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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Kulguru Kripacharya aur Karunamayi Arjun कुलगुरु कृपाचार्य और करुणामयी अर्जुन



महाभारत ग्रन्थ के सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोSध्याय में वर्णन है कि कुन्ती कुमार अर्जुन, कुलगुरु कृपाचार्य को अपने बाणों से आच्छादित करने के पश्चात किस प्रकार शोक से व्याकुल हो उठे थे।
अपने मस्तक को भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों में रखते हुये मैं महाभारत ग्रंथ में वर्णित उस मार्मिक प्रसंग को प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।

धृतराष्ट्र उवाच
तस्मिन् विनिहते वीरे सैन्धवे सव्यसाचिना।
मामका यदकुर्वन्त तन्ममाचक्ष्व संजय।।
धृतराष्ट्र बोले 
संजय ! सव्यसाची अर्जुन के द्वारा वीर सिंधुराज के मारे जाने पर मेरे पुत्रों ने क्या किया ? यह मुझे बताओ।

संजय उवाच
सैन्ध्वं निहितं दृष्ट्वा रणे पार्थेन भारत ।
अमर्षवशमापन्न: कृपः शारद्वतस्ततः ।।
महता शरवर्षेण पाण्डवं समवाकिरत्।
द्रोणिश्चाभ्यद्रवद् राजन् रथमास्थाय फाल्गुनम्।।
संजय बोले
भरत नंदन ! सिंधुराज को अर्जुन के द्वारा रणभूमि में मारा गया देख कर शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य अमर्ष के वशीभूत हो बाणों की भारी वर्षा करते हुये पाण्डु पुत्र अर्जुन को आच्छादित करने लगे। राजन ! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने भी रथ पर बैठकर अर्जुन पर धावा किया।।
तावेतौ रथिनां श्रेष्ठौ रथाभ्यां रथसत्तमौ।
उभावुभयतस्तीक्ष्णैर्विशिखैरभ्यवर्षताम्।।
रथियों में श्रेष्ठ वे दोनों महारथी दो दिशाओं से आकर अर्जुन पर पैने बाणों की वर्षा करने लगे।।
स तथा शरवर्षाभ्यां सुमहद्भ्यां महाभुजः।
पीड्यमानः परामार्तिमगदम् रथिनां वरः।।
इस प्रकार दो दिशाओं से होने वाली उस भारी वर्षा से पीड़ित हो रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन अत्यंत व्यथित हो उठे।
सोSजिघांसुर्गुरुं संख्ये गुरोस्तन्यमेव च।
चकाराचार्यकं तत्र कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।।
वे युद्ध स्थल में गुरु तथा गुरुपुत्र का वध नहीं करना चाहते थे, अतः कुन्तीपुत्र धनंजय ने वहां अपने आचार्य का सम्मान किया।
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्रौणे: शारद्वतस्य च।
मन्दवेगानिषूमस्ताभ्यामजिघांसुरवासृजत्।।
उन्होंने अपने अस्त्रों द्वारा अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उनका वध करने की इच्छा न रखते हुए उनके ऊपर मन्द वेग वाले बाण चलाये।
ते चापि भृशमभ्यघ्नन् विशिखा: पार्थचोदिताः।
बहुत्वात् तु परामार्तिम् शराणां तावगच्छताम्।।
अर्जुन के चलाये हुए उन बाणों की संख्या अधिक होने के कारण उनके द्वारा उन दोनों को भारी चोट पहुंची। वे बड़ी वेदना अनुभव करने लगे।
अथ शारद्वतो राजन् कौन्तेयशरपीडितः।
अवासीदद् रथोपस्थे मूर्च्छामभिजगाम ह।।
राजन् ! कृपाचार्य अर्जुन के बाणो से पीड़ित हो मूर्छित हो गये और रथ के पिछले भाग में जा बैठे।
विह्वलं तमभिज्ञाय भर्तारं शरपीडितम्।
हतोSयमिति च ज्ञात्वा सारथिस्तमपावहत्।।
अपने स्वामी को बाणों से पीड़ित एवं विह्वल जानकर और उन्हें मरा हुआ समझ कर सारथि रणभूमि से दूर हटा ले गया।
तस्मिन् भग्ने महाराज कृपे शारद्वते युधि।
अश्वत्थामाप्यपायासीत् पाण्डवेयाद् रथान्तरम्।।
महाराज ! युद्ध स्थल में शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य के अचेत होकर वहां से हट जाने पर अश्वत्थामा भी अर्जुन को छोड़कर किसी दूसरे रथी का सामना करने के लिये चला गया।
दृष्ट्वा शारद्वतं पार्थो मूर्च्छितं शरपीडितम्।
रथ एव महेष्वासः सकृपं पर्यदिव्यत्।।
अश्रुपूर्णमुखो दीनो वचनं चेदमब्रवीत्।
कृपाचार्य को बाणों से पीड़ित एवम मूर्च्छित देखकर महाधनुर्धर कुंती कुमार अर्जुन करुणावश रथ पर बैठे-बैठे ही विलाप करने लगे । उनके मुख पर आंसुओं की धारा बह रही थी । वे दीन भाव से कहने लगे...।
पश्यन्निदं महाप्राज्ञ: क्षत्ता राजानमुक्तवान्।।
कुलान्तकरणे पापे जातमात्रे सुयोधने।
नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः।।
अस्माद्धि कुरुमुख्यानां महदुत्पत्स्यते भयम्।
जिस समय कुलान्तकारी पापी दुर्योधन का जन्म हुआ था उस समय महाज्ञानी विदुर जी ने यही सब विनाशकारी परिणाम देखकर राजा धृतराष्ट्र से कहा था कि 'इस कुलांगार बालक को परलोक भेज दिया जाये, यही अच्छा होगा;क्यों कि इससे प्रधान-प्रधान कुरुवंशियों को महान् भय उत्पन्न होगा।'
तदिदं समनुप्राप्तं वचनं सत्यवादिनः।।
तत्कृते ह्यघ पश्यामि शरतल्पगतं गुरुम्।
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु बलपौरुषम्।।
सत्यवादी विदुरजी का वह कथन आज सत्य सिद्ध हो रहा है। दुर्योधन के कारण ही आज मैं अपने गुरु को शर-शय्या पर पड़ा देखता हूँ। क्षत्रिय के आचार, बल, और पुरुषार्थ को धिक्कार है ! धिक्कार है।
को हि ब्राह्मणमाचार्यमभिद्रुह्येत मादृशः।
ऋषिपुत्रो ममाचार्यो द्रोणस्य परम: सखा।।
एष शेते रथोपस्थे कृपो मद्वाणपीडित:।।
मेरे जैसा कौन पुरुष ब्राह्मण एवं आचार्य से द्रोह करेगा ? ये ऋषिकुमार, मेरे आचार्य तथा गुरुवर द्रोणाचार्य के परम सखा कृप मेरे बाणों से पीड़ित हो रथ की बैठक में पड़े हैं।
अकामयानेन मया विशिखैरर्दितो भृशम्।।
अवसीदन् रथोपस्थे प्राणान् पीडयतीव मे।
मैंने इच्छा न रहते हुये भी उन्हें बाणों द्वारा अधिक चोट पहुंचाई है। वे रथ की बैठक में पड़े-पड़े कष्ट पा रहे हैं और मुझे अत्यंत पीड़ित सा कर रहे हैं।
ये च विद्यामुपादय गुरुभ्यः पुरुषाधमा:।।
घ्नन्ति तानेव दुर्वृत्तास्ते वै निरयगामिनः।
गुरु से विद्या ग्रहण करके जो नराधम उन पर ही चोट करते हैं वे दुराचारी मानव निश्चित ही नरकगामी होते हैं।
तदिदं नरकायाद्य कृतं कर्म मया ध्रुवम्।।
आचार्यम् शरवर्षेण रथे सादयता कृपम्।
मैंने आचार्य कृप को अपने बाणों की वर्षा द्वारा रथ पर सुला दिया है , निश्चित ही यह कर्म मैंने आज नरक में जाने के लिये ही किया है ।
नमस्तस्मै सुपूज्याय गौतमायापलायिने।।
धिगस्तु मम वार्ष्णेय यदस्मै प्रहराम्यहम्।
'वार्ष्णेय !  युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले उन परम पूजनीय गौतमवंशी कृपाचार्य को मेरा नमस्कार है। मैं जो उन पर प्रहार करता हूँ ,इसके लिये मुझे धिक्कार है'।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

सोमवार, 29 जुलाई 2019

Striyon ke Shubhashubh Yog स्त्रियों के शुभाशुभ योग


भगवान् शंकर और माँ भवानी के चरणों को प्रणाम करते हुये मैं 'वैदिक ज्योतिष' के मतानुसार स्त्रियों की कुंडली में बनने वाले कुछ शुभ व अशुभ योगों का वर्णन कर रहा हूँ।

कुल नाश योग-

पापकर्तरिके लग्ने चन्द्रे जाता च कन्यका।
समस्तं पितृवंशं च पतिवंशं निहन्ति सा।।
अर्थात- जिस कन्या के जन्म समय में लग्न तथा चन्द्रमा पापकर्तरी योग में हों तो वह स्त्री पितृ-कुल तथा पति-कुल दोनों का नाश करने वाली होती है।

अधिक गुणयोग-

लग्ने चन्द्रज्ञशुक्रेषु बहुसौख्यगुणान्विता।
जीवे तत्रातिसम्पन्ना पुत्रवित्तसुखान्विता।।
अर्थात-
लग्न में चंद्रमा, बुध, शुक्र हों तो ऐसी स्त्री अधिक गुण तथा सौख्य से युत रहती है एवं उसमें गुरु भी हो जाये तो अधिक पुत्र, धन और सुख से भी परिपूर्ण होती है।

विषकन्या योग-

१- स- सरपाग्निजलेशर्क्षे भानुमन्दारवासरे।
भद्रातिथौ जनुर्यस्या: सा विशाख्या कुमारिका।।
अर्थात-
अश्लेषा-कृतिका-शतभिषा नक्षत्र , रवि-शनि-मंगलवार, भद्रा(२,७,१२) तिथि; इन तीनों के योग में जिस कन्या का जन्म होता है वह विषकन्या कही जाती है।
२- सपापश्च शुभो लग्ने द्वौ पापौ शत्रुभस्थितौ।
यस्या जनुषि सा कन्या विषाख्या परिकीर्तिता।।
अर्थात-
जिसके जन्म समय में लग्न में एक पाप ग्रह तथा एक शुभ ग्रह हो और दो पाप ग्रह अपने शत्रुराशि में बैठे हों ऐसे योग में जन्मी कन्या विषकन्या कही जाती है।

सन्यास योग- 

क्रूरे सप्तमगे कश्चित् खेचरो नवमे यदि।
सा प्रव्रज्यां तदाप्नोति पापखेचरसम्भवाम्।।
अर्थात-
सप्तम में क्रूर ग्रह हो और नवम में कोई भी ग्रह हो तो पाप ग्रह से संबंधित होने के कारण वह स्त्री प्रव्रज्या धारण कर लेती है, अर्थात सन्यासिनी हो जाती है।

पति के समक्ष मृत्युयोग-

विलग्नादष्टमे सौम्ये पापदृग्योगवर्जिते।
मृत्यु: प्रागेव विज्ञेयस्तस्या मृत्युर्न संशयः।।
अर्थात-
जिस स्त्री के लग्न से अष्टम में शुभ ग्रह हो उस पर पाप ग्रह की दृष्टि न हो, और योग भी न हो तो उस स्त्री का पति के समक्ष ही मरण होता है।

पति के साथ मरण योग-

अष्टमे शुभपापौ चेत् स्यातां तुल्यबलौ यदा।
सह भर्ता तदा मृत्युं प्राप्त्वा स्वर्याति निश्चियात्।।
अर्थात-
यदि अष्टम भाव में तुल्यसंज्ञक पाप और शुभ ग्रह हों , पाप और शुभ ग्रह के बल भी तुल्य हों तो वह स्त्री पति के साथ ही मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्ग को प्राप्त होती है।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

शनिवार, 27 जुलाई 2019

Kisko Na Dein Jyotish ka Gyaan किसको ना दें ज्योतिष का ज्ञान


ज्योतिष का ज्ञान किसके समक्ष प्रकट करना चाहिए और किसके समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिये, आज मैं इस विषय प्रकाश डालते हुए 'ज्योतिष शास्त्र' को जानने वाले महान तपस्वी 'ऋषि पराशर जी' के प्राचीन ग्रंथ 'बृहत पाराशर होरा शास्त्रम् ' में 'ऋषि पराशर' और 'ऋषि मैत्रेय जी' का आपस मे संवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।

मैत्रेय उवाच

भगवन् ! परमं पुण्यं गुह्यं वेदाङ्गमुत्तमम्।

त्रिस्कन्धं ज्यौतिषं होरा गणितं सहिंतेति च ।।

एतेष्वपि त्रिषु श्रेष्ठा होरेति श्रूयते मुने।

त्वत्तस्तां श्रोतुमिच्छामि कृपया वद में प्रभो।

कथं सृष्टिरियं जाता जगतश्च लयः कथम्  ।

खस्थानां भूस्थितानां च सम्बन्धम वद विस्तरात् ।।

मैत्रेय जी ने कहा-
हे भगवन् ! वेदाङ्गों में सर्वोत्तम एवं परम पुण्य दायक 'ज्यौतिषशास्त्र' के 'होरा,गणित और संहिता' इस प्रकार तीन स्कंध हैं। उनमें से भी होराशास्त्र सर्वोत्तम है। उसे मैं आपसे सुनना चाहता हूँ । हे प्रभो ! मुझे सब बतला दिया जाये। इस संसार की उत्पत्ति कैसे हुई और प्रलय किस प्रकार होता है, साथ ही आकाशस्थ ग्रह-नक्षत्रों से पृथ्वी स्थित जीव-जंतुओं का क्या संबंध है ? इत्यादि सभी बातें विस्तारपूर्वक मुझे अवगत करा दें।।

पराशर उवाच
साधु पृष्टम त्वया विप्र ! लोकानुग्रहकारिणा।
अथाहं परमं ब्रह्म तच्छक्तिं भारतीं पुनः।।
सूर्यं नत्वा ग्रहपतिं जगदुत्पत्तिकारणम्।
वक्ष्यामि वेदनयनं यथा ब्रह्ममुखाच्छुतम्।।
शान्ताय गुरुभक्ताय सर्वदा सत्यवादिने।
आस्तिकाय प्रदातव्यं ततः श्रेयो ह्यवाप्स्यति।।
न देयं परशिष्याय नास्तिकाय शठाय वा।
दत्ते प्रतिदिनं दुःखं जायते नात्र संशयः ।।

पराशर जी ने कहा-
हे ब्राह्मण ! लोककल्याण-हेतु आपने उत्तम प्रश्न किया है। आज मैं परब्रह्म परमेश्वर और सरस्वती देवी को तथा जगत् को उत्पन्न करने वाले ग्रहों के अधिपति भगवान सूर्य को प्रणाम करके जिस प्रकार ब्रह्माजी के मुखारविंद से 'ज्यौतिष शास्त्र' सुना हूँ, उसी प्रकार कहता हूँ।

इस शास्त्र का उपदेश शांत, गुरुभक्त, सदैव सत्य बोलने वाले और आस्तिक को ही देना चाहिये, इसी से कल्याण प्राप्त होता है। परशिष्य, नास्तिक एवं शठजनों को इस शास्त्र का उपदेश नहीं करना चाहिये। इस प्रकार के मनुष्यों को ज्यौतिषशास्त्रोपदेश करने वाला दुःख का भागी होता है; इसमे कोई संदेह नहीं है।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

Rajaneeti aur Dharm राजनीति और धर्म


प्रायः यह देखने मे आता है कि अपनी अज्ञानता के कारण वर्तमान का युवा राजनीति और धर्म को पृथक-पृथक देखना चाहता है। किंतु वह ये विचार नही करता कि यदि राजनीति के पीछे धर्म नहीं होगा तो राजनेता नास्तिक हो जाएंगे और नास्तिक होने के कारण किसी भी राजनेता को ईश्वरीय सत्ता का भय भी नहीं होगा,और ऐसा राजनेता समाज में पाप एवं अत्याचार को ही जन्म देगा।

यही कारण है कि त्रेता युग में श्री राम के काल से भी पहले से राजाओं को नियंत्रित करने के लिए राजगुरु हुआ करते थे जो राजाओं को धर्म और अधर्म दोनों का ज्ञान देते हुए प्रजा का पालन पोषण करने तथा राज्य चलाने में सहायता किया करते थे। वर्तमान में राजनेताओं में बढ़ रही नीचता का कारण उनके पीछे धर्म तथा धर्म गुरुओं का ना होना ही है ।

अतः युवाओं को विचार करके यह स्वयं निर्धारित करना होगा कि राजनीति और धर्म का समन्वय उचित है अथवा अनुचित, क्या धर्म विहीन राजनीति और राजनेता जनता के साथ न्याय कर पाएंगे , यदि उनके पीछे धर्म ना हुआ तो क्या वह निरंकुश नहीं हो जाएंगे ?

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

Mantra Bhed मंत्र भेद


तंत्र शास्त्र के महान ग्रंथ 'मन्त्र महोदधि' में वर्णित मन्त्रों के तीन प्रकार -

पुंस्त्रीनपुंसका: प्रोक्ता मनवस्त्रिविधा बुधै ।
वषडंताः फडन्ताश्च पुमांसो मनवः स्मृता ।।
वौषट स्वाहान्तगा नार्यो हुम् नमोन्ता नपुंसका:।
वश्योच्चाटनरोधेषु पुमांस: सिद्धिदायका:।।
क्षुद्रकर्मरुजां नाशे स्त्रीमन्त्रा: शीघ्रसिद्धिदा: ।
अभिचारे स्मृता क्लीबा एवं ते मनवस्त्रिधा ।।
अर्थात-
विद्वानों ने पुरुष, स्त्री, और नपुंसक भेद से तीन प्रकार के मंत्र कहे हैं।
जिन मंत्रों के अंत मे 'वषट' अथवा 'फट' हों वे पुरुष मंत्र हैं। 'वौषट' और 'स्वाहा' अंत वाले मंत्र स्त्री तथा हुम् एवं नमः वाले मंत्र नपुंसक मंत्र कहे गए हैं।

वशीकरण, उच्चाटन एवं स्तम्भन में पुरुष मंत्र, क्षुद्रकर्म एवं रोग विनाश में स्त्री मंत्र तथा अभिचार( मारण आदि) प्रयोग में नपुंसक मंत्र सिद्धिदायक कहे गए हैं। इस प्रकार से मंत्रो के तीन भेद होते हैं।

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

बुधवार, 24 जुलाई 2019

भगवान शिव और श्री हरि विष्णु एक ही हैं


अहंकार, द्वेष, लोभ एवं स्वार्थ के वशीभूत होकर सनातन धर्म में कुछ 'सम्प्रदाय' केवल भगवान विष्णु की ही महिमा का गुणगान करते हैं। यहां तक तो बात ठीक है परंतु दुःख तब होता है जब उनके यहां भगवान शिव को तुच्छ देवता कहकर उनका अपमान किया जाता है, इस विषय मे वैदिक ज्योतिष का क्या मत है, आइये देखते हैं।

वैदिक ज्योतिष के महानतम ग्रंथ 'बृहत पाराशर होरा शास्त्रम' में त्रिकालज्ञ (तीनों कालों को जानने वाले) पाराशर ऋषि , मैत्रेय ऋषि से भगवान के तीनों स्वरूपों का वर्णन कुछ इस प्रकार से करते हैं-
श्रीशक्त्या सहितो विष्णु: सदा पाति जगत्त्रयम।
भूशक्त्या सृजते ब्रह्मा नीलशक्त्या शिवोSत्ति हि।।
अर्थात-
पूर्वोक्त वासुदेव श्री शक्ति के सहित विष्णुस्वरूप होकर तीनों भुवनों का पालन करते हैं, भूशक्ति से युक्त होकर ब्रह्मस्वरूप बनकर सृष्टी करते हैं तथा नील शक्ति से युक्त होकर शिव स्वरूप बनकर संहार करते हैं।)

इस श्लोक के माध्यम से यह सिद्ध होता है कि पालन करते समय भगवान की जो शक्ति 'विष्णु' नाम से जानी जाती है संहार करते समय वही शक्ति 'शिव' कहलाती है, ऐसे में शिव का अपमान करके वह सभी क्या भगवान विष्णु का अपमान नहीं कर रहे हैं?

रुद्रहृदय उपनिषद में कहा गया है —
येनमस्यन्तिगोविन्दंतेनमस्यन्ति_शंकरम् ।
येऽर्चयन्तिहरिंभक्त्यातेऽर्चयन्तिवृषध्वजम् ॥5॥
अर्थात-
जो गोविंद को नमस्कार करते हैं ,वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं । जो लोग भक्ति से विष्णु की पूजा करते हैं, वे वृषभ ध्वज भगवान् शंकर की पूजा करते हैं ।

यद्विषन्तिविरूपाक्षंतेद्विषन्ति_जनार्दनम् ।
येरुद्रंनाभिजानन्तितेनजानन्तिकेशवम् ॥6॥
अर्थात-
जो लोग भगवान विरुपाक्ष त्रिनेत्र शंकर से द्वेष करते हैं, वे जनार्दन विष्णु से ही द्वेष करते हैं। जो लोग रूद्र को नहीं जानते ,वे लोग भगवान केशव को भी नहीं जानते।

सत्यता यह है कि भक्तिकाल में मुगल आक्रांताओं से किसी भी तरह से धर्म को बचाये रखने के लिए विद्वानों ने जब वैदिक मार्ग छोड़कर भक्तिमार्ग का आश्रय लिया तब वहीं से यह सब विकृतियां उत्पन्न हुईं क्योंकि उससे पूर्व जितना भी ज्ञान हुआ करता था उसके पीछे शास्त्रों का आधार हुआ करता था।

अतः मुगल काल के पश्चात सनातन धर्म में कुकुरमुत्तों की भांति जितने भी पंथ, सम्प्रदाय उग आये हैं (जिनमे वेदों की आड़ लेकर मूर्ति पूजा को पाखंड बताकर सनातन धर्म पर आघात करने वाले सम्प्रदाय भी सम्मलित हैं )उन सभी का विसर्जन करके उसके स्थान पर पुनः वैदिक शिक्षा की व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है नहीं तो यह लोग अपने अनुयायियों को ऐसे ही मूर्ख बनाकर अपनी दुकानें चलाते रहेंगे।

''शिवार्पणमस्तु"

- Astrologer Manu Bhargava

कलियुगी सम्प्रदायों द्वारा शक्ति की आराधना निषेध करना क्या उचित है ?


श्रीमद्भागवत गीता' में भगवान श्री कृष्ण द्वारा स्वयं को ही 'पूर्णब्रह्म' घोषित करने का उदाहरण देकर,'उच्च कोटि' के अन्य 'देवी-देवताओं' को तुच्छ बताने का कुत्सिक प्रयास करने वाले 'नवीन संप्रदायों' को, योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन को 'देवी दुर्गा' की उपासना करने का आदेश देने का प्रमाण 'महाभारत ग्रंथ' में से ही देता हूँ।

संजय उवाच
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्तिथम।
अर्जुनस्य हितार्थाय कृष्णो वचनमब्रवीत्।।
संजय कहते हैं
दुर्योधन की सेना को युद्ध के लिये उपस्थित देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन के हित की रक्षा के लिये इस प्रकार कहा।।

श्रीभगवानुवाच
शुचिर्भूत्वा महाबाहो संग्रामाभिमुखे स्तिथ:।
पराजयाय शत्रूणां दुर्गास्तोत्रमुदीरय।।
श्रीभगवान बोले
महाबाहो ! तुम युद्ध के सम्मुख खड़े हो, पवित्र होकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये दुर्गादेवी की स्तुति करो।।

संजय उवाच
एवमुक्तोSर्जुन: संख्ये वासुदेवेन धीमता।
अवतीर्य रथात पार्थ: स्तोत्रमाह कृताञ्जलि:।।
संजय कहते हैं
परम बुद्धिमान भगवान वासुदेव के द्वारा रणक्षेत्र में इस प्रकार आदेश प्राप्त होने पर कुन्तीकुमार अर्जुन रथ से नीचे उतर कर दुर्गा देवी की स्तुति करने लगे।।

अर्जुन द्वारा अपनी स्तुति करने से प्रसन्न होकर 'देवी दुर्गा' ने स्वयं प्रकट होकर,अर्जुन को शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद किस प्रकार से दिया,यह महाभारत में ही वर्णित निम्न श्लोकों के माध्यम से देखते हैं।

संजय उवाच
ततः पार्थस्य विज्ञाय भक्तिं मानववत्सला।
अन्तरिक्षगतोवाच गोविंदस्याग्रत: स्तिथा।।
संजय कहते हैं
राजन ! अर्जुन के इस भक्ति भाव का अनुभव करके मनुष्यों पर वात्सल्य भाव रखने वाली माता दुर्गा अन्तरिक्ष में भगवान श्री कृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गईं और इस प्रकार बोलीं।।

देव्युवाच
स्वल्पेनैव तु कालेन शत्रूञ्जेष्यसि पाण्डव।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष नारायणसहायवान।।
अजेयस्त्वं रणेSरीणामपि वज्रभृत: स्वयम।
देवी ने कहा
पाण्डुनंदन ! तुम थोड़े ही समय में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे, दुर्धर्ष वीर ! तुम तो साक्षात नर हो , ये नारायण तुम्हारे सहायक हैं , तुम रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये अजेय हो, साक्षात इंद्र भी तुम्हे पराजित नहीं कर सकते।।

अतः इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण ,जब स्वयं अर्जुन को ही देवी की उपासना करने का आदेश दे रहे हैं तो उनके नाम पर व्यापार करने वाले सम्प्रदाय किस आधार पर अन्य देवी-देवताओं की उपासनाओं को अपने अनुयायियों के लिए निषेध कर सकते हैं ।
इसके अतिरिक्त यदि आप 'रामायण' पढ़ें तो उसमें भी भगवान राम के द्वारा रावण वध के लिए 'दस महाविधाओं' में से प्रथम (काली) की उपासना करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का वर्णन मिलता है, क्यों कि रावण स्वयं ही भगवान शंकर के साथ-साथ अपनी कुल देवी निकुम्भला(बगुलामुखी) की भी उपासना किया करता था, जिसके कारण वह बिना 'देवी काली' का आशीर्वाद प्राप्त किये ,भगवान राम के लिए भी अवध्य था। 

''शिवार्पणमस्तु"

-Astrologer Manu Bhargava

Jyotish Ka Rahasya ज्योतिष का रहस्य : भाग - 1


आज मैं ज्योतिष में श्रद्धा रखने वाले सज्जनों की सभी शंकाओं का निवारण करने जा रहा हूँ कृपया ध्यान पूर्वक पढ़ें-

प्रायः देखने में आता है कि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में दशा -अंतर्दशा बहुत शुभ चल रही होती है परंतु फिर भी उस पर अचानक से विपत्ति आ जाती है, तथा दशा-अंतर्दशा अशुभ होने पर भी उन्हें अचानक से धन आदि की प्राप्ति हो जाती है।
तो ये सब क्या है ? क्या ज्योतिष के सिद्धांत मिथ्या हैं ?

मित्रों ज्योतिष के जो भी सिद्धांत पूर्व के ऋषियों ने हमें दिये हैं वह मिथ्या नहीं है , सत्यता यह है कि जन्म कुंडली में दशा-अंतर्दशा के अतिरिक्त प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा एवं गोचर का फल भी जातक को मिलता है।

अनेक बार गोचर (तात्कालिक रूप से राशियों, नक्षत्रों पर घूमने वाले ग्रहों की स्थिति) में ग्रहों का फल इतना शुभ हो जाता है कि ग्रह ,जातक को अपने अवधिकाल मे शुभ फल प्रदान करके अगली राशि में चला जाता है भले ही जातक की दशा-अंतर दशा अशुभ चल रही हो । इसी प्रकार से अनेक बार शुभ दशा-अंतर्दशा के चलने पर भी यदि गोचर में ग्रहों की स्थिति अशुभ हो जाए तो जातक को बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं।

ठीक इसी प्रकार शुभ गोचर और शुभ दशा-अंतर दशा के चलने पर भी यदि प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशाएं अशुभ चल रही हों तो भी जातक कष्ट प्राप्त कर जाता है तथा इसके विपरीत गोचर एवं दशा-अंतर दशाओं के अशुभ स्थिति में होने पर भी यदि प्रत्यंतर, सूक्ष्म और प्राण दशाएं शुभ चल रही हों तो भी जातक को अचानक से शुभ फल की प्राप्ति हो जाती है।

अतः मनुष्य चाहे कितना भी चतुर हो जाये ईश्वर ने उसके सभी बटन अपने हाथों में ले रखे हैं जिसे दबाने पर मनुष्य कठपुतलियों की भांति नृत्य करने पर विवश है ,ईश्वर की इस क्रीड़ा को या तो कोई सिद्ध पुरुष समझ सकता है अथवा कोई ज्योतिषाचार्य।

अतः एक अच्छे ज्योतिषी को चाहिये कि यदि उनके पास कोई जातक अपनी जन्म कुण्डली लेकर आये तो वह उसकी कुंडली में दशा, अंतर्दशा, प्रत्यंतर दशा, सूक्ष्म दशा , प्राण दशा तथा गोचर की स्थिति को देखकर ही कोई निर्णय दें व उपाय बताएं ।

इसके अतिरिक्त जातकों को चाहिए कि वह ज्योतिषीय उपायों को करने के साथ-साथ सत्कर्मो को करते हुए स्वयं भी उन उच्च कोटि के देवी-देवताओं की आराधना करते रहें जिन्होंने मनुष्यों को उनके पाप पुण्यों के भुगतान कराने के लिए यह ग्रह-नक्षत्रों का पूरा सैटअप बनाया है।

अंत में एक और बात यह कि ज्योतिष यहीं समाप्त नहीं हो जाता, कुंडली में ग्रहों के बलाबल, दृष्टि-युति संबंध, मारक, कारक, अकारक ग्रह, मुख्य कुण्डली में कहीं ग्रह अस्त तो नहीं हुआ अथवा अंशो में (डिग्रिकली) कम शक्तिशाली तो नहीं है, अष्टक वर्ग में बिंदुओं की स्थिति, वर्गोत्तम ग्रह ,पंचधामैत्री चक्र में ग्रहों की स्थिति, नक्षत्रों पर शुभ-अशुभ प्रभाव पड़ने वाले प्रभाव आदि इन सूक्ष्म बातों की विवेचना के आधार पर ही सूक्ष्म निर्णय दिये जा सकते हैं।

''शिवार्पणमस्तु"
-Astrologer Manu Bhargava