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शुक्रवार, 23 मई 2025

उदर (Stomach) रोग वाली जन्मकुंडली का विश्लेषण व उपाय


 यह लगभग साढ़े चार वर्ष की एक छोटी बच्ची की जन्मकुंडली है । जिसका जन्म १० अक्टूबर २०२० को प्रातः ११ बजकर ३० मिनट पर गाजियाबाद जिले में हुआ है ।

अपनी बाल्यावस्था से ही इस बच्ची को पेट में कुछ न कुछ समस्याएं लगी रहती थीं और अभी गोचर में कुछ समय पूर्व बने पिशाच योग (राहु-शनि युति) में इस बच्ची को Appendicitis डिटेक्ट होकर Rupture हो गया (अपेंडिक्स फट जाना) । इसके पश्चात् इस बच्ची के परिवारजन इसे एक अच्छे हॉस्पिटल में लेकर गए जहां इसका फूड पाइप ब्लॉक हो गया और पेट भी फूल गया, तब यह जन्मकुण्डली मेरे पास आई । ईश्वर की कृपा से आज यह बच्ची सुरक्षित है ।

ऐसे क्या ज्योतिषीय कारण रहे होंगे जो इस छोटी बच्ची के साथ ऐसी घटना घटित हुई और ऐसी जन्मकुंडलियों में कौन से ज्योतिषीय उपचार करवाए जा सकते हैं ? आइए जानते हैं—

इस बच्ची की जन्मकुंडली का पंचम भाव (पेट का स्थान) षष्ठेश (रोगेश) मंगल के पाप प्रभाव में है जो कि वक्री भी है अर्थात् छठे भाव के अपने क्रूर फलों में भी लगभग तीन गुना वृद्धि कर चुका है ।

इसके अतिरिक्त यही मंगल, केतु अधिष्ठित राशि का स्वामी भी है अर्थात् इस मंगल की क्रूरता के पीछे स्वयं मंगल की छाया लिए हुए केतु की नकारात्मक ऊर्जा भी कार्य कर रही है ।  (१- फलित ज्योतिष में एक बहुत बड़ा सिद्धांत यह है कि किसी भी ग्रह की राशि पर यदि कोई दूसरा ग्रह भी स्थित हो तो वह पहला वाला ग्रह अपने शुभाशुभ फलों के साथ-साथ उस दूसरे ग्रह के भी फलों को भी देने लगता है, जो ग्रह उसकी राशि पर बैठा होता है )
२- राहु-केतु जिस भी ग्रह के साथ, जिस भी ग्रह की राशि में बैठते हैं, उसकी छाया ग्रहण कर लेते हैं और क्रमशः शनि-मंगल जैसे अपने पृथकतावादी प्रभावों के अतिरिक्त उस ग्रह के प्रभावों को भी देने लगते हैं ।) 

केवल इतना ही नहीं, मंगल की छाया लिए हुए यही केतु अपनी पंचम पाप दृष्टि से पंचम भाव को भी देख रहा है और इस पंचम भाव पर वर्गोत्तम शनि की तृतीय पाप दृष्टि भी है तथा पंचमेश बृहस्पति, शनि-केतु के पाप कर्तरी योग में घिरा हुआ है और पेट का कारक सूर्य, राहु की पंचम दृष्टि तथा रोगेश मंगल की सप्तम दृष्टि से ग्रसित है ।

यद्यपि यहां मंगल इस बच्ची का लग्नेश भी है तथापि उसकी मूल त्रिकोण राशि 'मेष' छठे भाव में स्थित होने से वह अपनी मूल त्रिकोण राशि का ही फल अधिक दे रहा है । अतः इस बच्ची का पंचम भाव (पेट का भाव), पंचमेश बृहस्पति (भावाधिपति) तथा पेट का कारक सूर्य—यह तीनों ही पीड़ित हैं ।

यदि भावात् भावम् सिद्धांत के अनुसार भी देखें तो पंचम से पंचम अर्थात् नवम भाव का अधिपति चंद्रमा भी अपने से द्वादश अर्थात् अष्टम् भाव (अशुभ स्थान) में स्थित है । जो कि रोगेश मंगल की चतुर्थ दृष्टि से तथा मंगल अधिष्ठित राशि के स्वामी बृहस्पति से दृष्ट है ।

एक तो इतने सारे कारण ही पर्याप्त थे इस बच्ची को बाल्यावस्था से ही पेट की इतनी गंभीर समस्या देने के लिए,  ऊपर से अभी गोचर में मीन राशि में लगभग ५० दिन के लिए बना पिशाच योग (शनि-राहु युति) जो कि १८ मई तक चला, वह भी इस बच्ची के पेट के स्थान पंचम भाव पर ही बन गया । इस बच्ची के लग्न पर गोचर लगाने पर मीन राशि इसके पंचम भाव में स्थित है, जहां १८ मई तक राहु-शनि ने संचार किया है तथा गोचर में भी भावात् भावम् सिद्धांत लगाने पर पंचम से पंचम अर्थात् नवम भाव पर षष्ठेश ( रोगेश) होकर नीच का मंगल संचार कर रहा है ।

इस सम्बन्ध में जानने के लिए मेरा पूर्व का ब्लॉग देखें—

यदि बात करें इस कुंडली में चल रही दशा-अंतर्दशा की तो वर्तमान समय में इसकी बृहस्पति की महादशा (पाप कर्तरी योग से पीड़ित पंचमेश की दशा) में चंद्रमा (अष्टम में गए हुए नवमेश) की अंतर्दशा में पेट के कारक सूर्य पर दृष्टि डालने वाले राहु (अकस्मात चिकित्सालय लेकर जाने वाला कारक ग्रह) की प्रत्यंतर दशा चल रही है ।


ऐसे में अत्यन्त अशुभ गोचर तथा अशुभ दशाओं के इस मेल ने इस बच्ची को गंभीर स्थिति में हॉस्पिटल तक पहुंचा दिया । मेरे पास जब यह जन्मकुंडली आई थी, तब तक इस बच्ची के जीवन को बचाने वाले चिकित्सकों ने भी अपने हाथ खड़े कर दिए थे किन्तु ईश्वर द्वारा हमें दिए गए ज्योतिष के वरदान और उनके आशीर्वाद से यह बच्ची अभी जीवित है ।

आइए बात करते हैं अब उन ज्योतिषीय उपायों की जिससे इस बच्ची के प्राणों की रक्षा हुई

सर्वप्रथम मंगल ग्रह के क्रूर प्रभावों को नष्ट करने के लिए तत्काल ही इस बच्ची के लिए ११ वेदपाठी ब्राह्मणों से ११ सुंदरकांड पाठ करवाए गए । इसके साथ ही दूसरे वेदपाठी ब्राह्मणों की टीम से इस बच्ची के मंगल, राहु, केतु जैसे पृथकतावादी ग्रहों की विधिवत् शांतियां करवाईं गईं और पंचम भाव (पेट के स्थान) के स्वामी ग्रह बृहस्पति का रत्न 'पुखराज' (बृहस्पति लग्नेश के मित्र होने तथा स्वराशि में स्थित होने से यहां द्वितीयेश होने पर भी मारक नहीं बनेंगे) तथा पेट के कारक ग्रह सूर्य का रत्न 'माणिक' इस बच्ची के गले में पेंडेंट में (रत्न उनकी उंगलियों में ही अपने पूर्ण फलों को देते हैं) धारण करवाया गया, जिससे भाव अधिपति बृहस्पति तथा कारक सूर्य दोनों ही को शक्ति प्राप्त हो सके ।

मेरे द्वारा ब्लॉग लिखे जाने तक यह बच्ची लगभग ८० प्रतिशत तक स्वस्थ हो चुकी है, इसके पूर्णतः स्वस्थ होने पर इसके लिए एक बार पुनः इन्हीं अशुभ ग्रहों की शांतियों के साथ एक महामृत्युंजय अनुष्ठान भी करवाया जाएगा, जिससे इस बच्ची को आगे इस प्रकार की कोई भी समस्या न आने पाए और यह निरोगी रहकर दीर्घायु प्राप्त कर सके क्योंकि आज जो समस्या इसके पेट में आई है, ठीक वैसी ही समस्या इसके हृदय (हार्ट) में भी आएगी, जिसका कारण यह है कि पंचम भाव केवल पेट का ही नहीं हार्ट का स्थान भी होता है तथा सूर्य केवल पेट का ही नहीं, हार्ट का भी निर्माण करता है ।
इस विषय को और अधिक सरलता से समझने के लिए चिकित्सा ज्योतिष पर आधारित मेरा यह ब्लॉग पढ़ें—

आगे चलकर इस बच्ची को हार्ट की भी समस्या आएगी, यह बात मैंने इसके परिवार में से अभी तक किसी को भी नहीं बताई है क्योंकि वह सभी पहले से ही इतना कष्ट प्राप्त करके चुके हैं, ऐसे में मैं उनको और अधिक व्यथित नहीं करना चाहता ।

आप सभी को यह जानकर बहुत प्रसन्नता होगी कि जो ज्योतिषीय उपाय इस बच्ची के पेट के लिए करवाए गए हैं, वही इसको जीवन में या तो कभी हार्ट की गंभीर समस्या उत्पन्न ही नहीं होने देंगे अथवा उस समस्या को बहुत कम कर देंगे क्योंकि जिन ग्रहों की शांतियां करवाई गई हैं, अब वह केवल पेट ही नहीं, हार्ट को भी हानि नहीं पहुंचा सकेंगे तथा जिन ग्रहों के रत्न धारण करवाए गए हैं वह इस बच्ची के पेट के साथ-साथ इसके हार्ट को भी बल प्रदान करेंगे और इस प्रकार यह छोटी बच्ची तथा इसका परिवार कभी यह जान नहीं सकेगा कि और बड़े दुःख उनके जीवन में आ सकते थे जो कि नहीं आए ।


नोट— १—इस बच्ची को आजीवन नीले, लाल तथा गहरे स्लेटी रंगों को स्वयं से दूर रखना होगा तथा गहरे पीले रंगों का प्रयोग जीवन में बढ़ाना होगा ।

२— आयु में कुछ बड़ी होने पर इस बच्ची को यही दोनों रत्नों को पेंडेंट से निकलवाकर अपने बाये हाथ की उंगलियों में धारण करने होंगे । पुखराज (तर्जनी), माणिक (अनामिका), (स्त्रियों को बाएं हाथ तथा पुरुषों को दाहिने हाथ में रत्न धारण करने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं ।)

३—जीवन भर राहु, केतु तथा मंगल के दान करते रहने होंगे जिससे उनके पाप प्रभावों में और भी अधिक कमी आ सके तथा पीले रंग की वस्तुओं का कभी भी दान नहीं करना होगा अन्यथा बृहस्पति के बल में भी कमी आ जाएगी जबकि इसे अपने बृहस्पति को सदा बलवान रखना है । (पंचमेश होने के कारण)

४—भगवान् विष्णु इसके इष्टदेव हैं, कुछ बड़ी होने पर किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से इस बच्ची को इसके अधिकार की सीमा में आने वाले भगवान् नारायण (श्री हरि विष्णु, श्री राम, श्री कृष्ण) के मंत्र की दीक्षा लेकर उनके मंत्रों के जप करने चाहिए, जिससे इसके इष्टदेव की कृपा भी इस पर बनी रहेगी ।


इस ब्लॉग को लिखने के पीछे का मेरा उद्देश्य १ प्रतिशत भी प्रशंसा प्राप्त करना नहीं है । लोकेष्णा (अपने ही जैसे नाशवान प्राणियों से सम्मान प्राप्त करने की तृष्णा) से मैं जितनी घृणा करता हूँ शायद ही कोई दूसरा करता होगा ।
इस विषय पर पढ़ें मेरा ब्लॉग—

मेरा तो इस ब्लॉग को लिखने का उद्देश्य केवल यही है कि ईश्वर की कृपा से जो विद्या मुझे प्राप्त हुई है, वह मेरी मृत्यु के उपरांत कहीं मेरे साथ ही नष्ट न हो जाए तथा हो सकता है कि मेरे न रहने के पश्चात् भी मेरा यह ब्लॉग ऐसे ही कितने जातकों का जीवन बचाने में सहायक सिद्ध हो जाए । यदि ऐसा होता है तो ईश्वर अपने जिन कार्यों को करवाने के लिए हमें ज्योतिष विद्या का यह ज्ञान देकर इस संसार में भेजते हैं, उनके उन कार्यों को करके मैं परम् शांति के साथ उनके श्री चरणों में विलीन हो सकूंगा ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 6 मार्च 2025

पिशाच योग (शनि-राहु युति २०२५)


शीघ्र ही गोचर में एक बहुत बड़ा दुर्योग बनने जा रहा है जिसके विषय में मैं बहुत समय पूर्व से संकेत करता आ रहा हूँ , ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसका नाम है—'पिशाच योग'।

२९ मार्च को शनि द्वारा राशि परिवर्तन कर लेने के साथ ही गोचर के अन्तर्गत 'मीन राशि' में शनि-राहु की युति बन जायेगी जो कि १७ मई तक रहेगी, १८ मई को राहु-केतु द्वारा राशि परिवर्तन करने के उपरान्त ही शनि-राहु की यह युति भंग हो सकेगी । ब्रह्माण्ड में होने जा रही अत्यन्त दुर्लभ यह घटना पिशाच योग को जन्म देगी ।

शनि-राहु जैसे दो पापी ग्रहों की युति किसी भी अवस्था में शुभ नहीं कही जा सकती । अपने जीवनकाल में अब तक मैंने जितनी भी जन्म-कुंडलियों में शनि-राहु की युति पाई है, उनमें उस जातक के लिए मैंने विशेष विध्वंसात्मक तत्वों की अधिकता ही देखी है, जिनका उल्लेख करके मैं इस ब्लॉग को पढ़ने वाले जनमानस के हृदयों में भय उत्पन्न नहीं करना चाहता ।

यद्यपि गोचर में दो अत्यन्त पृथकतावादी पाप ग्रहों की होने जा रही यह युति अनेक दुर्योगों को जन्म देने वाली सिद्ध होगी तथापि राहु द्वारा १६ मार्च को शनि के नक्षत्र (उत्तराभाद्रपद) से निकलकर, बृहस्पति के नक्षत्र (पूर्वाभाद्रपद) में संचार करने के कारण राहु के स्वभाव में ज्ञान तथा अध्यात्मिक भावना आ जाएगी, जिसके कारण वह धार्मिक जातकों की उतनी हानि नहीं कर सकेंगे जितनी कि शनि के साथ होने वाली इस युति के कारण कर सकते थे ।

यह सत्य है कि गोचर में शनि-राहु की युति होना कभी भी एक उत्तम योग नहीं होता किन्तु इस योग के बनने के समय राहु द्वारा बृहस्पति के नक्षत्र में संचार करने से यह समय तंत्र साधना के लिए अत्यन्त शुभ हो जाएगा ।

राहु गूढ़ रहस्यों-रहस्यमयी विद्याओं, शनि वैराग्य तथा बृहस्पति ज्ञान व अध्यात्म के कारक ग्रह होते हैं । ऐसे में राहु द्वारा बृहस्पति की राशि तथा बृहस्पति के ही नक्षत्र में शनि के साथ युति को प्राप्त हो जाने के कारण साधकों को ज्ञान, वैराग्य तथा भक्ति की सहायता से रहस्यमयी सिद्धियां प्राप्त करने के लिए नई ऊर्जा प्राप्त होगी, जिसके कारण तन्त्र साधनाओं के लिए यह समयकाल अत्यन्त विलक्षण हो जाएगा । इस समय साधकों की सुषुम्ना नाड़ी भी अधिक समय तक जाग्रत रहेगी, जिसके कारण उन्हें सिद्धियां प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगेगा ।

यदि इस युति के परिणाम से उत्पन्न दुर्योगों की बात करें तो—सभी जातकों की जन्मकुंडली में शनि जिन-जिन भावों के स्वामी और कारक होंगे, उनसे सम्बन्धित पदार्थों को राहु हानि पहुंचाएंगे तथा शनि की छाया लिए हुए राहु जहां-जहां दृष्टि डालेंगे, वहां-वहां वह दृष्टियां भी विशेष अनिष्टकारी हो जायेंगी (शनि की छाया ग्रहण कर लेने के प्रभाव से) ।

अतः बुद्धिमान मनुष्यों को इस अवधिकाल में राहु के निमित्त जो दान शास्त्रों में बताए गए हैं, शनिवार के दिन (शनि की होरा में ) उन दानों को करना चाहिए तथा नील वर्ण के वस्त्रों को धारण करने से, तम्बाकू से बने उत्पादों का सेवन करने से व अधिक पुरानी काष्ठ को अपने समीप रखने से बचना चाहिए ।

राहु, भगवती दुर्गा के परम् भक्त होते हैं इसलिए स्मार्त्त अथवा शाक्त परम्परा से दीक्षित योग्य ब्राह्मण गुरु द्वारा प्राप्त भगवती के मंत्र' का जप करने से राहु अपने नकारात्मक प्रभाव को समाप्त कर देते हैं ।

इसके अतिरिक्त जो जातक अदीक्षित हैं वह बिना प्रणव (ॐ) का उच्चारण किए देवी के विभिन्न स्त्रोतों का पाठ कर सकते हैं ।

जो जातक किसी कारणवश यह भी नहीं कर सकते वह किसी 'जाग्रत देवालय' में जाकर भगवती को नारियल व श्रृंगार की वस्तुएं भेंट करके उनसे अपने कल्याण की प्रार्थना कर सकते हैं ।

गोचर में लगभग ५० दिन के लिए बनने जा रहे शनि-राहु योग के इस अवधिकाल में भगवती की योगिनी शक्ति, शनि-राहु की सहायता से विश्व भर में भूकंप, सुनामी, चक्रवात लाकर अनेक प्राणियों को विदीर्ण करेगी । अतः लगभग ५० दिनों का यह समयकाल मौसम वैज्ञानिकों के लिए बहुत चुनौतियों से भरा हुआ रहने वाला है । इसके अतिरिक्त मार्च के महीने में पड़ने वाले चंद्रग्रहण व सूर्यग्रहण, भचक्र में एक नवीन प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का निर्माण कर देंगे, जिसके कारण यह ५० दिन विश्व भर में प्राकृतिक आपदाओं तथा दुर्घटनाओं के लिए और भी अधिक घातक हो जाएंगे ।

इधर नीच राशि में स्थित मंगल भी दुर्घटनाओं तथा अग्निकांडों की ओर संकेत कर रहा है ।  १४ मार्च को पड़ने जा रहे चंद्रग्रहण के एक दिन पूर्व से ही विश्वभर के भूगर्भ वैज्ञानिकों के लिए चुनौतियां आरम्भ हो जायेंगी, जिनका निर्वाहन करने का समय भी उनको प्राप्त न हो सकेगा । विद्वान मनुष्यों को बड़े भूकंपों से सावधान रहने की आवश्यकता है ।

यदि और अधिक सरल शब्दों में कहूं तो शनि-राहु की युति के इस अवधिकाल को ईश्वर की शरण में रहकर शान्ति के साथ निकालने की आवश्यकता है क्योंकि मीन राशि में होने जा रही इस युति के कारण अब तक वहां संचार कर रहे उच्च के शुक्र भी अपनी शुभता को खो देंगे तथा वह विभिन्न जातकों के जिस-जिस भाव के स्वामी व कारक होंगे वहां से सम्बन्धित पदार्थों की हानि करने लगेंगे ।

नोट— 

[ ] शनि के राशि परिवर्तन कर लेने के साथ ही कुछ जातकों की ढैया-साढ़े साती समाप्त, तो कुछ की आरम्भ होगी किन्तु यह इस ब्लॉग का विषय न होने से इस विषय में यहां जानकारी नहीं दे रहा हूँ । यदि संभव हुआ तो उसके लिए अलग से एक ब्लॉग लिख दूंगा । 


[ ] ज्योतिष शास्त्र में श्रद्धा रखने वाले विद्वान मनुष्यों को २९ मार्च से लेकर १८ मई तक अपने बच्चों की डिलीवरी करवाने से बचना चाहिए । यदि संभव हो सके तो २९ मार्च से पूर्व (शनि-राहु युति बनने से पूर्व) अथवा ६ जून के पश्चात् (मंगल के नीच राशि में संचार करने के कारण) ही बच्चों की डिलीवरी हो अन्यथा उनकी जन्म-कुंडली में जीवनभर के लिए शनि-राहु की युति तथा नीच राशि के मंगल की स्थिति बन जाएगी, जो कि बहुत कष्टकारी सिद्ध होगी । 

"शिवार्पणमस्तु"

—Astrologer Manu Bhargava

मंगलवार, 8 अक्टूबर 2024

सनातन धर्म की आन्तरिक चुनौतियां भाग—३

भाग १ तथा २ देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं—

९ अक्टूबर को देव गुरु बृहस्पति 'वृष राशि' में, 'मृगशिरा नक्षत्र के द्वितीय चरण' में वक्री होने जा रहे है, जिसका शुभाशुभ प्रभाव सभी राशि-लग्न वाले जातकों पर पड़ने वाला है । इधर 'शनि' पहले से ही वक्री चल रहे हैं जो कि १५ नवम्बर को मार्गी होंगे ।

गोचर में संचार कर रहे ग्रहों की परिवर्तित होती स्थितियों के कारण ही हमारे जीवन में भी प्रत्येक क्षण परिवर्तन आते रहते हैं (यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे) । अतः ये मान-सम्मान , हानि-लाभ, सुख-दुःख, जय-पराजय और जीवन-मृत्यु सब कुछ परिवर्तनशील है, इनमें से कुछ भी स्थिर नहीं है । इसलिए विद्वान मनुष्यों को इनमें से किसी से भी मोहित नहीं होना चाहिए और निरन्तर अपने इष्टदेव के मंत्रों का जप करते हुए सदा उन्हीं की शरण में रहना चाहिए ।

ईश्वर द्वारा ज्योतिष शास्त्र के निर्माण का कारण ही यह था कि मनुष्य अपनी जन्मकुंडली तथा गोचर में संचार कर रहे ग्रहों की स्थितियों को देखकर, उनके द्वारा स्वयं पर पड़ने वाले शुभाशुभ परिणामों का अवलोकन करके, मंत्र-यज्ञ-दान-रत्न आदि चिकित्साओं द्वारा अपना उपचार करते हुए, सुखी जीवन व्यतीत कर सके और सरलता से मोक्ष तक की अपनी यात्रा संपन्न कर सके । यही कारण है कि ज्योतिष को ईश्वर का दिखाया हुआ प्रकाश (ज्योति+ईश) कहते हैं ।


वर्तमान काल की भांति, प्राचीन काल में ज्योतिष शास्त्र केवल भाग्य बताने अथवा मुहूर्त आदि निकालने तक ही सीमित नहीं था । प्राचीन काल में ज्योतिषीय गणना के आधार पर राजाओं के यहां नियुक्त विद्वान राजज्योतिषी उन्हें उनके राज्य में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं की सूचना पहले से ही दे दिया करते थे, जिससे प्रजा तथा उस राज्य की सुरक्षा की जा सके । ऐसी ही कितनी ही भविष्यवाणियां तो स्वयं मैं ही वर्षों से करता हुआ आ रहा हूँ, जो कि पूर्णतः सत्य घटित हुई हैं । जो लोग मुझे वर्षों से जानते हैं , वह इस बात के साक्षी हैं ।

स्वयं व्यास जी ने महाभारत युद्ध होने से पूर्व 'भारतवर्ष' (सम्पूर्ण आर्यवर्त) में पड़ने वाले सूर्य-चंद्र ग्रहण तथा गोचर में ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति देखकर, राजा धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध में होने वाले महाविनाश की चेतावनी पहले ही दे दी थी, जिसका विवरण हमें महाभारत ग्रंथ में प्राप्त होता है । ऐसे में जब आज हम देखते हैं कि मलेच्छ प्रवृत्ति के धर्मद्रोही तत्वों के साथ-साथ कुछ अशास्त्रीय कथावाचक (सभी नहीं) भी ज्योतिष शास्त्र की निंदा करने में लगे हुए हैं तो इसके मूल में और कुछ नहीं कलियुग का प्रभाव ही है ।


वैदिक परम्परा प्राप्त कथावाचकों की आड़ लेकर, उनकी पीठ पीछे छुपकर, स्वयं ही मंत्र दीक्षा लेने-देने, यज्ञ करने-करवाने तथा व्यासपीठ पर बैठकर कथा कहने के लिए अनधिकृत होते हुए भी, अपने कल्ट में ब्राह्मणों से लेकर मलेच्छों तक को मंत्र दीक्षा दे रहे ऐसे अनेक 'वर्णेतर' तत्व हमें यह बताने का कष्ट करेंगे कि बिना शुभ मुहूर्त के क्या वह कोई कथा-व्यास पूजन-यज्ञ आदि करवा सकते हैं ? यदि हां तो कैसे और यदि नहीं तो ये मुहूर्त इन्हें कौन बताएगा ?
इसका उत्तर है—ज्योतिष शास्त्र ।

वास्तव में ज्योतिष शास्त्र वेद के ६ अंग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छंद, निरुक्त) जिन्हें वेदांग कहा जाता है, में से एक है और यह वेदांग में इतना महत्वपूर्ण स्थान रखता है कि इसे वेद के नेत्र का स्थान प्राप्त है । महर्षि पाणिनि ने भी ज्योतिष शास्त्र को वेदपुरुष का नेत्र कहा है तथा जितने प्राचीन वेद हैं, उतना ही प्राचीन ज्योतिष शास्त्र भी है ।

जिन महर्षि वेदव्यास जी के द्वारा लिखे गए पुराणों की कथा सुनाकर ये अशास्त्रीय-अनाधिकृत कथावाचक और कल्ट गुरु अपने यजमानों से मान-सम्मान तथा धन आदि प्राप्त करते हैं, उन्हीं महर्षि वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर जी, ज्योतिष शास्त्र (वैदिक ज्योतिष) के एक महान ज्ञाता थे, जिनके द्वारा लिखित ग्रंथ 'बृहत् पराशर होरा शास्त्र' में वर्णित ज्योतिष के गूढ़ सिद्धांतों का अनुसरण करके ही अधिकांश ज्योतिषाचार्य, सभी जातकों को उनका भविष्यफल बताया करते हैं ।

अब बात करते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वह कौन से ग्रह तथा भाव-भावेश होते हैं जिनके कारण कोई व्यक्ति व्यासपीठ पर बैठकर, अपनी कथाओं के माध्यम से हजारों-लाखों श्रोताओं को ज्ञान देकर उनका जीवन बदलने में सक्षम हो पाता है ? 
इसका उत्तर है— जन्मकुंडली के द्वितीय भाव-द्वितीयेश (वाणी स्थान और उसका स्वामी ग्रह) तथा नवम भाव-नवमेश (धर्म स्थान और उसका स्वामी ग्रह) पर पड़ने वाले शुभ ग्रहों का प्रभाव तथा वाणी के कारक बुध और ज्ञान के कारक बृहस्पति का उसकी जन्मकुंडली में शुभ स्थिति में बैठना ।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी भी मनुष्य की वाणी तथा लेखन का कारक बुध होता है और ज्ञान तथा आध्यात्मिकता का कारक बृहस्पति । ऐसे में कोई भी ऐसा धर्मगुरु जो कि अच्छा वक्ता-लेखक-ज्ञानी तीनों हो, तो इसका कारण उसकी जन्मकुंडली में बुध तथा बृहस्पति की स्थिति का अत्यन्त शुभ होना होता है । ऐसे में यदि उसके द्वितीय भाव-द्वितीयेश, नवम भाव-नवमेश पर भी शुभ ग्रहों का प्रभाव हो, तो वह एक अच्छा कथावाचक-धार्मिक वक्ता बनकर देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करता है किन्तु वर्णेतर होने अथवा राहु के पाप प्रभाव के कारण अनेक बार ऐसा व्यक्ति किसी नए 'कल्ट' के निर्माण का भी कारण बन जाता है । उसकी जन्मकुंडली में इन ग्रहों की स्थिति भी विशाल जनसमुदाय को अपनी ओर आकर्षित करने में उसकी पूरी सहायता करती है, यही कारण है कि विश्व भर में बहुत से ऐसे कल्ट बनते आए हैं और बनते रहेंगे जिनके धर्मगुरुओं (जो वास्तव में अधर्म गुरु होते हैं) ने अपनी जन्मकुंडलियों में बने हुए ऐसे योगों का दुरुपयोग करके विशाल जनसमुदाय को मूर्ख बनाने का कार्य किया । ऐसे अनेक कल्ट गुरुओं के ग्रहों का प्रभाव तो ऐसा है कि उनकी मृत्यु के सैंकड़ों वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् भी आज तक लोग उनकी लिखी हुई पुस्तकें (कुछ किताबें भी) लाकर पढ़ते हैं और उनके कल्ट को आगे बढ़ा रहे हैं ।

किसी भी जातक की जन्मकुंडली का द्वितीय भाव जो कि धन का भी भाव होता है, द्वितीयेश (धनेश) धनभाव का स्वामी ग्रह होता है तथा धन का कारक देव गुरु बृहस्पति होता है । ऐसे में उस अशास्त्रीय धर्मगुरु-कथावाचक-कल्ट गुरु की जन्मकुंडली में इन पर पड़ने वाले शुभ प्रभाव के कारण उसको अपने जीवन में कभी धन की भी कोई कमी नहीं रहती । अतः इससे यह सिद्ध होता है कि ज्योतिष शास्त्र की निंदा करने वाले कल्ट गुरु एवं अशास्त्रीय कथावाचक भी स्वयं ग्रहों के ही आधीन होते हैं ।

यदि ये सारे ज्योतिषीय सूत्र छोड़ भी दिए जाएं (क्योंकि ज्योतिष के ज्ञान के बिना इनको यह सूत्र समझ में नहीं आएंगे), तो भी मैं अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए भगवान् श्रीराम-कृष्ण आदि के नाम से अपनी दुकान चलाने वाले इन सभी महानुभावों से आज यह समझना चाहता हूँ कि वह कौन से ऋषि थे जिन्होंने भगवान् श्री राम चंद्र की जन्मकुंडली देखकर उनके जीवन में प्राप्त होने वाले दुःखों की भविष्यवाणी कर दी थी और क्या महर्षि गर्ग ने भगवान् श्री कृष्ण की जन्मकुंडली देखकर उनका नामकरण संस्कार नहीं किया था ? 

वास्तव में सत्यता यह है कि आज जितने भी परम्परा प्राप्त प्रामाणिक धर्माचार्य अथवा कथावाचक हैं, वह सभी ज्योतिष शास्त्र का महत्व जानते हैं और ज्योतिष शास्त्र को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । वह जानते हैं कि ज्योतिष की निंदा अर्थात् वेद की निंदा है (वेदांग होने के कारण) और किसी वेद निंदक को कथावाचक या धर्माचार्य कहना तो दूर की बात है, वह तो हिंदू कहलाने के योग्य भी नहीं होता क्योंकि—
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय: ।
अर्थात्— वेदों में विहित बताए गये कर्मो को करना धर्म है और उसके विपरीत (वेदों में निषिद्ध) कार्यों को करना अधर्म है।

ऐसे वह नकली कथावाचक और कल्ट गुरु, जो वर्णेतर और धर्मेतर होने के कारण व्यासपीठ पर बैठने के लिए अधिकृत भी नहीं हैं (जिनमें से अधिकांश तो उस कल्ट के ही अनुयायी है, जिन्होंने अनधिकृत होते हुए भी आजकल भगवान् श्री कृष्ण के नाम पर देश-विदेश में धर्म की दुकान लगाई हुई है), उनसे मुझे यही कहना है कि—

यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्यौतिषं खलु निन्दति ।
रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि ।।
अर्थात् —
जो मानव ज्योतिष शास्त्र को अच्छी प्रकार न समझकर उसकी निंदा करता है, वह रौरव नामक नरक में वास करके अन्धा होकर जन्म ग्रहण करता है।।
(बृहतपाराशर होरा शास्त्रम्)

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

लग्न और लग्नेश

किसी भी जातक की जन्म-कुण्डली में 'लग्न' से हम उसका स्वास्थ्य, उसकी आयु , उसके शरीर की बनावट तथा उसको जीवन में मिलने वाला मान-सम्मान आदि देखते हैं । जीवन की यात्रा ही लग्न से आरंभ होती है, जो कि १२वें भाव (व्यय स्थान) पर जाकर समाप्त हो जाती है । लग्न के स्वामी ग्रह को 'लग्नेश' कहते हैं, जो कि किसी भी जातक की जन्मकुंडली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

लग्नेश जन्मकुंडली के १२भावों में जहां भी स्थित हो जाता है, हमें उसी भाव से सम्बन्धित पदार्थों में आसक्ति उत्पन्न करवा देता है क्योंकि लग्नेश और कोई नहीं हम स्वयं होते हैं । ऐसे में जहां-जहां हमारा लग्नेश जाता है हम भी उन्हीं-उन्हीं स्थानों पर अपनी आसक्ति करने में विवश होते हैं ।

लग्न-लग्नेश पर शुभ प्रभाव हो, लग्नेश केंद्र-त्रिकोण में बैठा हो तथा नीच का न हुआ हो, तो ऐसा जातक अच्छी आयु, स्वास्थ्य और मान-सम्मान का सुख प्राप्त करता है किन्तु इसके विपरीत लग्न-लग्नेश पर पाप ग्रहों का प्रभाव हो, लग्नेश ६, ८, १२ वें भाव में हो, अपनी नीच राशि में स्थित हो या अस्त हो जाए तो ऐसे में उस जातक को संसार में अनेक प्रकार के कष्ट और अपयश भोगने पड़ते हैं ।

लग्न तथा लग्नेश के विषय में एक महत्वपूर्ण बात और भी है, वह ये कि अधिकांश ज्योतिषाचार्य गोचर के जो नियम 'चंद्र कुंडली' पर लगाते हैं, यदि वही नियम वह 'लग्न कुंडली तथा लग्नेश' पर भी लगाएं तो उन्हें कहीं अधिक सटीक फलादेश प्राप्त होंगे ।

यह तो हुई थोड़ी सी जानकारी लग्न तथा लग्नेश के विषय में, अब हम बात करते हैं लग्नेश के लग्न में ही स्थित होने अथवा लग्न को देखने के फलों की ।

किसी जातक की जन्मकुंडली में लग्नेश द्वारा लग्न में ही बैठे होने अथवा लग्नेश द्वारा लग्न को देखने के जहां उस जातक को अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं, वहीं एक बहुत बड़ी हानि भी प्राप्त होती है ।

कभी-कभी ऐसा जातक अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाले मान-सम्मान तथा सरलता से उपलब्ध होने वाली सफलताओं से इतना आत्ममुग्ध हो जाता है कि उसको धर्म-अधर्म का कुछ बोध ही नहीं रहता ।

जीवन पर्यन्त वह सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए आतुर रहता है और जहां उसे अपनी प्रशंसा करते लोग नहीं मिलते, वहां से भागकर वह अपने लिए ऐसे नए चेले-चपाटे खोजने लगता है, जो नित्य-प्रतिदिन उसके यश का गुणगान करें । कहने का तात्पर्य यह है कि उसको उसकी चापलूसी करने वाले मनुष्यों की लत लग जाती है ।

