ने कहा
पाण्डुनंदन ! तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे, दुर्धर्ष वीर ! तुम तो साक्षात नर हो , ये नारायण तुम्हारे सहायक हैं , तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो, साक्षात इंद्र भी तुम्हे पराजित नहीं कर सकते।।

अतः इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण ,जब स्वयं अर्जुन को ही देवी की उपासना करने का आदेश दे रहे हैं तो उनके नाम पर व्यापार करने वाले सम्प्रदाय किस आधार पर अन्य देवी-देवताओं की उपासनाओं को अपने अनुयायियों के लिए निषेध कर सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त यदि आप 'रामायण' पढ़ें तो उसमें भी भगवान राम के द्वारा रावण वध के लिए 'दस महाविधाओं' में से प्रथम (काली) की उपासना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का वर्णन मिलता है, क्यों कि रावण स्वयं ही भगवान शंकर के साथ-साथ अपनी कुल देवी निकुम्भला(बगुलामुखी) की भी उपासना किया करता था, जिसके कारण वह बिना 'देवी काली' का आशीर्वाद प्राप्त किये ,भगवान राम के लिए भी अवध्य था। 

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

Jyotish Ka Rahasya ज्योतिष का रहस्य : भाग - 1


आज मैं ज्योतिष में श्रद्धा रखने वाले सज्जनों की सभी शंकाओं का निवारण करने जा रहा हूँ कृपया ध्यान पूर्वक पढ़ें-

प्रायः देखने में आता है कि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में दशा -अंतर्दशा बहुत शुभ चल रही होती है परंतु फिर भी उस पर अचानक से विपत्ति आ जाती है, तथा दशा-अंतर्दशा अशुभ होने पर भी उन्हें अचानक से धन आदि की प्राप्ति हो जाती है।
तो ये सब क्या है ? क्या ज्योतिष के सिद्धांत मिथ्या हैं ?

मित्रों ज्योतिष के जो भी सिद्धांत पूर्व के ऋषियों ने हमें दिये हैं वह मिथ्या नहीं है , सत्यता यह है कि जन्म कुंडली में दशा-अंतर्दशा के अतिरिक्त प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा एवं गोचर का फल भी जातक को मिलता है।

अनेक बार गोचर (तात्कालिक रूप से राशियों, नक्षत्रों पर घूमने वाले ग्रहों की स्थिति) में ग्रहों का फल इतना शुभ हो जाता है कि ग्रह ,जातक को अपने अवधिकाल मे शुभ फल प्रदान करके अगली राशि में चला जाता है भले ही जातक की दशा-अंतर दशा अशुभ चल रही हो । इसी प्रकार से अनेक बार शुभ दशा-अंतर्दशा के चलने पर भी यदि गोचर में ग्रहों की स्थिति अशुभ हो जाए तो जातक को बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं।

ठीक इसी प्रकार शुभ गोचर और शुभ दशा-अंतर दशा के चलने पर भी यदि प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशाएं अशुभ चल रही हों तो भी जातक कष्ट प्राप्त कर जाता है तथा इसके विपरीत गोचर एवं दशा-अंतर दशाओं के अशुभ स्थिति में होने पर भी यदि प्रत्यंतर, सूक्ष्म और प्राण दशाएं शुभ चल रही हों तो भी जातक को अचानक से शुभ फल की प्राप्ति हो जाती है।

अतः मनुष्य चाहे कितना भी चतुर हो जाये ईश्वर ने उसके सभी बटन अपने हाथों में ले रखे हैं जिसे दबाने पर मनुष्य कठपुतलियों की भांति नृत्य करने पर विवश है ,ईश्वर की इस क्रीड़ा को या तो कोई सिद्ध पुरुष समझ सकता है अथवा कोई ज्योतिषाचार्य।

अतः एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिये कि यदि उनके पास कोई जातक अपनी जन्म कुण्डली लेकर आये तो वह उसकी कुंडली में दशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा , प्राण दशा तथा गोचर की स्थिति को देखकर ही कोई निर्णय दें व उपाय बताएं ।

इसके अतिरिक्त जातकों को चाहिए कि वह ज्योतिषीय उपायों को करने के साथ-साथ सत्कर्मो को करते हुए स्वयं भी उन उच्च कोटि के देवी-देवताओं की आराधना करते रहें जिन्होंने मनुष्यों को उनके पाप पुण्यों के भुगतान कराने के लिए यह ग्रह-नक्षत्रों का पूरा सैटअप बनाया है।

अंत में एक और बात यह कि ज्योतिष यहीं समाप्त नहीं हो जाता, कुंडली में ग्रहों के बलाबल, दृष्टि-युति संबंध, मारक, कारक, अकारक ग्रह, मुख्य कुण्डली में कहीं ग्रह अस्त तो नहीं हुआ अथवा अंशो में (डिग्रिकली) कम शक्तिशाली तो नहीं है, अष्टक वर्ग में बिंदुओं की स्थिति, वर्गोत्तम ग्रह ,पंचधामैत्री चक्र में ग्रहों की स्थिति, नक्षत्रों पर शुभ-अशुभ प्रभाव पड़ने वाले प्रभाव आदि इन सूक्ष्म बातों की विवेचना के आधार पर ही सूक्ष्म निर्णय दिये जा सकते हैं।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava