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मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

सनातन धर्म की आतंरिक चुनौतियाँ




सनातन धर्म के लिए दो प्रमुख चुनौतियाँ वर्तमान समय में हमारे लिए विकराल रूप धारण करती जा रही हैं जिनका उल्लेख मैं अपने इस ब्लॉग में करने जा रहा हूँ। जिनमें से प्रथम है विलुप्त होती प्राचीन पूजा पद्धति और द्वितीय है परंपरा से दीक्षित धर्म गुरुओं का अभाव।

पूजा पद्धति -

देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर से युद्ध को नाट्य रूप में प्रदर्शित करने के लिये बनाया गया 'डांडिया रास' जिसमें कभी शुद्ध भक्ति भाव समाहित हुआ करता था वह कब प्रेमी जोड़ों के मिलन का आयोजन बनकर रह गया हमें ज्ञात ही नहीं रहा।

वर्ष भर अच्छी वर्षा के लिये इंद्र आदि देवताओं के लिये यज्ञ द्वारा नवीन अन्न भेंट करने के लिये मनाया जाने वाला होली पर्व , जिसमें नगर तथा गाँव के हर चौराहों पर बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन हुआ करता था, कब हुड़दंगों से सरोबार हो गया हमें ज्ञात ही नहीं रहा।

रात्रि भर जागरण करते हुए दुर्गा सप्तशती तथा वेदोक्त देवी सूक्त के उच्च कोटि के मंत्रो द्वारा भगवती दुर्गा की उपासना करके प्रातः यज्ञ करके उनको आहुति प्रदान करने वाला तथा 9 दिनों तक शरीर में स्थित 9 चक्रों के भेदन के पश्चात सिद्धि प्राप्ति के लिये शास्त्रों में वर्णित 'नवरात्रि' का शुभ मुहूर्त कब फिल्मी संगीत पर आधारित भौंडे संगीत का आयोजन (जागरण) बनकर रह गया हमें ज्ञात ही नहीं रहा।

ब्रह्मांड में दो महा प्रलयंकारी शक्तियों के मिलन का सिद्ध मुहूर्त 'महाशिवरात्रि' जिसमें हम रात्रि जागरण करके उच्च कोटि के मंत्रो द्वारा शिव-शक्ति की सम्मलित शक्ति को एक साथ आत्मसात किया करते थे, कब 'भोले की बारात' बनकर रह गया, हमें ज्ञात ही नहीं रहा।

गोपनीय और दुर्लभ सिद्धियों की प्राप्ति के लिए शास्त्रों में वर्णित अत्यन्त सिद्ध मुहूर्त ( दीपावली ) कब विस्फोटक पदार्थों से विस्फोट करके प्रकृति के कण-कण में सूक्ष्म रूप में व्याप्त ब्रह्म चेतना को आहत करके उसे कुपित करने, मदिरापान और जुआ खेलने का पर्व बनकर रह गया, हमें ज्ञात ही नहीं रहा।

ऐसे अनेक उदाहरण आज मिल जाएंगे जिससे ज्ञात होता है कि भक्ति काल और उसके पश्चात हमारी पूजा पद्धति में किस प्रकार से विकृति आयी है जिसके कारण कभी अंतरिक्ष को भी अपने प्रलयंकारी शस्त्रों की टंकार से हिलाकर रख देने वाला 'हिन्दू' आज अपने ग्रन्थों में वर्णित मंत्रो की शक्ति से अज्ञान रहकर जीवन और मृत्यु के बीच रगड़ने को विवश है।


परंपरा से दीक्षित धर्म गुरुओं का आभाव-

हिंदुओं का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यदि परपंरा प्राप्त कुछ गिने-चुने धर्म गुरुओं को छोड़ दिया जाये तो उन्हें उनके ही धर्मगुरुओं ने कभी धर्म का सही स्वरूप समझाया ही नहीं अन्यथा आज धर्म के विषय में बोलने के लिए अनाधिकृत (जिसको अधिकार न प्राप्त हो) लोग अपनी चोंच न खोल रहे होते।

जिन हिंदुओं के 99% देवी-देवता अपने हाथों में विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्र धारण करके निरंतर यह संदेश देते हों कि दुष्ट, दुराचारी, विधर्मी आसुरी शक्ति वाले दुष्टों का वध करना पुण्य कार्य है पाप नहीं, उन्ही हिंदुओं को उनके धर्म गुरुओं ने केवल भक्ति का पाठ पढ़ाकर सनातन धर्म के साथ जो अन्नाय किया है उसका भुगतान हमारी आने वाली पीढ़ियों को करना होगा।

यहां तक भी ठीक था परंतु अब स्थिति यह है कि भक्ति काल और उसके पश्चात सनातन धर्म में कुकुरमुत्तों की भांति ऐसे अनेक सम्प्रदाय उग आये हैं जिनका उद्देश्य केवल अपने-अपने गुरुओं का महिमा-मंडन करना और अपने भक्तों को उन्हीं गुरुओं के इर्द-गिर्द भटकाये रखना है, जिससे उनके चंदे की दुकानें चलती रहें फिर चाहे धर्म की कितनी ही हानि क्यों न हो जाये।

इन सम्प्रदायों द्वारा चलाये गये ब्रेन वाशिंग प्रोग्राम से उनके चेलों की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि आप चाहे उनके समक्ष ईश्वर को कुछ भी कह लें परंतु यदि उनके सम्प्रदाय के गुरु के लिए आपने कुछ भी लिख दिया अथवा कह दिया तो वह आप पर झुंड लेकर टूट पड़ेंगे।

इनके अनुयायी संख्या बल में इतने अधिक हो चुके हैं कि हैं कि अनेक सरकारों को भी इनके वोट बैंक के कारण इनके समक्ष झुकना पड़ता है ।

यह तो निश्चित है कि मानव द्वारा निर्मित सब कुछ नष्ट हो जाना है फिर वह चाहे वह कोई पंथ हो, मजहब हो अथवा सम्प्रदाय ! शेष रहना है तो केवल ईश्वर द्वारा निर्मित धर्म और ज्ञान ! परंतु जब तक ऐसा नहीं हो जाता, तब तक हम इन पंथों, सम्प्रदायों तथा उनके अनुयायियों द्वारा सनातन धर्म में किये जा रहे अतिक्रमणों और उनकी सीमाओं के उल्लंघनों को झेलने के लिए विवश हैं।

(शिवार्पणमस्तु)


Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

ज्योतिष में रोग एवं आयु विचार



सामान्यतः यह कहा जाता है कि जिस समय जातक का जन्म होता है उसी समय उसकी मृत्यु का समय और कारण भी निर्धारित हो जाता है तथा वह अपने जीवन काल में किन-किन रोगों से ग्रसित होगा और उसका समय काल क्या होगा, उस जातक की जन्म पत्रिका में यह सब लिख दिया जाता है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या उस जातक के जीवनकाल में उत्पन्न होने वाले रोगों को बढ़ने से रोका जा सकता है अथवा उसकी आयु बढ़ाई जा सकती है ? ऐसे में वैदिक ज्योतिष हमें वह प्रकाश दिखाता है जिसके माध्यम से हम उस जातक के असाध्य रोगों को कम अथवा नगण्य कर सकते हैं तथा उसकी आयु वृद्धि भी कर सकते हैं।

जातक की जन्मकुंडली में बारह भाव उसकी शारीरिक संरचना को दर्शाते हैं जिसमें प्रथम भाव - जातक का सिर (Head) , द्वितीय भाव - मुख (Mouth & Face), तृतीय भाव - गर्दन और दाहिना कान (Throat & Right Ear), चतुर्थ भाव - छाती (Chest), पंचम भाव - उदर व हृदय (Stomach & Heart), षष्टम भाव - यकृत, आंतें, अग्नाशय एवं गुर्दा (Liver, Intestines, Pancreas & Kidney), सप्तम भाव - यौन अंग (Sex Organs), अष्टम भाव - गुदा (Anus), नवम भाव - नितम्ब, पीठ व कमर (Hips, Back & Waist), दशम भाव - जांघ और घुटना (Thighs & Knees), एकादश भाव - पिंडलियाँ एवं बांया कान (Calf & Left Ear) तथा द्वादश भाव - एड़ी से लेकर पंजो तक एवं बायें नेत्र (Heel to Toe & Left Eye) का माना जाता है।

यही नियम इनकी 12 राशियों, 27 नक्षत्रों एवं नवग्रहों पर भी प्रयुक्त होता है।

राशियां 
१. मेष- सिर, २. वृष- मुख (Mouth & Face) ३. मिथुन - गर्दन और दाहिना कान (Throat & Right Ear) ४. कर्क -छाती (Chest) ५. सिंह -उदर व हृदय (Stomach & Heart) ६. कन्या- यकृत, आंतें, अग्नाशय एवं गुर्दा (Liver, Intestines, Pancreas & Kidney)७. तुला-यौन अंग (Sex Organs) ८. वृश्चिक -गुदा (Anus) ९. धनु- नितम्ब, पीठ व कमर (Hips, Back & Waist) १०. मकर- जांघ और घुटना (Thighs & Knees) ११. कुम्भ- पिंडलियाँ एवं बांया कान (Calf & Left Ear)  १२. मीन-एड़ी से लेकर पंजो तक एवं बायें नेत्र (Heel to Toe & Left Eye)

ग्रह 
सूर्य- मानव शरीर में हड्डियों, दाहिना नेत्र, हृदय और उदर से संबंधित रोगों का कारक होता है।
चंद्रमा- वाम नेत्र, श्वेत रक्त कणिकायें (White Blood Cells), फेंफड़े, कैल्शियम तथा मानसिक रोगों का कारक होता है।
मंगल- गुर्दें, रक्तचाप ( Blood Pressure), ज्वर (Fever) आदि रोगों तथा वाहन, अग्नि, शस्त्र आदि से मृत्यु का कारक होता है।
बुध-  त्वचा, गूंगापन, हकलाहट, दमा रोग, जीभ तथा वाणी, मस्तिष्क और बुद्धि से संबंधित रोगों का कारक होता है।
गुरु- यकृत (Liver), चर्बी, मोटापा, दाहिना कान आदि से संबंधित रोगों का कारक होता है।
शुक्र- यौन अंग (Sex-Organs), पथरी, गर्भाशय तथा मूत्र संबंधित रोगों का कारक होता है।
शनि- बायां कान, घुटने, पिंडली, स्नायु तंत्र, लकवा, पक्षघात, गैस संबंधित समस्या एवं कैंसर जैसे रोगों का कारक होता है।
राहु- भूत-प्रेत जनित समस्याओं, विषाक्त पदार्थों के सेवन से होने वाली मृत्यु, मानसिक उत्तेजना एवं अकस्मात होने वाली मृत्यु का कारक होता है।
केतु- कुष्ठ रोग, फोड़े फुंसी, चेचक, विस्फोटक पदार्थों से होने वाली मृत्यु एवं महामारी का कारक होता है।

नक्षत्र
१. कृतिका - सिर, २. रोहिणी- माथा, ३. मृगशिरा- भौहें, ४. आद्रा- नेत्र, ५. पुनर्वसु- नाक, ६. पुष्य- मुख व होंठ , ७. आश्लेषा- कान, ८. मघा- ठोढ़ी, ९. पूर्वाफाल्गुनी- दाहिना कान, १०. उत्तराफाल्गुनी- बायां कान, ११. हस्त- अंगुलियां, १२.  चित्रा- गला, १३. स्वाति- छाती, १४. विशाखा- ह्रदय, १५. अनुराधा- यकृत, १६. ज्येष्ठा- आमाशय, १७. मूल- कांख, १८. पूर्वाषाढ़ा- पीठ, १९. उत्तराषाढ़ा- रीढ़ की हड्डी, २०. श्रवण- नितम्ब, २१. धनिष्ठा- गुदाद्वार, २२. शतभिषा- दायीं जांघ, २३. पूर्वाभाद्रपद- बायीं जांघ, २४. उत्तराभाद्रपद- पिंडलियाँ, २५. रेवती- टखने, २६. अश्वनी- पाँव का ऊपरी भाग, २७. भरणी- तलवे। 


ऐसे में एक कुशल ज्योतिषी को चाहिये कि वह जातक की जन्म कुंडली में 12 भावों, 12 राशियों पर स्थित ग्रहों तथा उन पर पड़ने वाले ग्रहों के प्रभावों तथा 27 नक्षत्रों पर स्थित ग्रहों का सूक्ष्म अध्ययन करके एवं रोगों के कारक ग्रहों  की स्थिति को ध्यान में रखकर फलादेश करे व उपाय बताये।