यदि यह लग्नेश बृहस्पति हो तो समस्या और भी बड़ी हो जाती है, क्योंकि जातक की जन्म कुंडली में शुभ स्थिति में बैठा बृहस्पति ही उसको ज्ञानी तथा धनवान बनाने का कार्य करता है, ऐसे में वह बृहस्पति यदि लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए अथवा लग्नेश होकर लग्न को देख ले, तो वह उस जातक को ज्ञान के अहंकार में इतना चूर कर देता है कि  अपने अहंकार के समक्ष वह किसी को भी कुछ नहीं समझता । ऐसे में शनि और राहु की दशा-अंतर्दशाएं ही उस जातक के अहंकार को नष्ट करने का कार्य करती हैं ।

यदि वह अहंकार राहु के द्वारा नष्ट किया गया है तो उसका परिणाम बहुत ही विनाशकारी होता है किन्तु यदि वह अहंकार शनि के द्वारा नष्ट किया गया है तो आरंभ का समय तो उस जातक के लिए बहुत कष्टकारी होता है परन्तु घोर दुखों के फेर में डालकर अंत में शनि, उस जातक की मलिन आत्मा को शुद्ध करने का ही कार्य करता है ।

इसी प्रकार यदि किसी जातक की कुंडली में सूर्य लग्नेश होकर लग्न में ही बैठ जाए तथा वह डिग्रीकली भी युवावस्था का हो, तो ऐसे जातक को समस्त संसार में अपार मान-सम्मान, आयु, यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है ।

ऐसा जातक बलपूर्वक अपने शत्रुओं को कुचलकर रख देता है । साधारण अभिचार कर्मों के द्वारा भी वह पराजित नहीं होता । वह बड़े कद-काठी का होता है और समाज में उसको बहुत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है ।

यदि कोई तांत्रिक भी उस पर अभिचारिक प्रयोग करने का प्रयास करता है तो वह तांत्रिक भी अपने मंत्र प्रयोगों में कोई त्रुटि हो जाने से स्वयं ही मरण को प्राप्त हो जाता है ।

जब तक इसी लग्न में जन्म लेने वाला और ऐसे ही ग्रह स्थिति लेकर बैठा हुआ कोई तंत्र साधक अपनी मंत्र शक्ति से कृत्या आदि उत्पन्न नहीं करता, तब तक ऐसे जातक को मार पाना उसके लिए भी संभव नहीं होता ।

किन्तु ऐसे जातक के जीवन साथी को जीवन पर्यन्त बहुत दुःख उठाना पड़ता है तथा वह घुट-घुट कर अपना जीवन यापन करने को विवश होता है । (शक्तिशाली सूर्य की सप्तम् शत्रु दृष्टि के कारण) ।

यहां मैं एक बात सभी को बता दूं कि लग्नेश का लग्न में बैठना और अथवा लग्न को देखना एक बहुत ही उत्तम योग माना जाता है । यहां तक कि मैंने भी अपने जीवन काल में जिन बच्चों की डिलीवरी के मुहूर्त निकाले हैं, उनका भी लग्नेश, उनके लग्न में ही रखने का प्रयास किया है तथा लग्न-लग्नेश की डिग्री (अंश) भी युवावस्था की रखने की हरसंभव चेष्ठा की है ।

ऐसे में भगवान् शंकर और माता भवानी के द्वारा, मेरे माध्यम से निकलवाए गए 'चाइल्ड डिलीवरी मुहूर्त' में जन्में सभी बच्चे जीवन पर्यन्त स्वास्थ्य, आयु, मान-सम्मान तो प्राप्त करेंगे ही, इसके अतिरिक्त वह ऋण, रोग व शत्रुनाशक भी सिद्ध होंगे क्योंकि छठे भाव का अष्टम् स्थान (हानि स्थान), 'लग्न' होता है ।

इन सभी बच्चों के माता-पिताओं को यह ध्यान रखना होगा कि कहीं उनके बच्चे अपने जीवनकाल में प्राप्त होने वाली सफलताओं से इतने आत्ममुग्ध न हो जाएं कि वह धर्म और अधर्म का भेद ही भूल जाएं । इसके लिए उन माता-पिताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह आरंभ से ही अपने इन बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने की सीख दें तथा उन्हें ईश्वर भक्ति के मार्ग में लगाएं ।

लग्नेश के लग्न में बैठे होने अथवा लग्न को देखने के कारण जीवन में सरलता से जो कुछ भी उपलब्धियां हमें प्राप्त होती हैं, हमें उन्हें भगवान् का आशीर्वाद मानकर विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए तथा सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि देहाभिमानियों का साथ तो उनके इष्टदेव भी छोड़ देते हैं ।
"शिवार्पणमस्तु"

नोट—ज्योतिष शास्त्र एक ब्रह्मविधा है जो बिना दैवीय सहायता से किसी को भी प्राप्त नहीं हो सकती । मैंने अपने इस छोटे से लेख में ज्योतिष के अनेक गुप्त सूत्र प्रकट किए हैं, ऐसे में जिस पर भगवान् की कृपा होगी, केवल वही उन सूत्रों को ग्रहण कर सकेगा ।
—Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

राहु केतु के शुभाशुभ फल

राहु-केतु पृथकतावादी ग्रह होते हुए भी किस अवस्था में अपना शुभ फल प्रदान करते हैं तथा जन्म कुंडली में इनकी शुभ स्थिति प्राप्त होने पर भी हमें इनके रत्न क्यों धारण नहीं करने चाहिए ? आइए जानते हैं । 


इस जातक का जन्म—१५ सितम्बर सन् १९८२ को रात्रि ८ बजकर १० मिनट पर मथुरा जिले में हुआ है । इनकी जन्म कुंडली के तृतीय भाव में राहु अपनी उच्च राशि 'मिथुन' में 'आद्रा' नक्षत्र के तृतीय चरण में स्थित हैं जो कि राहु का अपना ही नक्षत्र होता है । अंशावस्था से भी यह राहु-केतु अपनी युवावस्था (१२ से लेकर १८ डिग्री के मध्य) में हैं अर्थात् यह अपना पूर्ण शुभ फल देने में सक्षम हैं । 


भावात्-भावम् सिद्धांत के अनुसार द्वितीय से द्वितीय भाव में उच्च अवस्था में स्थित राहु ने इनको सम्पन्न घराने में जन्म दिया तथा भाग्य स्थान पर स्थित उच्च के केतु ने इनका भाग्योदय भी अति शीघ्र ही करवा दिया । जैसे ही इस जातक का विवाह हुआ बृहस्पति ने भाग्येश होकर सप्तम भाव में स्थित होने का फल प्रदान करना आरंभ कर दिया और ऐसे बृहस्पति की सहायता की, उसकी राशि पर स्थित केतु ने क्योंकि एक सूक्ष्म सिद्धांत यह भी है कि कोई भी ग्रह जन्मकुंडली के किसी भी भाव में विराजमान हो, वह जिस भाव का स्वामी होगा वहां का फल तो प्रदान करेगा ही इसके साथ ही उसकी राशि पर जो ग्रह विराजमान होता है, पीछे से वह ग्रह भी अपना फल प्रदान करता है । 


इधर उच्च के राहु ने इन्हें घोर पराक्रम तथा अपने स्वभाव के समान व्यसनी किन्तु सहयोगी मित्र प्रदान किए, जिनके सहयोग से इन्होंने विदेश से व्यापार में नवीन ऊंचाइयां प्राप्त कीं । यद्यपि विदेश स्थान पर बैठे राहु ने इनको विदेशी यात्राओं से लाभ प्रदान किया तथापि इसी राहु ने अपने मूल आसुरी स्वभाव के कारण इनको अत्यधिक व्यसनी भी बना दिया । 


तृतीय भाव के इस राहु का सूक्ष्म अध्ययन करने के पश्चात् मैं यह जान गया कि इन्होंने अपने व्यसनी मित्रों के साथ बैठकर अनेक ऐसे कार्य किए जिनका उल्लेख करने पर इनके वैवाहिक जीवन पर संकट खड़ा हो सकता था । शुक्र का सप्तमेश होकर प्रेम संबंधों के भाव में जाना भी इसी ओर संकेत कर रहा है । ये व्यक्ति जब-जब बैंकॉक आदि की विदेश यात्रा पर गए, वहाँ इन्होंने राहु के आसुरी स्वभाव को अपने कार्यों में पूर्णतः प्रदर्शित किया । 


तृतीय भाव में उच्च के राहु की दशा-अंतर्दशा प्राप्त होने पर यदि ऐसा जातक राहु का रत्न गोमेद धारण करता है तो यह रत्न तृतीय भाव के फलों में कई गुना वृद्धि कर देता है । गोमेद धारण करने के उपरान्त ऐसा जातक अपने पराक्रम से सभी वस्तुओं को प्राप्त कर लेगा, उसके छोटे भाई-बहनों के स्वास्थ्य, आयु, मान सम्मान में वृद्धि होगी, मित्रों से और अधिक सहयोग प्राप्त होगा तथा विदेश यात्राओं से कई गुना लाभ प्राप्त होगा ।  इतने सब के उपरान्त भी मैंने इन्हें गोमेद रत्न धारण नहीं करवाया, जिसका कारण यह है कि गले की राशि और गले के भाव पर बैठा हुआ राहु और उस पर मंगल की अष्टम दृष्टि तथा गले के कारक व स्वामी 'बुध' के छ्ठे भाव में स्थित 'शनि' की युति के पाप प्रभाव में होने से एक तो पहले से ही इनको गले के कैंसर होने अथवा किसी भी कारण से गले के कट जाने का योग बन रहे हैं । उस पर दुर्भाग्य से यह जातक तम्बाकू उत्पादों का भी अधिक मात्रा में सेवन करते हैं । ऐसे में गोमेद अथवा मूंगा रत्न यदि ये धारण करते हैं तो राहु-मंगल अत्यन्त तीव्र गति से इनके गले को काटने का प्रयास करेंगे । 


इसी प्रकार से पीठ व कमर की राशि और भाव में बैठे केतु इनको पीठ व कमर की गंभीर समस्या देंगे और यदि केतु का रत्न लहसुनिया भी इनको धारण करवा दिया जाए तो वह रत्न भाग्य में तो कई गुना वृद्धि करेगा किन्तु उतनी ही तीव्रता और उग्रता से इनको पीठ और कमर के रोग भी देगा । 

मेष लग्न की कुंडलियों में यह समस्या इसलिए भी अधिक हो जाती है क्योंकि इस लग्न में राशि और भाव एक ही होने से जीवन में जितनी तीव्रता से ऊंचाइयां प्राप्त होती हैं, हानि और रोग भी उतनी ही तीव्रता से घटित होते हैं । जैसे कि अष्टम भाव में स्वराशि में स्थित मंगल पर शनि की तृतीय दृष्टि ने इनको बवासीर (Piles) का रोगी भी बना दिया क्योंकि यहां भाव और भाव का स्वामी दोनों एक साथ शनि की तृतीय दृष्टि से पीड़ित हुए । 


यहां इस कुंडली को आपके समक्ष रखने का केवल एक मात्र कारण यही समझाना था कि कोई पृथकतावादी ग्रह यदि अपनी उच्च , मूल त्रिकोण अथवा स्वराशि में अपने कारक स्थान में भी क्यों न हो, वह जिस राशि, नक्षत्र और भाव में होगा उन राशि, नक्षत्र और भाव से बनने वाले शारीरिक अंगों में कष्ट अवश्य देगा । इसलिए राहु, केतु, शनि, मंगल और सूर्य जैसे पृथकतावादी ग्रहों के रत्नों का चुनाव करने के लिए चिकित्सा ज्योतिष ( Medical Astrology) को समझने की बहुत आवश्यकता होती है अन्यथा हो सकता है कि जहां एक स्थान पर जातक को धन, सम्पत्ति, मान-सम्मान, पद प्रतिष्ठा, चुनावों में विजय आदि तो प्राप्त हो रही हो, वहीं दूसरे स्थान पर उसके शरीर में कोई असाध्य रोग भी प्रकट हो रहा हो । 


चिकित्सा ज्योतिष के विषय में अधिक जानकारी के लिए मेरा यह ब्लॉग पढ़े—

https://astrologermanubhargav.blogspot.com/2020/04/blog-post.html


उपचार—ऐसी कुंडली में एक पन्ना रत्न धारण करवाने से गले के रोगों से बचाव होगा क्योंकि गले के स्थान के स्वामी और कारक बुध को शक्ति प्राप्त होगी तथा इस जातक द्वारा पुखराज रत्न धारण करने से नवम भाव को ऊर्जा प्राप्त होगी, जिसके कारण पीठ व कमर के रोगों से बचाव होगा ।

यदि यहां कोई कहता है कि बृहस्पति तो १२वें भाव का स्वामी भी है ऐसे में क्या वह इनकी पत्नी को कष्ट नहीं देगा तो उनके ज्ञान वृद्धि के लिए महर्षि पराशर जी का एक सूत्र बताता हूँ जिसमें वह बताते हैं कि कोई भी ग्रह जिसकी दो राशियां हैं और उसकी मूल त्रिकोण राशि को छोड़कर कोई अन्य राशि १२वें भाव में स्थित है, ऐसे में वह ग्रह अपने १२वें भाव की राशि का फल न देकर अपनी मूल त्रिकोण राशि का फल प्रदान करता है जो कि इस लग्न में ९ वें भाव में स्थित है । अतः ऐसा बृहस्पति, पुखराज रत्न का उपयोग करने से शक्ति प्राप्त करके  नवम भाव से संबंधित फलों में वृद्धि तो करेगा ही, साथ ही इसके प्रभाव से केतु के शुभ फलों में भी वृद्धि होगी क्योंकि राहु और केतु क्रमशः अपने शनि व मंगल जैसे पृथकतावादी प्रभावों के अतिरिक्त जिन ग्रहों की राशि और जिन ग्रहों के साथ बैठते हैं उनकी  छाया लेकर उन ग्रहों जैसे प्रभाव भी देने लगते हैं । 

वर्तमान में इनकी मंगल की महादशा चल रही जो कि सितम्बर २०३० तक चलेगी तत्पश्चात् इनकी राहु की महादशा आरंभ होगी जिसमें उपरोक्त शुभाशुभ फल पूर्णतः से प्रकट होंगे, ऐसे में इनको अभी से ही तम्बाकू उत्पादों का परित्याग कर देना चाहिए तथा नीले, काले व रक्त वर्ण के वस्त्रों को धारण करने से बचना चाहिए । इसके अतिरिक्त अपने अधिकार की सीमा में विधिवत् देवी दुर्गा व हनुमान जी की आराधना उनके उच्च कोटि के मंत्रों द्वारा करनी चाहिए, जिससे राहु की आने वाली महादशा इनकी कुंडली के तृतीय भाव में अपनी उच्च राशि में स्थित होने के शुभ फलों को प्रदान करे और यह निरोगी होकर दीर्घ जीवन जी सकें । 


ज्योतिष के इन उपायों द्वारा यदि इन्होंने राहु की आने वाली १८ वर्ष की महादशा बिना कोई बड़ा कष्ट प्राप्त किए काट ली, तो राहु की यह महादशा तो इनको नवीन ऊंचाइयों पर लेकर जायेगी ही, इसके पश्चात् आने वाली देव गुरु बृहस्पति की महादशा भी इनके जीवन के अंत काल में इनको देश के भीतर तीर्थ यात्राओं (बृहस्पति के नवम भावाधिपति होने के कारण) में महान पुण्य अर्जित करवाने वाली सिद्ध होगी और इन्होंने अपने जीवन काल में अब तक जितने भी अशुभ कार्य किए हैं, उस बृहस्पति की वह महादशा प्राप्त होने पर यह अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से उन सभी पाप कर्मों को जला कर भस्मसात कर देंगे । 


"शिवार्पणमस्तु"

—Astrologer Manu Bhargava

शनिवार, 22 जून 2024

लोकेष्णा


 
अज्ञान के अंधकार से व्याप्त मनुष्य की बुद्धि और मन सदा तीन प्रकार की तृष्णाओं से घिरा रहता है ।

१- वित्तेष्णा, २- पुत्रेष्णा और ३- लोकेष्णा

वित्तेष्णा अर्थात् धन प्राप्ति की इच्छा, पुत्रेष्णा
अर्थात् पुत्र (संतान) प्राप्ति की इच्छा अथवा उसमें आसक्ति और लोकेष्णा अर्थात् "संसार भर में मान-सम्मान, यश, प्रसिद्धि प्राप्त करने की तृष्णा ।"
मेरे इस ब्लॉग का विषय है 'लोकेष्णा'। अतः यहां केवल इसी विषय पर बात करेंगे ।

वर्तमान में लोकेष्णा की तृष्णा में मनुष्य इस प्रकार से घिरे हुए हैं कि उन्हें इस बात का बोध भी नहीं है कि इसके अंधे कुएं में गिरकर वह स्वयं की आत्मा से कितने दूर निकल चुके हैं । स्वयं को परम् सात्विक समझने वाला मनुष्य, जिसमें वित्तेष्णा और पुत्रेष्णा यदि न भी हो तो वह भी लोकेष्णा के प्रभाव से बच नहीं पाता और लोकेष्णा
भी कैसी कि मनुष्य अपने ही जैसे नाशवान हाड़ मांस के शरीरों से सम्मान प्राप्त करने की इच्छा रखने लगता है तथा वह ऐसे संसार से यश प्राप्ति की इच्छा करता है जो दृष्टिगोचर तो होता है किन्तु वास्तव में है ही नहीं ("ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:" के सिद्धांत के आधार पर) ।

लोकेष्णा की इस अग्नि में जलकर कितने ही राजा-महाराजा, साधु-संत और राजनेता आदि स्वयं तो सर्वनाश को प्राप्त हो ही चुके हैं, उनकी इस लोकेष्णा की तृष्णा को शांत करने के लिए कितने ही ऐसे मनुष्यों को भी अपना बलिदान देना पड़ा है, जिनकी कोई भूल भी नहीं थी ।

आज भारत में एक 'महामानव' विश्व शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए तथा भारत में अपने परम शत्रुओं से सम्मान प्राप्ति की लालसा में अपने ही धर्म के करोड़ों मनुष्यों का जीवन दाँव पर लगाए हुए है । १९४७ में भी यही हुआ था जब एक 'महामानव' ने अपनी लोकेष्णा
की अंधी वासना को शांत करने के लिए अपने ही धर्म के लाखों लोग कटवा दिए थे । प्राचीन काल में भी अनेकों बार दूसरों की लोकेष्णा की अंधी अग्नि को शांत करते-करते न जाने कितने ही प्राणियों को अपना बलिदान देना पड़ा है ।

लोकेष्णा की इस अंधी अग्नि से सामान्य जन भी अछूता नहीं है । माता-पिता भी अपने बच्चों को उनकी देह के अभिमान से मुक्त होने का ज्ञान न देकर उन्हें लोकेष्णा की इस अग्नि में झोंक देते हैं । वह उन्हें यह ज्ञान नहीं देते कि तुम्हें अपना जीवन इस देह के होने के अभिमान से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति में लगाना है और इतना लगाना है कि किसी से यह सुनने की इच्छा भी शेष न रहे कि देखो ! "वह बालक ईश्वर की कितनी भक्ति करता है " क्यूंकि यदि ऐसा हुआ तो उस बालक की भक्ति में भी लोकेष्णा ही लोकेष्णा व्याप्त होगी, ईश्वर प्राप्ति की इच्छा नहीं ।

सभी दिशाओं से अपने लिए वाहवाही और प्रशंसा लूटने की इच्छाओं ने मानवीय चेतना को इतना निम्न स्तर का बना दिया है कि सात्विक से सात्विक आचरण करने वाला मनुष्य भी इसके प्रभाव से बच नहीं पाता और यहीं उसकी आत्मा का पतन हो जाता है ।

माला पहनते हुए मेरा चित्र समाचार पत्र में आ जाए, किसी सांसद-विधायक के साथ मेरी फोटो खिंच जाए, मेरी संतान को विद्यालय में प्रथम पुरस्कार मिल जाए, मेरे द्वारा बनाई गई वस्तु अथवा लिखी हुई पुस्तक को चारों ओर से प्रशंसा प्राप्त हो जाए, दूर देशों तक मेरा अथवा मेरी संतान का नाम व्याप्त हो जाए, मैं जिस भी समारोह में जाऊं वहां मेरी जय-जयकार हो, फेसबुक-इंस्टाग्राम-यूट्यूब पर मेरे अभिनय, कला और नृत्य आदि की पोस्ट पर मुझे ढेरों लाइक्स और अच्छे कमेंट्स प्राप्त हों, मैं यदि शिक्षक-शिक्षिका हूँ तो विद्यालय में सभी विद्यार्थी मेरे ज्ञान की प्रशंसा करें, मैं यदि ऑफिस में कार्य करता हूँ तो कार्यस्थल पर सभी मेरी प्रशंसा करें, मेरे रिश्तेदार-पड़ोसी मेरी तथा मेरे बच्चों की प्रशंसा करें, मैं जिस बस-ट्रेन-प्लेन आदि में भी यात्रा करूं वहां भी लोग मुझे बार बार मुड़कर देखें आदि लोकेष्णा के कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिससे साधारण मनुष्य तो छोड़ दीजिए दूर से ज्ञानी और महान प्रतीत होने वाला मनुष्य भी सदा घिरा रहता है । ऐसे मनुष्यों का यदि बस चले तो वह मार्ग में चलती हुई चींटी को भी रोककर अपनी प्रशंसा के गीत सुनने के बाद ही उसे वहां से प्रस्थान करने दें ।

लोकेष्णा से भरे हुए मनुष्यों की आत्ममुग्धता की स्थिति इतनी विकराल हो चुकी है कि वह न तो यह देख पाते हैं और न ही समझ पाते हैं कि उनके आसपास के लोग अपना कार्य निकालने के लिए सामने से उनकी कितनी ही प्रशंसा करे लें किन्तु भीतर से उनको मूर्ख ही समझते हैं और पीठ पीछे उनकी निंदा करते हैं और जो विद्वान हैं, लोकेष्णा की स्थिति को समझते हैं, वह उनकी तुच्छ बुद्धि पर तरस खाते हैं ।

अतः देखा जाए तो लोकेष्णा की तृप्ति से घिरा मनुष्य अपने परलोक को तो कब का नष्ट कर ही चुका होता है अपने इस लोक को भी नष्ट कर रहा होता है क्यूंकि लोक में भी नाम और प्रसिद्धि अपने साथ विपत्ति ही लेकर आती है । ऐसे व्यक्ति के जितने मित्र नहीं होते उससे कहीं अधिक शत्रु होते हैं क्यूंकि उसके नाम और प्रसिद्धि के कारण उससे जलने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है । वह स्वयं को जिस समारोह की आभा समझ रहा होता है उसी समारोह में यदि ४ व्यक्ति उसके प्रशंसक होते हैं तो उससे कहीं अधिक उसके निंदक होते हैं ।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या भौतिक जगत में आगे बढ़ना, अपना कैरियर बनाना, अपनी सफलता के लिए कार्य करना आदि क्या यह सब व्यर्थ का कार्य है ?
इसका उत्तर है— नहीं ! भौतिक ऊंचाइयों को प्राप्त करना कोई अपराध नहीं है किन्तु अपने ही जैसे नाशवान मनुष्यों से सम्मान प्राप्त करने की लालसा रखना, अपनी वाहवाही लूटने के लिए नित्य नए-नए नाटक करना तथा अपनी आत्ममुग्धता के अंधे कुएं में अपनी आत्मा की वास्तविक स्थिति को खो देना महान मूर्खता है ।