अब बात करते हैं आयु वृद्धि के उपायों की-
ज्योतिष शास्त्र में लग्न-लग्नेश, तृतीय-तृतीयेश, अष्टम-अष्टमेश एवम शनि यह सातों आयु के कारक माने गये हैं।
इन सातों का विचार करते हुए तथा रोग एवं मारकेश की स्थिति आदि का विचार करके उचित रत्नों, दान तथा मंत्रो का प्रयोग करके जातक की आयु 120 वर्ष तक बढ़ाई जा सकती है।
"शिवार्पणमस्तु"
Astrologer Manu Bhargava

सोमवार, 23 मार्च 2020

Devaasur Sangraam देवासुर संग्राम



भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये मैं आने वाले समय में आसुरी शक्तियों के उदय एवं देव शक्तियों की पराजय के अति दुर्लभ योग का वर्णन करने जा रहा हूँ ।

अंततः वह समय आ ही गया जब 3 माह के लिये आसुरी शक्तियां जीवों के अवचेतन मन (Subconscious Mind)
को अपने नियंत्रण में ले लेंगी। यही वह समय होगा जब चारों ओर शुक्र का वासनात्मक प्रभाव होगा और जिसके कारण सात्विक से सात्विक उपासना करने वाले साधक भी शुक्र के इस प्रभाव से बच नहीं पायेंगे।

यही वह समय होगा जब बड़े-बड़े मठाधीश और धर्म उपदेशक भी जो अब तक अपने तात्कालिक लाभ के लिये ग्रहों की शक्तियों को नकारते रहे हैं, वह भी भोगों में लिप्त होकर अपनी साधनाओं से पृथक हो जायेंगे।

तीन माह के इस अवधिकाल में जब तक देव गुरु बृहस्पति की शक्तियां क्षीण रहेंगी तब तक भूत-प्रेतों को सिद्ध करने वाले 'वाममार्गी' तथा काले जादू (Black Magic) से दूसरों का जीवन नष्ट करने वाले 'तामसी साधक' अपने कार्यों में सफल होंगे तथा पैशाचिक साधनाओं के जानकार 'शमशान जागरण' जैसी प्राण घातक क्रियाओं में भी विजय प्राप्त करेंगे।

अंधकार और वनों में छुपकर निवास करने वाली पिशाचनियाँ एवं चुड़ैलें नर बलि देकर महाभयानक शक्तियां प्राप्त करेंगी। भीम पुत्र घटोत्कच के द्वारा बसाई गयी 'मायोंग' नगरी की मायावी शक्तियां पुनः जाग्रत हो उठेंगी।

28 मार्च 2020 को दैत्य गुरु शुक्र के 4 माह के लिये स्वराशि में प्रवेश करने के कारण उसके बलवान होने तथा 30 मार्च को 3 माह के लिये देव गुरु बृहस्पति के अपने नीच राशि में प्रवेश करने से उसके क्षीण होने के कारण विश्व में आध्यात्मिक और देव शक्तियां पराजित होने लगेंगी तथा संसार में दुष्ट एवं पैशाचिक शक्तियों का प्रादुर्भाव होगा।

यह ऐसा समय काल होता है जिसमें वाममार्गी, कापालिक साधकों के द्वारा की जाने वाली वाममार्गी साधनायें शीघ्रता से फल देती हैं तथा दक्षिण मार्गी और सात्विक साधकों को असफलता प्राप्त होती है।

ऐसे में जो साधक 'वाममार्गी' एवं 'कर्ण पिशाचनी' जैसी घोर तमोगुणी साधनाओं को करना चाहते हैं उनके लिये यह काल अमृत के समान सिद्ध होगा।

किंतु जो साधक इस समय का उपयोग "काले जादू (Black Magic)" के माध्यम से दूसरों के जीवन में "नकारात्मक ऊर्जा (Negative Energy)" को भेजने में करना चाहते हैं उन सभी को मेरी चेतावनी है कि ऐसा भूलकर भी न करें क्यों कि 3 माह के पश्चात बृहस्पति के वक्री गति से स्वराशि में प्रवेश करते ही देव शक्तियां बलवान होने लगेंगी जो उनके स्वयं का सर्वनाश कर देगीं।

यद्दपि इस 4 माह के अवधि काल में शुक्र के स्वराशि में रहने से सांसारिक सुखों को ही सर्वस्व मानने वाले भोगी मनुष्यो के सुखों में महान वृद्धि होगी तथापि मनुष्यों को नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से स्वयं को रक्षित तो करना ही होगा।

ऐसे में जो मनुष्य इन दुष्ट शक्तियों एवं तामसी साधकों द्वारा भेजी गई मूठ, कृत्या जैसी शक्तियों से बचना चाहते हैं वह सभी आगामी नवरात्रि में, अग्नि पराभूत करने वाले 'अर्जुन' के 12 नामों को भोजपत्र पर, अष्टगंध की स्याही से अनार की कलम द्वारा लिखकर, लाल वस्त्र में, अपनी दाहिनी भुजा में बांध लें, बांधते समय मन ही मन भगवती दुर्गा के मंत्रों का जाप करते रहें।

उच्च कोटि के विद्वान एवं दक्षिण मार्गी तंत्र साधक, देवताओं के लिये भी दुर्लभ और हर प्रकार की कृत्या को नष्ट करने की क्षमता रखने वाली महाविद्या 'विपरीत प्रत्यंगिरा' शक्ति का आवाह्न करें जिससे आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त की जा सके।

अर्जुन के 12 नाम इस प्रकार से हैं-

  1. धनञ्जय - राजसूय यज्ञ के समय बहुत से राजाओं को जीतने के कारण अर्जुन का यह नाम पड़ा।
  2. कपिध्वज - महावीर हनुमान अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजमान रहते थे, अतः इनका नाम कपिध्वज पड़ा।
  3. गुडाकेश - 'गुडा' कहते हैं निद्रा को। अर्जुन ने निद्रा को जीत लिया था, इसी से उनका यह नाम पड़ा था।
  4. पार्थ - अर्जुन की माता कुंती का दूसरा नाम 'पृथा' था, इसीलिए वे पार्थ कहलाये।
  5. परन्तप - जो अपने शत्रुओं को ताप पहुँचाने वाला हो, उसे परन्तप कहते हैं।
  6. कौन्तेय - कुंती के नाम पर ही अर्जुन कौन्तेय कहे जाते हैं।
  7. पुरुषर्षभ - 'ऋषभ' श्रेष्ठता का वाचक है। पुरुषों में जो श्रेष्ठ हो, उसे पुरुषर्षभ कहते हैं।
  8. भारत - भरतवंश में जन्म लेने के कारण ही अर्जुन का भारत नाम हुआ।
  9. किरीटी - प्राचीन काल में दानवों पर विजय प्राप्त करने पर इन्द्र ने इन्हें किरीट (मुकुट) पहनाया था, इसीलिए अर्जुन किरीटी कहे गये।
  10. महाबाहो - आजानुबाहु होने के कारण अर्जुन महाबाहो कहलाये।
  11. फाल्गुन - फाल्गुन का महीना एवं फल्गुनः इन्द्र का नामान्तर भी है। अर्जुन इन्द्र के पुत्र हैं। अतः उन्हें फाल्गुन भी कहा जाता है।
  12. सव्यसाची - 'महाभारत' में अर्जुन के इस नाम की व्याख्या इस प्रकार है-
उभौ ये दक्षिणौ पाणी गांडीवस्य विकर्षणे। तेन देव मनुष्येषु सव्यसाचीति माँ विदुः।।
अर्थात् -
जो दोनों हाथों से धनुष का संधान कर सके, वह देव मनुष्य सव्यसाची कहा जाता है।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 6 मार्च 2020

Mahamariyon Ka Kaaran Aur Nivaran महामारियों का कारण और निवारण



भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये आज मैं संसार में महामारियों के कारक ग्रह केतु के विषय में विस्तार पूर्वक बताने जा रहा हूँ-

ज्योतिष शास्त्र में सभी प्रकार की महामारियों का कारक ग्रह 'केतु' को माना गया है । केतु एक धूम्र वर्ण का छाया ग्रह है जो कि अकस्मात शुभाशुभ फल देने के लिये प्रसिद्ध है। यह 'मंगल' के समान फल देता है, जिस ग्रह और जिस राशि में बैठा होता है उसकी भी छाया ले लेता है तथा अचानक से दुर्घटना, आगजनी, बम विस्फोट, नृशंस हत्याओं के लिये उत्तरदायी होता है।

विषाणु(Virus) जनित भयानक महामारियां जैसे (पोलियो, कोढ़, चेचक(Pox), प्लेग, स्वाइन फ्लू (H1N1), इबोला, जीका, कोरोना (Covid-19)आदि जो पूर्व में प्रकट हो चुकी हैं अथवा जितनी भी महामारियां भविष्य में प्रकट होने वाली हैं इन सभी का कारक केतु ही होता है। फोड़ें -फुंसी, सफेद दाग आदि भी जन्म कुंडली मे केतु की अशुभ स्थिति के कारण ही होते हैं।

कोढ़ी व्यक्ति, कुत्तों, भेड़ियों, लोमड़ियों तथा लकड़बग्घों में इसकी नकारात्मक ऊर्जा सर्वाधिक मानी जाती हैं यही कारण है कि शास्त्रों के अनुसार घरों में कुत्ता पालन निषेध किया गया है तथा कुत्ते के स्पर्श होने पर वस्त्र सहित स्नान करने का विधान निश्चित किया गया है जिससे केतु जनित रोगों से बचा जा सके।

ज्योतिष के ग्रंथों में केतु की अशुभ दशा प्राप्त होने पर कोढ़ी व्यक्तियों तथा कुत्तों को प्रसन्न करने का उल्लेख मिलने का भी यही कारण है कि इन दोनों को प्रसन्न करके स्वयं के लिए घातक केतु की नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव को कम किया जा सके।

यह तो बात हुई कारण की अब बात करते हैं निवारण की, तो देखिये संसार में जितने भी प्रकार के विषैले और हानिकारक तत्व हैं अथवा परमाणु विकिरण( Nuclear Radiation) हैं उन सभी को ब्रह्मांड में व्याप्त शिव तत्व, 'शिवलिंग' के माध्यम से निरन्तर अपने अंदर अवशोषित करता रहता है, जिसके कारण संसार के प्राणी इन विषैले तत्वों की भयानक ऊर्जा से बचे रहते हैं । यही कारण है कि हम वैदिक मंत्रों के द्वारा निरंतर शिवलिंग को जल, दुग्ध, घी, शहद आदि से शांत करने का प्रयास करते रहते हैं जिससे कि उस परम कल्याणमयी शिवलिंग के द्वारा हम विषैले तत्वों की नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से बचे रहें।

चूंकि केतु की ऊर्जा के कारण इन विषैले तत्वों को फैलने का माध्यम मिलता है अतः केतु की नकारात्मकता को रोकने का सामर्थ्य केवल भगवान् 'शिव' और उनकी 'शक्ति' में ही है अतः शिव-शक्ति की उच्च कोटि की साधनाओं के द्वारा केतु की उग्रता को समाप्त किया जा सकता है ।

प्राचीन काल में राजा-महाराजा इन महामारियों तथा अन्य अनिष्टकारी घटनाओं से अपनी तथा अपनी प्रजा की रक्षा के लिये समय-समय पर अपने कुल गुरुओं की आज्ञा से वैदिक तथा तांत्रिक विद्वानों की सहायता से बड़े-बड़े यज्ञ अनुष्ठान आदि करवाया करते थे, वर्तमान में न तो वह शासक ही धर्म के पथ पर चलने वाले रहे और न साधक ही।

ऐसे समय में अच्छे वेदपाठी तथा तांत्रिक विद्वान ढूंढना ही दुष्कर कार्य है तथा वह मिल भी जायें तो भारत के अधर्मी, विधर्मी तत्व ऐसे यज्ञों-अनुष्ठानों को क्रियान्वित नहीं होने देंगे जिनकी सहायता से कोरोना वायरस जैसी महामारियों का पूर्णतः विनाश किया जा सकता है।

ऐसे में भारत सरकार यदि उच्च कोटि के विद्वानों द्वारा प्रत्येक जिले में 1-1 'कोटि चंडी' अनुष्ठान, वेदपाठियों द्वारा सामूहिक रुद्राभिषेक तथा उच्च कोटि के तांत्रिक विद्वानों द्वारा दस महाविद्याओं के यज्ञों के आयोजन करवाये तो आगामी 10 वर्षों तक कोरोना वायरस ही नहीं अनेक प्रकार की दुष्ट शक्तियों से भारत तथा भारतवासियों की रक्षा हो सकेगी, साथ ही 'भगवती चंडी' के आशीर्वाद से राष्ट्र में रहकर राष्ट्र को क्षीण करने वाले 'दानव दलों' का सर्वनाश होगा तथा 'महाकाली' के आशीर्वाद के कवच से राष्ट्र की सीमायें भी सुरक्षित होंगी जिससे सनातन धर्म का भगवा ध्वज सम्पूर्ण दिशाओं में अपना परचम लहरायेगा तथा हिंदुत्व के शंखनाद से दसों दिशाओं में व्याप्त पैशाचिक शक्तियों का विनाश किया जा सकेगा।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

Gochar main Mangal- Ketu Yuti गोचर में मंगल-केतु युति




भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों का ध्यान करते हुये मैं 8 फरवरी  2020 को गोचर में होने जा रही मंगल-केतु युति के परिणामस्वरूप घटित होने वाली घटनाओं की पूर्व चेतावनी देने जा रहा हूँ-

गोचर में 26 दिसम्बर  2019 से अपनी ही राशि वृश्चिक में भ्रमण कर रहे मंगल 8 फरवरी  2020 को प्रातः  3:52 मिनट पर अपनी राशि परिवर्तन करने जा रहे हैं ।

इस दिन मंगल अपनी राशि वृश्चिक को छोड़कर बृहस्पति की राशि धनु में प्रवेश करेंगे जहां पहले से ही गुरु और केतु भ्रमण कर रहे हैं।

अतः गोचर में इस राशि परिवर्तन के साथ ही मंगल की केतु और बृहस्पति के साथ युति होने जा रही है जो कि 22 मार्च  2020को प्रातः  4:39 मिंनट तक रहेगी।
तत्पश्चात मंगल अपनी उच्च राशि मकर में पहले से ही स्थित शनि के साथ चले जायेंगे।

8 फरवरी से लेकर 22 मार्च तक के इस अवधि काल के अंतर्गत जब तक मंगल-केतु की युति रहेगी विश्व में भारी हिंसा, बम विस्फोट, आगजनी, साम्प्रदायिक दंगे, दो देशों में युद्धों की स्थिति, ट्रेन, बस, प्लेन दुर्घटनायें आदि देखने को मिलेंगी। तथा लोगों में हिसा की भावना में वृद्धि होगी।

चिकित्सा के क्षेत्र में अचानक सर्जरी आदि में अत्यधिक वृद्धि देखने को मिलेगी, और इस अवधि काल में समस्त विश्व में बहुत ऑपरेशन होंगे।

यद्द्पि देव गुरु बृहस्पति की इन दोनों ग्रहों के साथ युति इस विनाशकारी योग की विध्वंसकारी शक्ति को कम करने का प्रयास करेगी तथापि विश्व में इन घटनाओं को घटित होने से रोक नहीं पायेगी।

ऐसे में जिन लोगों की जन्म कुंडली में पहले से ही मंगल-केतु अशुभ स्थिति में हों अथवा उनकी युति जन्म कुंडली के किसी भी भाव में हो और दशा-अंतर्दशा भी अशुभ चल रही हो उन्हें इस अवधि काल में दूर की यात्रा टाल देनी चाहिये अन्यथा शरीर के जिस भाव मे यह युति होगी दुर्घटना से उस अंग की क्षति हो सकती है।

इस अवधिकाल में लोगों को यथा संभव तामसी आहार जैसे मांस-मदिरा आदि के प्रयोग से बचना चाहिये तथा किसी योग्य वैदिक विद्वान की सहायता से मंगल-केतु का वैदिक मंत्रों से हवन करवा लेना चाहिये और स्वयं हनुमान जी की उपासना करनी चाहिये जिससे मंगल-केतु युति की मारक क्षमता के प्रभाव को कम किया जा सके।

सभी को इस दुर्योग से बचाव के लिये केतु को प्रसन्न करने हेतु कुष्ठ रोगियों और कुत्तों की सेवा तथा मंगल की प्रसन्नता के लिये लाल वस्तुओं के दान मंगलवार के दिन मंगल की होरा में करने चाहिये तथा लाल एवं धूम्र वर्ण के वस्त्रों को धारण करने से बचना चाहिये जिससे मंगल-केतु की नकारात्मक रश्मियों के प्रभाव से उनका अवचेतन मन (Subconscious Mind) मुक्त रहे।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

सोमवार, 19 अगस्त 2019

Tantra Peethika Rahasay तंत्र पीठिका रहस्य



भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों मे अपना मस्तक रखते हुये तथा 'कालीतत्व रहस्य', दुर्गातत्व तथा पदार्थदर्श (शारदातिलक की व्याख्या) के रचनाकार और वेदांत तथा आगम शास्त्र के प्रकांड पंडित 'राघवभट्ट' जी को प्रणाम करते हुए मैं तंत्र शास्त्र में वर्णित उन चार पीठिकाओं का वर्णनं करने जा रहा हूँ जिनके बिना मंत्र सिद्धि नहीं की जा सकती।  दक्षिणमार्गी, मध्यममार्गी तथा वाम मार्गी तीनों ही प्रकार के साधकों के लिए उपयोगी ये चार पीठिकायें इस प्रकार हैं- 
१- श्मशान पीठ, २- शव पीठ, ३- अरण्य पीठ, 4- श्यामा पीठ 

(श्मशान पीठ)

जिस साधना में प्रतिदिन रात्रि काल में श्मशान भूमि में जाकर यथाशक्ति विधि से मन्त्र का जाप किया जाता है उसे 'श्मशान' पीठ कहते हैं। जितने दिन का प्रयोग होता है, उतने दिन तक मन्त्र का साधन यथाविधि किया जाता है। अधिकांशतः तंत्र साधक इसी पीठ का आश्रय लेते हैं क्यों कि यह पीठ शेष तीन पीठिकाओं के अपेक्षाकृत सरल है।

(शव पीठ)

किसी मृत कलेश्वर के ऊपर बैठकर या उसके भीतर घुसकर मन्त्रानुष्ठान संपूर्ण करना 'शव-पीठिका' है। प्रायः वाममार्गियों में इस पीठिका की प्रधानता देखी जाती है। कर्णपिशाचिनी, उच्छिष्ठ चाण्डालिनी, कर्णेश्वरी, उच्छिष्ठ गणपति
आदि उग्र शक्तियों की साधना तथा अघोर पंथियों की साधनाएं इसी पीठिका के द्वारा सम्पन्न होती हैं।

(अरण्य पीठ)

मनुष्य जाति का जहां संचार न हो, हिंसक पशुओं जैसे बाघ, सिंह, भालू, भेड़िये, विषैले सर्प आदि जहां बहुतायत में निवास करते हों, ऐसे निर्जन वन-स्थान में किसी पवित्र वृक्ष अथवा शून्य मंदिर (जहां कोई मनुष्य न आता जाता हो) का आश्रय लेकर मन्त्र-साधना करना और निर्भयतापूर्वक मन को एकाग्र रखकर तल्लीन हो जाना 'अरण्य-पीठिका' है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इसी पीठिका का आश्रय लेकर महान सिद्धियों को प्राप्त किया करते थे। 

(श्यामापीठ)

यह अत्यंत कठिन से कठिनतर पीठिका है , बहुत कम मनुष्य इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकते हैं। एकांत में किसी षोडशवर्षीय, नवयौवना, सुंदर कन्या को वस्त्र-रहित कर, स्वयं उसके सम्मुख बैठकर साधक मन्त्र-साधने में तत्पर हो तथा मन मे काम-वासना के विचार लाना तो दूर एक पल के लिए भी अपने मन को विचलित न होने दे और कठोर ब्रह्मचर्य में स्थित रहकर मन्त्र का साधन करे, इसे ही 'श्यामा-पीठिका' कहते हैं।  
जैन-ग्रन्थ में लिखा है कि द्वैपायनपुत्र मुनीश्वर शुकदेव, स्थूलिभद्राचार्य और हेमचंद्राचार्य ने इस पीठिका का आलम्बन लेकर मन्त्र-साधना की थी तथा वह सिद्ध हुये थे। 

चेतावनी- 
अंतिम और सर्वाधिक कठिन पीठिका (श्यामा पीठ) का वर्णन मैंने यहां केवल ज्ञान देने के उद्देश्य की पूर्ति मात्र के लिये किया है तथा यह पीठ कंठ तक वासना में डूबे कलियुगी मनुष्यों के लिए नहीं है, जिसका कारण यह है कलियुगी मनुष्यों में इतना संयम नहीं है कि वह इस पीठिका से उत्तीर्ण हो सकें तथा यह हमारी वर्तमान न्याय-व्यवस्था द्वारा दंडनीय अपराध भी है। अतः वर्तमान न्याय-व्यवस्था का सम्मान करते हुए भी किसी भी व्यक्ति को इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। तब भी यदि कोई साधक इस पीठिका का प्रयोग सिद्धियों की प्राप्ति के लिये करता है तो वह अपने विनाशकारी कर्म के लिये स्वयं ही उत्तरदायी होगा।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

Gati ya Adhogati गति या अधोगति




भगवान् शंकर और माता भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये तथा ऋषि पराशर जी के वचनों में श्रद्धा रखते हुये, आज मैं ज्योतिषशास्त्र के उन तीन गुप्त रहस्यों को प्रकट करने जा रहा हूँ जिसके विषय में जानने की हर मनुष्य की इच्छा होती है, वह तीन रहस्य इस प्रकार से हैं -

१- मनुष्य किस लोक से पृथ्वी पर आया है ?

२- मृत्यु के पश्चात उसके शव की क्या गति होगी ?

३- मृत्यु के पश्चात वह किस लोक को जायेगा ? 

रविचन्द्रबलाक्रांन्तम् त्र्यंशनाथे गुरौ जनः।
देवलोकात् समायातो विज्ञेयो द्विजसत्तम।।
शुक्रेन्द्वो: पितृलोकात्तु मर्त्याच्च रविभौमयोः।
बुधSSकर्योर्नरकादेवं जन्मकालाद्वदेत् सुधी:।।
अर्थात
रवि और चन्द्रमा जो बली हों वह यदि गुरु के द्रेष्काण में हों तो जातक देवलोक से आया है,अर्थात जन्म लेने से पूर्व वह देवलोक में रहता था, ऐसा जानना चाहिये। यदि शुक्र या चन्द्रमा के द्रेष्काण में हो तो वह पितृलोक (चन्द्रलोक) से आया है। इसी प्रकार यदि सूर्य-मंगल के द्रेष्काण में मर्त्यलोक से एवं बुध या शनि के द्रेष्काण में हो तो वह जातक नरक से आया है, ऐसा जानना चाहिये।

अग्न्यम्बु मिश्रभत्र्यंशैर्ज्ञेयो मृत्युरगृहाश्रितै:।
परिणामः शवस्याSत्र भस्मसंक्लेदशोषकै:।।
व्यालवर्गदृकाणयैस्तु विडम्बो भवति ध्रुवम्।
शवस्य स्वश्रृगालाधैर्गध्रकाकादिपक्षिभि:।।
अर्थात
लग्न से अष्टम स्थान में अग्नि तत्व वाले ग्रह का द्रेष्काण हो अर्थात अशुभ ग्रहों का द्रेष्काण हो तो जातक का शव अग्नि में जलाया जाता है। जलचर वाले ग्रह का द्रेष्काण हो तो जल में फेंका जाता है, मिश्र अर्थात शुभ-अशुभ ग्रहों का द्रेष्काण रहने से जातक का शव सूख जाता है। यदि व्याल (सर्प) द्रेष्काण हो तो कुक्कुर,श्रृगालादि हिंसक जंतुओं से या कौवा आदि पक्षियों से चञ्चु द्वारा चोंच से नोचकर शव का भक्षण किया जाता है।

गुरुश्चन्द्रसितौ सूर्यभूमौ ज्ञार्की यथाक्रमम्।
देवेन्दुभूम्यधोलोकान् न्यन्त्यस्तारिरंध्रगा:।।
अर्थात
लग्न से ६,७,८ भावों में गुरु (ब्रहस्पति) गया हो तो जातक देवलोक में जाता है एवं उक्त स्थानों में चंद्रमा-शुक्र हो तो जातक चंद्रलोक (पितृलोक) में जाता है तथा सूर्य-मंगल हो तो मर्त्य ( भूलोक) में और बुध-शनि उक्त स्थानों में स्थित हों तो जातक मरण के अनंतर अधोलोक (नरक) में जाता है । उक्त स्थानों में अधिक ग्रह बैठे हों तो जो ग्रह सार्वधिक बली हो वह ग्रह जिस लोक का कारक हो, जातक मरण के बाद उसी लोक में जाता है।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

Dus Mahavidhya Rahasaya दस महाविद्या रहस्य




दस महाविद्यायें और उनकी उत्त्पत्ति का रहस्य 

दस महाविद्याओं का संबंध परंपरातः सती (शिवा, पार्वती) से है। सती के पिता दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में भगवान् शिव को आमंत्रित नहीं किया, सती ने शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी। शिव ने अनुचित बताकर उन्हें रोका, परंतु सती अपने निश्चय पर अटल रहीं।

उन्होंने कहा- मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहां या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिये यज्ञभाग प्राप्त करूंगी या उस यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी।

यह कहते हुये सती के नेत्र लाल हो गये, वे शिव को उग्र दृष्टि से देखने लगीं, उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया, क्रोधाग्नि से दग्ध शरीर महाभयानक एवं उग्र दिखने लगा।