मैं कुछ ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो स्वयं तो कभी अपने मुख से किसी की प्रशंसा नहीं करते, इसके विपरीत सभी से अपनी प्रशंसा सुनने के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं । वास्तव में इनकी चेतना का स्तर तो पशुओं से भी अधिक गिरा हुआ होता है क्यूंकि पशु भी अपने को प्रेम करने वाले के प्रति अपना पूरा समर्पण व्यक्त करते हैं । उच्च कोटि की चेतना रखने वाले साधकजन ऐसे लोगों का उपहास नहीं उड़ाते इसके विपरीत वह केवल इनकी तुच्छ बुद्धि और अज्ञान पर तरस ही खाते हैं क्यूंकि ब्रह्मज्ञानी को कभी लोकेष्णा को शांत करने की भूख नहीं होती । न तो वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त करने की कोई लालसा ही करता है और न ही वह कभी किसी से प्रशंसा प्राप्त होने पर प्रभावित होता है, इसके विपरीत वह तो सदा ईश्वर की भक्ति में स्वयं को आत्मस्वरूप मानकर अपना जीवन यापन करता है, सांसारिक मान-सम्मान की आकांक्षाओं से वह मोहित नहीं होता क्यूंकि वह जानता है कि "इस नाशवान संसार में अविनाशी तत्व यदि कोई है तो वह केवल और केवल 'चैतन्य परमात्मा' ही है और मनुष्य का नाम, पद, प्रसिद्धि आदि इस देह के छूटने के उपरान्त सब यहीं रह जाता है और उसके साथ जो जाता है वह होते हैं उसके शुभाशुभ कर्म ।

वह लोक-परलोक के इस रहस्य को भी जानता है कि जो मनुष्य इस भौतिक जगत में अपने भौतिक ज्ञान के कारण, अपने लेखन के कारण, अपने अभिनय और कला के कारण, अपने उच्च पद के कारण, बड़े राजनेता या राष्ट्रध्यक्ष होने के कारण, अपनी मृत्यु के उपरान्त भी आज तक सम्मान प्राप्त कर रहा है, हो सकता है कि वह अपने जीवनकाल में पापों की अधिकता होने से पारलौकिक जगत में अनंत काल के लिए घोर नर्कों में यातनाएं प्राप्त कर रहा हो ।

इसके विपरीत जो मनुष्य इस भौतिक जगत में कभी कोई पद-प्रसिद्धि प्राप्त न कर पाया हो , जिसका कहीं कोई नाम तक लेने वाला न हो, हो सकता है कि अपनी मृत्यु के उपरान्त अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वह अनन्त काल तक के लिए मृत्युलोक से दूर स्वर्ग में आनंद प्राप्त कर रहा हो ।

तत्वज्ञानी यह जानते हैं कि इस भौतिक जगत में प्राप्त इस नाम, प्रसिद्धि, प्रशंसा का पारलौकिक जगत में कोई महत्व नहीं है । हो सकता है कि भौतिक जगत में जिनकी प्रसिद्धि के कारण उनके पुतले बनाकर उन पर प्रतिदिन माला-पुष्प अर्पण किए जा रहे हों, वह पारलौकिक जगत में यमदूतों के हाथों पीटे जा रहे हों ।

इस सत्यता को समझने के पश्चात् उच्च स्तर की चेतना वाला तत्वज्ञानी इस झूठ से भरे हुए संसार से दूर भागने लगता है क्यूंकि वह जान चुका होता है कि यह समस्त संसार अपनी-अपनी लोकेष्णा की प्यास को शांत करने में लगा हुआ है । तत्वज्ञानी 'लोकेष्णा' की इस अंधी दौड़ से इसलिए भी दूर भाग जाना चाहता है क्यूंकि जिस प्रकार धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता (क्षीणे वित्ते कः परिवारः) उसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता (ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः) ।
ऐसे ही तत्वज्ञानियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।
अर्थात्
जिसके समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं ऐसे उस ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हुये कर्मों वाले पुरुष को ज्ञानीजन पण्डित कहते हैं।। (श्रीमद्भगवद्गीता–४.१९)


इसके विपरीत तत्वज्ञान के आभाव में जो मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं, जिनकी चेतना शक्ति अत्यन्त निम्न स्तर की है और जो अपनी देह के होने का अहंकार नहीं त्याग सकते, वह इस लोकेष्णा के दलदल में कंठ तक धसे होते हुए भी स्वयं को एक ऐसे आवरण से ढके रहते हैं जो केवल उनके मिथ्या अहंकार की सूक्ष्म परतों से बना हुआ होता है । ऐसे उन देहाभिमानियों से मुझे केवल इतना ही कहना है कि इस अंधी लोकेष्णा के दलदल से यदि तुम अब भी बाहर न निकले तो संभवतः भगवान् के पास भी तुम्हारी मुक्ति का कोई विधान नहीं है ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

ग्रहों का राशि परिवर्तन और चन्द्र ग्रहण २०२३



 ब्रह्माण्ड में शीघ्र ही कुछ बड़े परिवर्तन होने जा रहे हैं—

३० अक्टूबर को राहु-केतु के राशि परिवर्तन के साथ ही देव गुरु बृहस्पति पर अब तक बना हुआ चांडाल योग भंग हो जाएगा ।

अति विध्वंसकारी मंगल-केतु योग जिसकी जानकारी मैंने आपको अपने पिछले ब्लॉग के माध्यम से उपलब्ध करवाई थी, यह विध्वंसकारी योग भी केतु के राशि परिवर्तन करने के साथ ही समाप्त हो जाएगा ।

४ नवंबर को शनि भी वक्री अवस्था छोड़ कर मार्गी अवस्था प्राप्त कर लेंगे और १७ नवम्बर को सूर्य भी अपनी नीच राशि से निकलकर अपने सेनापति मंगल की राशि में संचार करने लगेंगे जिससे विश्व और अधिकांश जनमानस को उनके कष्टों से मुक्ति प्राप्त होगी ।

यद्यपि ३ नवम्बर को शुक्र अपनी नीच राशि में संचार करने लगेंगे जिसके कारण विश्व भर में स्त्रियों को कुछ कष्ट अवश्य होगा किन्तु शुक्र के इस राशि परिवर्तन की अवधि अत्यन्त अल्पकाल की होने के कारण वह उतनी हानि नहीं कर सकेंगे ।

२८–२९ अक्तूबर, शरद पूर्णिमा की रात्रि में खण्डग्रास चन्द्र ग्रहण होगा जो कि सम्पूर्ण भारत में दृश्य होगा अतः सभी स्थानों पर सूतक भी मान्य होंगे । भारत में इसका स्पर्श– रात्रि १ बजकर ५ मिनट पर, मध्य– १ बजकर ४४ मिनट पर तथा समाप्त–२ बजकर २२ मिनट पर होगा । इस प्रकार से इसका पर्व काल १ घंटा १७ मिनट का होगा । चन्द्र ग्रहण में ९ घंटे पूर्व से सूतक लगते हैं, भारत के जिस नगर में जिस समय चन्द्र ग्रहण दिखाई देगा वहां उसके सूतक भी उसके ९ घंटे पूर्व से ही मान्य होंगे ।

यह ग्रहण 'मेष राशि के अश्वनी' नक्षत्र में लगेगा जो कि 'केतु' का नक्षत्र होता है । केतु तन्त्र साधक को उसकी साधना में गहराई तक ले जाने वाला ग्रह होता है अतः इस चन्द्र ग्रहण में १ घंटा १७ मिनट का यह पर्वकाल तन्त्र साधकों को विशेष सिद्धि प्राप्त करवाने वाला होगा । चन्द्र ग्रहण के इस विशेष अवसर पर जो साधक जिस साधना में अधिकृत है उसको उसके अधिकार की सीमा में आने वाले मंत्र को अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिए क्योंकि चन्द्र ग्रहण में मंत्र, दान, यज्ञ आदि करने का प्रभाव सामान्य से ९०० गुना अधिक होता है जिससे कोई भी मंत्र ग्रहण के समय अल्पकाल में ही सिद्ध हो जाता है, एक बार मंत्र सिद्ध हो जाने पर प्रतिदिन उस मंत्र का जप करते रहने से उस मंत्र की सिद्धि का प्रभाव जीवन पर्यन्त उस साधक के साथ बना रहता है ।

यह चंद्र ग्रहण एशिया, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, नॉर्थ अमेरिका, साउथ अमेरिका के अधिकतर भाग तथा हिन्द महासागर, प्रशान्त महासगर, अटलांटिक, आर्कटिक अंटार्कटिका में दिखाई देगा । ईरान, अफगानिस्तान, तुर्की, चीन, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, अमेरिका के अलास्का,कोडरिंगटन, एंटीगुआ बारबुडा तथा कैलिफोर्निया की जनता को आगामी तीन माह तक भूकंप के प्रति सावधान रहना चाहिए ।

शरद पूर्णिमा पर पड़ने वाला यह चन्द्र ग्रहण अपने गुरूत्वाकर्षण बल (Gravitational Force) के अनियंत्रित हो जाने से समुद्र से घिरे स्थानों में आगामी तीन माह तक सुनामी, चक्रवात और भूकम्प आदि लाकर बहुत अधिक विनाश करने वाला है । 

चन्द्र ग्रहण के इन अमंगलकारी परिणामों के पश्चात् भी विश्व के लिए सबसे अधिक शान्ति देने वाली बात यह है कि पिछले डेढ़ वर्ष से 'मेष' राशि में संचार कर रहे 'राहु' ने विश्व भर में जितना तांडव मचाया है ३० अक्टूबर के पश्चात् उसमें अब भारी कमी आयेगी क्योंकि ३० अक्टूबर से राहु द्वारा देव गुरु बृहस्पति की राशि 'मीन' में संचार करने से राहु के भीतर देव गुरु बृहस्पति के तत्व भी जाग्रत होने लगेंगे जिससे राहु की चांडाल प्रवृत्ति में आगामी डेढ़ वर्षों के लिए बहुत अधिक विनम्रता आयेगी (राहु-केतु जिस ग्रह के साथ बैठते हैं तथा जिस ग्रह की राशि में बैठते हैं, उसकी छाया ग्रहण करके उसके जैसे फल भी देने लगते हैं) ।

राहु द्वारा गुरु की शुभता प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी मैं जिस बात को यहां लिखने जा रहा हूँ हो सकता है वह कुछ व्यक्तियों को अटपटी लगे क्योंकि विश्व में आज से पूर्व किसी भी ज्योतिष के विद्वान ने प्रकट रूप से यह बात नहीं कही होगी परन्तु सत्य जैसा भी हो वह तो मुझे लिखना ही होगा ।

राहु द्वारा जलीय राशि 'मीन' में संचार करने से आगामी डेढ़ वर्ष तक समुद्र तल के नीचे पाताल लोक में निवास करने वाले पातालवासी (असुर,दैत्य,नाग आदि) राहु की शक्ति से नवीन ऊर्जा प्राप्त कर लेंगे । ईश्वरीय नियम में बंधे होने के कारण वह भले ही पृथ्वी लोक पर विचरण करने न आएं किन्तु जल में डूबकर मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्यों को जल-प्रेत बनाने का कार्य वह अवश्य करेंगे और पाताल लोक के इन असुरों द्वारा शक्ति प्राप्त करके मनुष्य से जल-प्रेत बने यह लोग आगामी डेढ़ वर्षों तक दूसरे मनुष्यों को जल में डुबोकर मारने का प्रयास करेंगे जिसके कारण आगामी डेढ़ वर्षों में विश्व भर में जल में डूबकर मरने वालों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि देखी जाएगी तथा समुद्र और नदियों में विचरण करने वाले विषैले सर्प डेढ़ वर्ष के इस अवधिकाल में बहुत से जीवों की मृत्यु का कारण बनेंगे ।
कलौ चंडी 'विनायकौ' के सिद्धांत को समझते हुए भगवती दुर्गा और जल तत्व के देवता भगवान् श्री गणेश की उच्च कोटि की साधना के प्रभाव से मनुष्यों के सभी कष्टों का निवारण होगा ।
"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 27 सितंबर 2023

मंगल-केतु युति २०२३



३ अक्टूबर २०२३ को मंगल द्वारा चित्रा नक्षत्र के तृतीय चरण में प्रवेश के साथ ही 'तुला राशि' में मंगल–केतु का योग बनने जा रहा है जो कि लगभग २८ दिनों का होगा । इस अवधिकाल में विश्वभर में अनेक अमंगलकारी घटनाएं घटित होंगी ।

मंगल ग्रहों का सेनापति होता है, जब भी यह गोचर में पापी ग्रहों की युति अथवा दृष्टि से पीड़ित होता है तो विश्वभर में सेना तथा सेनापतियों को हानि उठानी पड़ती है ।

इधर १७–१८ अक्टूबर की मध्य रात्रि को ग्रहों के राजा सूर्य भी अपनी नीच राशि 'तुला' में संचार करने लगेंगे और वह वहां पहले से ही स्थित केतु की युति तथा राहु की दृष्टि में आ जाएंगे अर्थात् ग्रहों का सेनापति और राजा दोनों ही पाप प्रभाव में आकर पीड़ित होने से शासन तंत्रों के विरुद्ध अराजक तत्वों का उदय होगा, जिसके कारण विश्व भर में अशांति व्याप्त होगी और शासकों तथा सेना के लिए यह समय बहुत चुनौतीपूर्ण रहेगा ।

भारत के संदर्भ में यह समय और भी चुनौतीपूर्ण इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यहां पहले से ही अनेक अराजक और देशद्रोही तत्वों का जमावड़ा बना रहता है जो निरन्तर विदेशी पैशाचिक शक्तियों के सहयोग से सनातन धर्म को हानि पहुंचाने की चेष्टा करते रहते हैं तथा पिछले ९ वर्षों में राष्ट्रवादी सरकार द्वारा खाद-पानी न दिए जाने के कारण अपने बिलों से बाहर निकलने के लिए कुलबुला रहे हैं अतः २८ दिन के इस अवधिकाल में हमारी सेना, अर्धसैनिक बलों तथा पुलिस प्रशासन से जुड़े लोगों को विशेष सावधानी रखनी चाहिए, जिससे कोई भी अराजक तत्व भारत में किसी भी प्रकार का उपद्रव न मचा सके ।

विद्वान मनुष्यों को २८ दिन के इस अवधिकाल में अपनी कोई शल्य चिकित्सा (Operation) करवाने, छोटे वाहनों से लंबी दूरी की यात्रा करने अथवा अपने बच्चे का जन्म (Delivery) करवाने से 'यथासंभव' बचना चाहिए ।

सभी राशि-लग्नों वाले जातकों को गोचर में २८ दिनों के लिए बनने वाली इस मंगल-केतु युति से निम्नलिखित फल प्राप्त हो सकते हैं ।

मेष राशि- मेष लग्न
आपकी जन्म कुंडली के सप्तम भाव में बनने जा रहे इस योग से आपके वैवाहिक जीवन में कोई नई समस्या उत्पन्न हो सकती है अतः विवाद की स्थिति से बचें, व्यापार से जुड़े हुए जातक अपने व्यापार तथा पार्टनरशिप में सावधानी रखें । सिर की चोट से बचें ।

वृष राशि-वृष लग्न
२८ दिन के इस अवधिकाल में यथासंभव लंबी दूरी की यात्रा करने से बचें । गुप्त शत्रुओं से आपको सावधान रहने की आवश्यकता है । अपने जीवन साथी के साथ इन २८ दिनों में कोई यात्रा न करें तथा उनके स्वास्थ्य का ध्यान 
रखें ।

मिथुन राशि- मिथुन लग्न
आपको अपनी संतानों के स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए,पेट तथा हृदय रोगी अपने चिकित्सकों के परामर्श से चलें तथा इस राशि-लग्न वाली गर्भवती महिलाएं इन २८ दिनों में विशेष सावधानी रखें । अपने बड़े भाई-बहनों को अनावश्यक यात्रा (विशेषकर उत्तर-पश्चिम दिशा की) न करने दें ।

कर्क राशि- कर्क लग्न
आपकी जन्मकुंडली के चतुर्थ भाव में मंगल-केतु का योग आपकी माता के स्वास्थ्य के लिए विपरीत फल देने वाला हो सकता है l यदि आप कोई नया भवन, भूमि, वाहन लेने जा रहे हैं तो आपको इन २८ दिनों के व्यतीत हो जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए । आपके सेवकों को कोई समस्या उत्पन्न हो सकती है । आपको तथा आपकी संतान को वाहन चलाते समय विशेष सावधानी रखने की आवश्कता है, आपकी संतान इस अवधिकाल में उत्तर दिशा की यात्रा भूलकर भी न करें ।

सिंह राशि- सिंह लग्न
छोटे भाई-बहनों के स्वास्थ्य तथा उनसे आपके संबंधों में मधुरता रहे इसका ध्यान रखें । कान और गले के रोगी  इस समय अपने चिकित्सकों के परामर्श से चलें । यह समय पराक्रम दिखाने का नहीं है अतः व्यर्थ के विवाद टाल दें । आपके माता-पिता को इस समय लंबी दूरी की यात्रा (विशेषकर उत्तर-पूर्व दिशा की) नहीं करनी चाहिए ।

कन्या राशि-कन्या लग्न
इन २८ दिनों में अपनी वाणी पर नियंत्रण रखें अन्यथा अपनी वाणी के कारण विवाद में पड़ जाएंगे । अपने कुटुंब में  क्लेश की स्थिति उत्पन्न न होने दें ।  यदि आपके दांतों का कोई उपचार चल रहा है तो सावधानी से उपचार करवाएं । इन २८ दिनों में अनावश्यक लेन-देन से बचें अन्यथा कोई धन हानि हो सकती है । अपने दक्षिण नेत्र को 
शुद्ध जल से धोते रहें ।

तुला राशि-तुला लग्न
मंगल-केतु का यह योग आपके सिर के स्थान पर बनने से व्यर्थ की चिंताएं आपको घेर सकती हैं, यथासंभव आपको सिर की चोट आदि से बचना चाहिए । क्रोध में अपना आवेश न खोएं, जीवन साथी से विवाद की स्थिति को इन २८ दिनों के लिए टाल दें ।

वृश्चिक राशि-वृश्चिक लग्न
चिकित्सालय अथवा न्यायालय में आपका धन का व्यय न हो इसके लिए मंगल-केतु के मंत्रों का जाप करें, आपकी दादी के लिए ये समय कष्टकारी है । व्यर्थ के विवाद को अधिक न बढ़ाएं अन्यथा न्यायालय द्वारा दंडित किए जा सकते हैं । अपने वाम नेत्र को शुद्ध जल से धोते रहें । पैरों के नाखूनों को अच्छे से काट कर रखें अन्यथा उसमें चोट लगने की संभावना है।

धनु राशि-धनु लग्न
बड़े भाई-बहनों का स्वास्थ्य तथा उनसे आपके संबंध मधुर बने रहें इसका ध्यान रखें । हृदय तथा पेट के रोगी अपने चिकित्सकों से परामर्श करते रहें तथा संतान के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें । इन २८ दिनों में अपने छोटे बच्चों को वाहन आदि देने से आपको बचना चाहिए ।

मकर राशि-मकर लग्न
इस राशि-लग्न वाले जो जातक शासन तंत्र के आधीन कार्यरत हैं उन्हें विशेष सावधानी रखनी चाहिए अन्यथा किसी विवाद में पड़ने से मानसिक चिंताएं बढ़ सकती हैं ।जो लोग सरकारी ठेके आदि लेते हैं उनके लिए भी २८ दिन का यह समय उत्तम नहीं है । घुटने तथा छाती की चोट आदि समस्या से आपको बचना चाहिए । माता तथा बड़े भाई- बहनों के स्वास्थ्य का ध्यान रखें । अपनी माता तथा अपने बड़े भाई-बहनों को दक्षिण दिशा की यात्रा न करने दें ।

कुंभ राशि-कुंभ लग्न
आपको तथा आपके छोटे भाई-बहनों को इन २८ दिनों में  अनावश्यक यात्राओं( विशेषकर दक्षिण-पश्चिम दिशा की) से बचना चाहिए । पिता के स्वास्थ्य का ध्यान रखें । पढ़ते-लिखते समय अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधे करके उचित अवस्था में बैठें । २८ दिन का यह समय काल आपके भाग्य के लिए अच्छा नहीं है अतः कोई नवीन कार्य करने के लिए इस समय के निकलने की प्रतीक्षा करें ।

मीन राशि-मीन लग्न
धन के अपव्यय से बचें तथा पिता के स्वास्थ्य का ध्यान रखें, आपको भी अपनी पीठ तथा कटिबंध स्थान का ध्यान रखना चाहिए । भारी वस्तुएं उठाने से बचें तथा अपने पिता को किसी भी परिस्थिति में दक्षिण-पश्चिम दिशा की यात्रा न करने दें । इन २८ दिनों में आपके पिता को घर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में निवास करने से बचना चाहिए ।

मंगल-केतु की युति के विषय में पूर्व में मेरा एक ब्लॉग आ चुका है और उसमें तब मैने जो भी Prediction की थीं वह सभी सत्य घटित हुई थीं । ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन कर रहे विद्वान मेरे पुराने ब्लॉग को पढ़कर इन २८ दिनों में घटित होने जा रही घटनाओं का पूर्व अनुमान लगा सकते हैं। मंगल-केतु युति के ऊपर मेरे पुराने ब्लॉग का लिंक—

Note- जिन जातकों की जन्म-कुंडलियों में मंगल व केतु पहले से ही अपनी उच्च, मूल त्रिकोण तथा स्वराशि के होकर शुभ प्रभाव में हैं और उनकी दशा-अंतर्दशा भी उनकी जन्म-कुंडलियों में स्थित शुभ ग्रहों की ही चल रही होगी तो उनके लिए मंगल-केतु की यह युति इतनी अमंगलकारी नहीं होगी जितना कि उपरोक्त फलादेश में बताया गया है किन्तु जिनकी जन्म-कुंडलियों में मंगल और केतु पहले से ही अपनी नीच राशि, शत्रु राशि के होकर पाप अथवा क्रूर ग्रहों के प्रभाव में हुए तथा उन पर किसी भी प्रकार की शुभ दृष्टि न हुई और उनकी दशा अंतर्दशा भी उनकी जन्म-कुंडलियों में स्थित अशुभ ग्रहों की ही चल रही होगी तो उनके लिए मंगल-केतु की यह युति बहुत ही कष्टकारी सिद्ध होगी । ऐसे जातकों को अपने-अपने अधिकार की सीमा में भगवान् शंकर तथा हनुमान जी की उपासना करने से किसी भी प्रकार की कोई भी हानि नहीं होगी ।

"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 24 अगस्त 2023

प्रेम-वियोग और अध्यात्म


अपने Professional Astrology के कैरियर में अब तक मेरे पास हजारों ऐसी जन्मकुंडलियां आ चुकी हैं जिसमें प्रेम संबंधों में वियोग हो जाने से सच्चा प्रेम करने वाले स्त्री-पुरुष आन्तरिक रूप से इतना टूट जाते हैं कि अपने जीवन जीने की समस्त इच्छा ही समाप्त कर लेते हैं । यदि प्रेम दोनों ही ओर से हो तब तो ठीक है किन्तु यदि एक व्यक्ति प्रेम करता है और दूसरा उसके साथ प्रेम करने का अभिनय कर रहा है तो ऐसे में सच्चा प्रेम करने वाला व्यक्ति अपने साथ हुए इस छल को सह नहीं पाता और स्वयं को चारों ओर से घोर मानसिक दुःख से घेर लेता है । उसे किसी से बात करना, मिलना-जुलना नहीं भाता क्योंकि उसे लगता है कि कोई भी दूसरा उसके विरह के दुःख को समझ नहीं पा रहा है (अपने प्रेमी-प्रेमिका के साथ बिताए गए अच्छे पलों के बार-बार स्मरण होने तथा भविष्य में कभी उन पलों को पुनः न जी सकने का दुःख) ।


प्रेम-वियोग जैसे महान 'सांसारिक दुःख' में डूबकर प्रतिदिन स्वयं तथा अपने परिवारजनों को घोर कष्ट दे रहे ऐसे स्त्री-पुरुषों, जिन पर कोई धर्म गुरु ध्यान नहीं देता, ऐसे उन भाई-बहनों को उनके उस दुःख से बाहर निकालने के लिए मैं यह ब्लॉग लिखने जा रहा हूँ । यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि विरह की अग्नि से बड़े-बड़े ऋषि मुनि और राजा-महाराजा तो क्या स्वयं भगवान् (लीलावश) भी नहीं बच सकें हैं तथापि अपने आराध्य भगवान् शंकर से मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरे इस ब्लॉग को यह आशीर्वाद प्रदान करें कि इस ब्लॉग को पढ़ने वाले मेरे सनातनी भाई-बहन न केवल प्रेम-वियोग की पीड़ा से बाहर निकलें अपितु वह सदा धर्म युक्त आचरण करने वाले धर्म-परायण सनातनी बनें ।

किसी भी जातक की जन्म कुंडली का 'पंचम भाव, 'पंचम भाव का अधिपति' (पंचमेश)' और प्रेम संबंधों का कारक ग्रह 'शुक्र' (भाव,स्वामी,कारक) उसके जीवन में बनने वाले प्रेम संबंधों को प्रदर्शित करते हैं तथा 'पंचम से पंचम' होने से 'नवम भाव' (भावात् भावम्) भी इस विषय में महत्वपूर्ण भाव हो जाता है।

ऐसे में यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, नवम भाव, नवमेश तथा कारक शुक्र शुभ स्थिति में हैं तो उस व्यक्ति के जीवन में कभी प्रेम की कमी नहीं रहती । इसके विपरीत यदि किसी जातक की जन्मकुंडली में यह सभी अथवा इनमें से कुछ एक-दो पीड़ित हैं, पाप प्रभाव में हैं, अपनी नीच राशि या शत्रु राशि में स्थित हैं तो ऐसा जातक जीवन भर अपना प्रेम प्राप्त करने के लिए संघर्ष करता रहता है । वह किसी को कितना ही प्रभावित करने का प्रयास कर ले किन्तु कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता ।

इधर यदि किसी जातक की कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, नवम भाव, नवमेश और कारक शुक्र शुभ स्थिति में हों और गोचर में उसकी जन्म कुंडली का पंचमेश ६,८,१२ भाव में चला जाए अथवा गोचर में पंचम भाव पर राहु, केतु, शनि, सूर्य, मंगल जैसे पृथकतावादी ग्रहों का संचार हो जाए तथा गोचर में ही प्रेम संबंधों का कारक शुक्र अपनी नीच अथवा शत्रु राशि में चला जाए या पाप ग्रहों के प्रभाव से पीड़ित अथवा सूर्य से अस्त हो जाए तब भी कुछ समय के लिए उसके प्रेम संबंधों में कड़वाहट आ जाती है जो कि अनेक बार इतनी अधिक हो जाती है कि वह स्वयं को अपने प्रेम संबंध से पृथक कर लेता है भले ही उसको इससे कितनी ही पीड़ा और दुःख उठाना पड़े ।

इस प्रकार यदि ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से देखा जाए तो किसी भी जातक के जीवन में प्रेम संबंधों में सदैव मधुरता रह पाना संभव नहीं है । कभी न कभी तो यह पृथकतावादी प्रभाव उसके प्रेम संबंधों पर पड़ेगा ही । यही वह संक्रमण काल होता है जिसमें स्त्री-पुरुष स्वयं ही अपने प्रेम संबंधों को विच्छेद कर किसी दूसरे व्यक्ति से प्रेम प्राप्ति की अभिलाषा लिए आगे बढ़ जाते हैं और पीछे छोड़ जाते हैं अपने प्रेम के वियोग में डूबी हुई अपनी ही जैसी एक दूसरी जीवात्मा को, जिसकी अश्रुधाराओं से बनता है वह 'संचित कर्म' जिससे उत्पन्न 'प्रारब्ध' को भोगने के लिए उन्हें पुनर्जन्म लेना पड़ता है और पुनर्जन्म लेकर उनको भी अपने अगले जन्म में प्रेम-वियोग का वही दुःख सहन करना पड़ता है जो वह अपने इस जन्म में किसी और को दे रहा है क्योंकि संचित कर्म से उत्पन्न हुए प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है, यही ईश्वरीय विधान है ।

'संचित' का अर्थ होता है संचय (एकत्रित) किया हुआ, अतएव हमारे अनेक पूर्व जन्मों से लेकर वर्तमान में किए गए कर्मों के संचय को 'संचित कर्म' कहते हैं । इस प्रकार से संचित कर्म हमारे द्वारा अनेक जन्मों में किए गए पाप-पुण्यों का संग्रह है । इन्हीं संचित कर्मों में से कुछ अंश-मात्र कर्मों के फल को जो हमें इस जन्म में भोगना है उसे हमारा 'प्रारब्ध' कहा जाता है, दूसरे शब्दों में इसे हमारा 'भाग्य' भी कहते हैं अर्थात् यदि सरल शब्दों में कहा जाए तो जो कुछ भी शुभ-अशुभ घटनाएं हमारे जीवन में घटित होती हैं और जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता उसी को हमारा 'प्रारब्ध' कहते हैं ।

अनेक बार दुःख प्राप्त होने पर हम ईश्वर को कोसने लगते हैं और कहते हैं कि भगवान् ! हमने तो अपने इस जन्म में ऐसा कोई पाप नहीं किया जो हमें यह दुःख उठाना पड़ रहा है किन्तु ऐसा कहते समय हम यह भूल जाते हैं कि हम केवल अपने इस जन्म को देख रहे होते हैं किन्तु इस चराचर जगत को बनाने वाले सर्वशक्तिमान ईश्वर हमारे अनेक जन्मों को भी जानते हैं ।

श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण, परम् धर्मात्मा अर्जुन को पुनर्जन्म के विषय में संकेत देते हुए यह कहते हैं—
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।४.५।।
अर्थात्
हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता ।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।४.९।।
अर्थात्
हे अर्जुन ! मेरा जन्म और कर्म दिव्य है,  इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जान लेता है, वह शरीर को त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता;  वह मुझे ही प्राप्त होता है ।।

अपने संचित कर्मों को नष्ट करके हमें किस प्रकार से प्रारब्ध शून्य बनना है यह समझाते हुए आगे के श्लोक में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं—
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।४.३७।।
अर्थात्
जैसे प्रज्जवलित अग्नि ईन्धन को भस्मसात् कर देती है,  वैसे ही, हे अर्जुन ! ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्मसात् कर देती है।।

अतः मेरा उन सभी सनातनी भाई-बहनों से विनम्र निवेदन है कि वह इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इस बात को समझें कि प्रेम वियोग रूपी जो दुःख वह आज भोग रहे हैं संभवतः वह उनके द्वारा पूर्व जन्म में किए गए किसी पाप कर्म का कोई फल है जो उन्हें यह भयानक मानसिक पीड़ा और दुःख देकर अंततः उनकी आत्मा को शुद्ध करने में सहायता ही कर रहा है तथा आप सभी इस बात को जानकर भी अपने मन की पीड़ा और क्रोध को शान्त कर सकते हैं कि इस जन्म में आपके साथ जो छल करके स्वयं को अत्यधिक चतुर समझ रहा है उसको भी पुनर्जन्म लेकर अपने संचित कर्मों का भुगतान तो करना ही पड़ेगा । यही नहीं, अनेक बार तो प्रारब्ध की स्थिति इतनी विकट होती है कि उसको इसी जन्म में निकट भविष्य में ही अपने द्वारा किए गए इस पाप कर्म का भुगतान करना पड़ जाता है । अतः इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भी आप में से किसी को अपने लिए शोक नहीं करना चाहिए ।

किसी के वियोग में शोक न करने का यह अत्यन्त तुच्छ और सांसारिक कारण है जो कि यहां लिखना इसलिए आवश्यक था क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रत्येक मनुष्य की चेतना शक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, जिसमें से उच्च स्तर की चेतना शक्ति वाले मनुष्य प्रेम में स्वयं से छल करने वाले दूसरे मनुष्यों को स्वयं के पाप कर्मों के फलों का भुगतान करवाने वाला एक निमित्त मात्र मानकर क्षमा कर देते हैं तो कुछ मध्यम व निम्न स्तर की चेतना शक्ति वाले मनुष्य इस छल को सह नहीं पाते और निरन्तर उसके विनाश की कामना करते रहते हैं, इनमें से सभी अपने-अपने स्थानों पर सही हैं क्योंकि जिसके साथ छल किया जाता है उसकी पीड़ा बस वही समझ सकता है, हम यहां बैठकर उसका आंकलन भी नहीं कर सकते हैं ।

अब बात करते हैं कि प्रेम वियोग रूपी इस दुःख को मिटाने में अध्यात्म की क्या भूमिका है ?
तो जीव के अज्ञान का कारण उसकी देहात्मबुद्धि है । यह देह भौतिक है और मैं आत्म स्वरूप हूं जिसने यह देह धारण की हुई है, इसी समझ का नाम ही आत्म-ज्ञान है । दुर्भाग्यवश सांसारिक मोहवश जो जीव अज्ञान में रहता है, वह देह को ही आत्मा मान लेता है । उसे जीवन भर यह ज्ञात ही नहीं हो पाता कि देह पदार्थ-स्वरूप है । ये देहें बालू के छोटे-छोटे कणों के समान एक दूसरे के निकट आती और पुन: कालवेग से पृथक् हो जाती हैं जीव व्यर्थ ही संयोग या वियोग के लिए शोक करते हैं । इस विषय पर श्रीमद् भागवत का यह श्लोक देखिए...
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्रोतोवेगेन बालुका: ।
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिन: ॥ ६.१५.३॥
अर्थात्—
जिस प्रकार बालू के छोटे-छोटे कण लहरों के वेग से कभी एक दूसरे के निकट आते हैं और कभी विलग हो जाते हैं, उसी प्रकार से देहधारी जीवात्माएँ काल के वेग से कभी मिलती हैं, तो कभी बिछुड़ जाती हैं । 

अतः इस उच्च कोटि के आध्यात्मिक ज्ञान को जानने के पश्चात् भी यदि कोई प्रेम वियोग से शोकाकुल है तो उसके लिए मैं यहां एक ही बात कहूंगा कि आपमें से कोई भी प्रेम संबंधों में विफलता के लिए इसलिए भी शोक न करे क्योंकि आपके साथ यदि कोई छल करके गया है अथवा ग्रहों और काल के प्रभाव से पृथक हो गया है तो वह आपके प्रेम रूपी ऋण को उतारने के लिए पुनः जीव देह धारण करके आपके सम्मुख आने के लिए विवश किया जाएगा। यही ईश्वरीय विधान है और न्याय भी। अतः आपको कभी भी किसी के लिए भी शोक नहीं करना चाहिए और सदैव धर्म की ही शरण में रहना चाहिए क्योंकि सदा धर्म की शरण में रहने वालों का कभी नाश नहीं होता ।
"शिवार्पणमस्तु"
—Astrologer Manu Bhargava