देवी का यह स्वरूप साक्षात महादेव के लिये भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय उनका श्री विग्रह करोड़ों मध्याह्न के सूर्यों के समान तेज-सम्पन्न था और वे बार बार अट्टहास कर रही थीं।

देवी के इस विकराल रूप को देखकर शिव(लीलावश) भाग चले। भागते हुये रुद्र को दसों दिशाओं में रोकने के लिये देवी ने अपनी अङ्गभूता दस देवियों को प्रकट किया। देवी की ये स्वरूपा शक्तियां ही 'दस महाविद्याएं' हैं । 

जिनके नाम हैं-  (१) काली(२) तारा (३) छिन्नमस्ता (४) भुवनेश्वरी (५) बगलामुखी (६) धूमावती (७) त्रिपुर सुंदरी (८) मातङ्गी (९) षोडशी (१०) त्रिपुर भैरवी।

शिव ने सती से इन महाविधाओं का जब परिचय पूँछा तब सती ने स्वयं इसकी व्याख्या करके उन्हें बताया-

येयं  ते पुरतः  कृष्णा सा काली भीमलोचना ।
श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्वं व्यवस्थिता ।।
सेयं   तारा   महाविद्या  महाकालस्वरूपिणी ।
सव्येतरेयं     या   देवी    विशीर्षातिभयप्रदा ।।
इयं    देवी   छिन्नमस्ता   महाविद्या   महामते ।
वामे   त्वेयं   या   देवी  सा  शम्भो भुवनेश्वरी ।।
पृष्ठतस्तव     या    देवी    बगला    शत्रुसूदनी ।
वह्निकोणे    तवेयं    या  विधावारूपधारिणी ।।
सेयं    धूमावती     देवी    महाविधा    महेश्वरी ।
नैऋत्यां   तव    या    देवी   सेयं   त्रिपुरसुंदरी ।।
वायौ   या   ते  महाविद्या  सेयं   मतङ्गकन्यका ।
ऐशान्यां   षोडशी   देवी  महाविद्या   महेश्वरी  ।।
अहं   तु  भैरवी  भीमा  शम्भो  मा  त्वं  भयं कुरु ।
एताः    सर्वा:   प्रकृष्टास्तु    मूर्तयो   बहुमूर्तिषु ।।

'शम्भो ! आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा एवं भयंकर नेत्रों वाली देवी स्थित हैं वह 'काली' हैं । जो श्याम वर्ण वाली देवी स्वयं ऊर्ध्व भाग में स्थित हैं यह महाकालस्वरूपिणी महाविद्या 'तारा' हैं । महामते ! बायीं ओर जो यह अत्यन्त भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं, यह महाविद्या 'छिन्नमस्ता' हैं । शम्भो ! आपके वामभाग में जो यह देवी हैं वह 'भुवनेश्वरी' हैं । आपके पृष्ठभाग में जो देवी हैं वह शत्रु संहारिणी 'बगला' हैं । आपके अग्निकोण में जो यह विधवा का रूप धारण करने वाली देवी हैं वह महेश्वरी महाविद्या 'धूमावती' हैं । आपके नैऋत्य कोण में जो देवी हैं वह 'त्रिपुरसुंदरी' हैं । आपके वायव्यकोण में जो देवी हैं वह मतङ्गकन्या महाविद्या 'मातङ्गी' हैं । आपके ईशानकोण में महेश्वरी महाविद्या 'षोडशी' देवी हैं । शम्भो ! मैं भयंकर रूप वाली 'भैरवी' हूँ । आप भय मत करें ! ये सभी मूर्तियां बहुत सी मूर्तियों में प्रकृष्ट हैं ।

इस प्रकार 'श्रीमन्महीधर भट्ट' द्वारा रचित दिव्य ग्रन्थ 'मंत्र महोदधि' में वर्णित 'दस महाविद्याओं' की उत्पत्ति का रहस्य समाप्त हुआ।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

Pralay Ka Varnana प्रलय का वर्णन



पवित्र महाभारत ग्रन्थ के 'शांतिपर्व' के अन्तर्गत 'मोक्षधर्मपर्व' में वर्णन किया गया है कि 'भगवान् शंकर', किस प्रकार से 'प्रलयरुद्र' बनकर सृष्टि का संहार कर देते हैं। 
भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में अपना मस्तक रखते हुये मैं 'संहारक क्रम' बताने जा रहा हूँ।

याज्ञवल्क्य उवाच
यथा संहरते जन्तून् ससर्ज च पुनः पुनः।
अनादिनिधनो ब्रह्मा नित्यश्चाक्षर एव च।।
याज्ञवल्क्य जी बोले
राजन् ! आदि और अंत से रहित नित्य अक्षरस्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियों की सृष्टि और संहार करते हैं यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो।

अहः क्षयमथो बुद्ध्वा निशि स्वप्नमनास्तथा।
चोदयामास भगवानव्यक्तोSहंकृतं नरम्।।
भगवान् ब्रह्मा जी जब देखते हैं कि मेरे दिन का अंत हो गया है तब उनके मन में रात को शयन करने की इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकार के अभिमानी देवता रुद्र को संहार करने के लिये प्रेरित करते हैं।

ततः शतसहस्त्रांशुरव्यक्तेनाभिचोदितः।
कृत्वा द्वादशधाSSत्मानमादित्यो ज्वलदग्निवत्।।
उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजी से प्रेरित होकर प्रचंड सूर्य का रूप धारण करते हैं और अपने को बारह रूपों में अभिव्यक्त करके अग्नि के समान प्रज्ज्वलित हो उठते हैं।

चतुर्विधं महीपाल निर्दहत्याशु तेजसा।
जरायुजाण्डजस्वेदजोदिभज्जं च नराधिप।।
भूपाल ! नरेश्वर ! फिर वे अपने तेज से "जरायुज,अण्डज,स्वेदज और उदिभज्ज" इन चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुये सम्पूर्ण जगत् को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं।

एतदुन्मेषमात्रेण विनष्टं स्थाणु जङ्गमम्।
कूर्मपृष्ठसमा भूमिर्भवत्यथ समन्ततः।।
पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत् का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओर से कछुए की पीठ की तरह प्रतीत होने लगती है।

जगद्  दग्ध्वामितबलः केवलां जगतीं ततः।
अम्भसा बलिना क्षिप्रमापूरयति सर्वशः।।
जगत् को दग्ध करने के बाद अमित बलवान् रुद्रदेव इस अकेली बची हुई सम्पूर्ण पृथ्वी को शीघ्र ही जल के महान प्रवाह में डुबो देते हैं।

ततः कालाग्निमासाद्य तदम्भो याति संक्षयम्।
विनष्टेSम्भसि राजेन्द्र जाज्वलत्यनलो महान्।।
तदन्तर कालाग्नि की लपट में पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र ! जल के नष्ट हो जाने पर अग्नि भयानक रूप धारण करती है और सब ओर से बड़े जोर से प्रज्ज्वलित होने लगती है।

तमप्रमेयोSतिबलं ज्वलमानं विभावसुम्।
ऊष्माणम् सर्वभूतानां सप्तार्चिषमथाञ्जसा।।
भक्षयामास भगवान् वायुरष्टात्मको बली।
विचरन्नमितप्राणस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।।
सम्पूर्ण भूतों को गर्मी पहुंचाने वाली तथा अत्यंत प्रबल वेग से जलती हुई उस सात ज्वालाओं से युक्त आग को बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपों में प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर नीचे तथा बीच में सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं।

तमप्रतिबलं भीममाकाशं ग्रसतेSSत्मना।
आकाशमप्यभिनदन्मनो ग्रसति चाधिकम्।।
तदन्तर आकाश उस अत्यंत प्रबल एवं भयंकर वायु को स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करने वाले उस आकाश को उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है।

मनो ग्रसति भूतात्मा सोSहंकारः प्रजापतिः।
अहंकारं महानात्मा भूतभव्यभविष्यवित्।।
क्रमशः भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मन को अपने में लीन कर लेता है। तत्पश्चात भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्व अहंकार को अपना ग्रास बना लेता है।

तमप्यनुपमात्मानं विश्वं शम्भु: प्रजापति:।
अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्यय:।।
सर्वतः पाणिपादान्तः सर्वतोSक्षिशिरोमुखः।
सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
हृदयं सर्वभूतानां पर्वणाड्गुष्ठमात्रक:।
अथ ग्रसत्यनन्तो हि महात्मा विश्वमीश्वरः।।
इसके बाद, जिनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र , मस्तक और मुख हैं , सब ओर कान हैं तथा जो जगत् में सबको व्याप्त करके स्तिथ हैं, जो सम्पूर्ण भूतों के हृदय में अँगुष्ठ पर्व के बराबर आकर धारण करके विराजमान हैं। अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता ज्योतिःस्वरूप , अविनाशी, कल्याणमय, प्रजा के स्वामी , अनन्त, महान और सर्वेश्वर हैं , वे परब्रह्म परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत्व को अपने में लीन कर लेते हैं।

ततः समभवत्  सर्वमक्षयाव्ययमव्रणम्।
भूतभव्यभविष्याणाम् स्त्रष्टारमनघम् तथा।।
तदन्तर ह्रास और वृद्धि से रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्म ही शेष रह जाता है उसी ने भूत, भविष्य और वर्तमान की सृष्टि करने वाले निष्पाप ब्रह्मा की भी सृष्टि की है।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Kulguru Kripacharya aur Karunamayi Arjun कुलगुरु कृपाचार्य और करुणामयी अर्जुन



महाभारत ग्रन्थ के सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोSध्याय में वर्णन है कि कुन्ती कुमार अर्जुन, कुलगुरु कृपाचार्य को अपने बाणों से आच्छादित करने के पश्चात किस प्रकार शोक से व्याकुल हो उठे थे।
अपने मस्तक को भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में रखते हुये मैं महाभारत ग्रंथ में वर्णित उस मार्मिक प्रसंग को प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

धृतराष्ट्र उवाच
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय।।
धृतराष्ट्र बोले 
संजय ! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।

संजय उवाच
सैन्ध्वं निहितं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत ।
अमर्षवशमापन्न: कृपः शारद्वतस्ततः ।।
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रोणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम्।।
संजय बोले
भरत नंदन ! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख कर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाणों की भारी वर्षा करते हुये पाण्डु पुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन ! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया।।
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्।।
रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे।।
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगदम् रथिनां वरः।।
इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी वर्षा से पीड़ित हो रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन अत्यंत व्यथित हो उठे।
सोSजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तन्यमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।।
वे युद्ध स्थल में गुरु तथा गुरुपुत्र का वध नहीं करना चाहते थे, अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहां अपने आचार्य का सम्मान किया।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूमस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्।।
उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये।
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखा: पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिम् शराणां तावगच्छताम्।।
अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुंची। वे बड़ी वेदना अनुभव करने लगे।
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह।।
राजन् ! कृपाचार्य अर्जुन के बाणो से पीड़ित हो मूर्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे।
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोSयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्।।
अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विह्वल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझ कर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया।
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम्।।
महाराज ! युद्ध स्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहां से हट जाने पर अश्वत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर किसी दूसरे रथी का सामना करने के लिये चला गया।
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदिव्यत्।।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
कृपाचार्य को बाणों से पीड़ित एवम मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुंती कुमार अर्जुन करुणावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे । उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी । वे दीन भाव से कहने लगे...।
पश्यन्निदं महाप्राज्ञ: क्षत्ता राजानमुक्तवान्।।
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भयम्।
जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था उस समय महाज्ञानी विदुर जी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि 'इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा;क्यों कि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियों को महान् भय उत्पन्न होगा।'
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः।।
तत्कृते ह्यघ पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।।
सत्यवादी विदुरजी का वह कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है। दुर्योधन के कारण ही आज मैं अपने गुरु को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रिय के आचार, बल, और पुरुषार्थ को धिक्कार है ! धिक्कार है।
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परम: सखा।।
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्वाणपीडित:।।
मेरे जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्य से द्रोह करेगा ? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्य के परम सखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पड़े हैं।
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम्।।
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
मैंने इच्छा न रहते हुये भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुंचाई है। वे रथ की बैठक में पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यंत पीड़ित सा कर रहे हैं।
ये च विद्यामुपादय गुरुभ्यः पुरुषाधमा:।।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
गुरु से विद्या ग्रहण करके जो नराधम उन पर ही चोट करते हैं वे दुराचारी मानव निश्चित ही नरकगामी होते हैं।
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम्।।
आचार्यम् शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है , निश्चित ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है ।
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने।।
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
'वार्ष्णेय !  युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है। मैं जो उन पर प्रहार करता हूँ ,इसके लिये मुझे धिक्कार है'।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava